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बुधवार, 9 नवंबर 2022

बंद रास्ते

 नरेश तैयार होकर बाहर कमरे में आया अर्दली उसका बैग उठाकर तैयार खड़ा था। उसने नंदा पर एक नजर डाली उसे बाय कहा नंदा ने भी उदास सी मुस्कान के साथ जवाब दिया तो चिढ़ गया नरेश लेकिन कुछ बोला नहीं । बेटे के कमरे से म्यूजिक की आवाज बाहर आ रही थी लेकिन बेटा कमरे में था। एक हूक सी उठी जब घर में होता है तब तो डैडी को बाय कहने आ सकता है। कई कई दिन हो जाते हैं बेटे का चेहरा देखे। बेटी तो शायद अभी सोकर ही न उठी हो। 

पता नहीं किस बात की अकड़ है यह बंगला यह शानो शौकत हर जरूरत के लिए रुपये सभी मिलता है फिर भी नरेश का मन खिन्न हो गया। 
बहुत बड़ा अधिकारी है नरेश अपना बचपन अभावों में बिताने के बाद भी वह अपने सपनों की डोर थामे रहा। पढ़ाई  के लिए शहर आया तो फिर गाँव का रुख न किया।  सिंचाई महकमे में अधिकारी के पद पर पदस्थ हुआ तो गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई लेकिन वह नरेश के अंतस को न भिगो सकी। सिंचाई योजना की नहरें गांव तक पहुँचाना सूखा काम था फिर वह खेत क्यों तर करता? कितने ही किसान सरकार की नहीं उसकी बेरुखी से हताश हो फंदे पर लटक गए। उसके बापू तो इतने शर्मिंदा हुए कि एक रात गाँव छोड़कर हमेशा के लिए कहीं चले गए। उसे खबर लगी तो वह गाँव गया था लेकिन माँ द्वारा मुँह पर दरवाजा बंद करने से इतना आहत हुआ कि दरवाजे के उस पार छलनी कलेजे को नहीं देख सका।  
साहब अर्दली ने आवाज लगाई तो वह चौंका। आज उसे यह सब क्यों याद आ रहा है? उसे तो खुश होना चाहिए और वह खुश है भी कि गाँव देहात का कोई अंश अब उसके जीवन में नहीं है। वह पढ़ा लिखा आधुनिक इंसान है जिसके पास धन दौलत पद सम्मान सभी कुछ है। शुरू शुरू में रिश्तेदारों ने उसके यहाँ आने जाने की परंपरा शुरू की जिसे उसने सख्ती से रोक दिया। वह नहीं चाहता था कि उनके देसी रहन-सहन भाषा बोली का प्रभाव बच्चों पर पड़े। नंदा के गंवारू तरीके बदलने में वह झुंझला जाता कभी झिड़क देता तो कभी बुरी तरह अपमानित करता। हूं  तो इसका फायदा तो उसे ही हुआ न आज सोसाइटी की मोस्ट चार्मिंग वुमन है। पोर्च में खड़ी गाड़ी तक की दूरी मापने में वह पिछले 25 बरस का सफर तय कर आया। 
न जाने क्यों आज मन बेहद उदास था। उसने एक नजर दरवाजे पर डाली वह भी उसी की तरह अकेला सूना खड़ा था। उसके साथ से भी उसे तसल्ली नहीं मिली बल्कि उदासी और गहरा गई। उसे याद आया वह देर से उठता था  सुबह बेटा उसे उठाता था कि बस स्टॉप पर पापा छोड़कर आएंगे और वह अर्दली को हुकुम देता बाबा का बैग बोतल लेकर उसे ठीक से बस में बैठाना। नंदा बस स्टैंड पर जाकर खड़ी हो यह उसे पसंद नहीं था। 
गाड़ी आगे बढ़ गई पॉश कॉलोनी में बड़े-बड़े बंगले, पेड़ों और चारदीवारी से घिरे मौन खड़े थे। उनमें कोई स्पंदन नहीं था। गाड़ी कॉलोनी से बाहर निकल गई। सड़क के एक छोटे से टुकड़े के किनारे मजदूरों के मकान बने थे। यहाँ हमेशा गाड़ी की गति धीमी हो जाती है। उसने देखा एक मजदूर अपने तीन बच्चों को साइकिल पर बैठाकर चक्कर लगा रहा है। उसकी पत्नी के चेहरे पर असीम आनंद और संतोष छलक रहा है। थोड़े आगे एक सामान्य सा दिखने वाला लड़का अपने बुजुर्ग पिता को सहारा देकर ऑटो में चढ़ा रहा  था। आॅटो के कारण गाड़ी रुक गई ड्राइवर हॉर्न बजाने लगा। और कोई दिन होता तो नरेश झुंझला कर एक भद्दी गाली देता लेकिन आज वह बोल पड़ा रुक जाओ दो मिनट बुजुर्ग व्यक्ति हैं शायद बीमार हैं। बुजुर्ग ऑटो में बैठ गए एक युवती ने अपने पल्लू की गांठ खोलकर कुछ मुड़े तुड़े नोट उस युवक को थमाये। वह शायद लेने से मना कर रहा है उसने उसकी जेब में वे रुपए रख दिये। 
ऑटो आगे बढ़ा गाड़ी ने उसे ओवरटेक किया और फर्राटे से चौड़ी सड़क पर दौड़ने लगी। नरेश का मन पीछे देखे दृश्यों में अटक गया था। अचानक उसे महसूस हुआ कि तरक्की के जिस पायदान को वह अपनी बड़ी उपलब्धि बड़ी उड़ान समझ रहा था वह कितनी बौनी है ? आज वह भले आसमान में है लेकिन उसके पास वापस लौटने को दो घड़ी सुस्ताने को कहीं कोई स्नेह सिक्त दरख़्त नहीं है।
कविता वर्मा

मंगलवार, 1 नवंबर 2022

और बाँध फूट गया

 देवेंद्र भाई को हार्ट अटैक आया है  यह खबर मोहल्ले में आग की तरह फैल गई। पड़ोस के शर्मा अंकल और सुभाष भाई तुरंत गाड़ी में डालकर हॉस्पिटल ले गए ।कार के पीछे तीन चार और लोग भी हॉस्पिटल पहुँच गए थे। मोहल्ले के लोग झुंड बनाकर देवेंद्र भाई की सज्जनता का गुणगान करने लगे। कुछ लोगों ने हार्टअटैक कोलेस्ट्रॉल बीपी के बारे में अब तक का अर्जित ज्ञान उन्डेल कर अपनी विद्वता दर्शाने के इस मौके को लपक लिया तो कुछ डॉ और हॉस्पिटल के बारे में अपनी जानकारी साझा करने को उतावले थे।

 देवेंद्र भाई की पत्नी तो उनके साथ ही  हॉस्पिटल चली गई थीं। आनन-फानन में देवेंद्र को आईसीयू में भर्ती किया गया ऑक्सीजन लगाई गई और बोतल इंजेक्शन की मानो झड़ी लग गई। सभी आईसीयू के बाहर खड़े थे सुभाष भाई हॉस्पिटल की औपचारिकता पूरी करने में लगे थे और देवेंद्र की पत्नी पूजा धड़कते दिल से आँसुओं में डूबी थीं तभी  कॉलेज से उनका बड़ा बेटा छोटी बेटी को लेकर वहाँ पहुँच  गया। आते ही उसने पूछा क्या हुआ? इस समय किसी को कुछ नहीं पता था तो कोई उन्हें क्या बताता ? 
लगभग एक घंटे बाद डॉ बाहर आए उन्होंने बताया कि हल्का सा अटैक था लेकिन अब ठीक है। थोड़ा स्टेबल होने पर एंजियोग्राफी करके पता चलेगा कि कहीं कोई ब्लॉकेज तो नहीं है? हॉस्पिटल का बिल पूजा ने अपने बचाए पैसों से भर दिया था। एक दिन बाद देवेंद्र भाई को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया। 
सुबह शाम मोहल्ले के लोग देखने आते कोई खाना लाता कोई फल फूल रिश्तेदारों के फोन आ रहे थे। देवेंद्र बिस्तर पर पड़े सब कुछ चुपचाप देख रहे थे। ज्यादा बात करने की उन्हें इजाजत नहीं थी और न ही उनका बोलने का मन था। डॉक्टर राउंड पर आए थे नब्ज देख दवाइयाँ बोतल इंजेक्शन में फेरबदल करके उन्होंने पूछा "कैसा लग रहा है?" 
देवेंद्र ने हाथ के इशारे से बताया ठीक है। 
वह पूजा से मुखातिब हुए पहले कभी सीने में दर्द वगैरह हुआ है? बीपी का प्रॉब्लम है? 
"नहीं ऐसा तो कोई प्रॉब्लम नहीं है।" 
"घर या ऑफिस का कोई तनाव?"
" नहीं कहीं कोई तनाव नहीं है।" पूजा ने जैसे याद करते हुए कहा। 
देवेंद्र ने मुँह फेर कर आँखें मूंद लीं। क्या उन्हें सच में कोई तनाव नहीं है? अगर नहीं है तो फिर यह अटैक क्यों आया? वह इस कदर तनाव क्यों महसूस कर रहे हैं? 
बंद आँखों से देवेंद्र भाई गुजरे वाकयों को फिर से देखने लगे। एक प्राइवेट नौकरी जिस पर मंदी की तलवार पिछले कई सालों से लटकी हुई है जिसके कभी भी गिर पड़ने की आशंका से वे हर कदम सोच समझ कर रखते हैं लेकिन घर के खर्चे तो काम होने का नाम ही नहीं लेते। वे कई बार पूजा को आने वाले समय की भयावहता की आशंका से अवगत करवा चुके है लेकिन वह तो जैसे कुछ समझना ही नहीं चाहती। उनकी पोस्ट के अनुसार घर का रहन सहन है लेकिन उसमे बिना एक्स्ट्रा खर्चे के उसे बनाये रखना बहुत मुश्किल भी नहीं है। घर में जरूरत का सभी सामान मौजूद है जिसे अभी बरसों चलाया जा सकता है। उन्हें याद आया पिछले ही महीने बेटे ने कहा था 
" पापा मुझे नई बाइक लेना है 75000 की आएगी" बेटे ने जैसे ही अपनी माँग रखी पत्नी ने तुरंत समर्थन कर दिया। एक बार भी न उनसे पूछा कि इतने पैसों की व्यवस्था कैसे होगी न कहा कि दो साल पहले की बाइक में क्या खराबी है? बेटी भी बड़ी हो रही है उसकी शादी के लिए ज्यों-ज्यों  रुपयों का इंतजाम करते हैं त्यों त्यों शादी के खर्चे बढ़ते जाते हैं। घर के खर्च तो जैसे हर महीने ही बढ़ रहे हैं। पत्नी पूजा से कभी बढ़ते खर्च की बात छेड़ी भी तो उसने बुरा सा मुँह ही बनाया और तुनक कर बोली कि "क्या मैं अपने ऊपर खर्च करती हूँ? अब परिवार है तो खर्च तो होंगे। " कभी कभी वे इन सब से तंग आ जाते मन करता चीख चीखकर अपनी परेशानी बताएं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है वे जानते हैं। 
सुभाष भाई मिलने आए हैं पूजा से पूछ रहे हैं कि पैसों का इंतजाम तो है न? बेटे को लेकर रिसेप्शन पर गए हैं उनकी आ़ँखें भर आईं एक पड़ोसी को चिंता है ऐसी चिंता की आस वे पूजा से हमेशा करते रहे। आँखें मूंदकर उन्होंने आँसू तकिए में छुपा दिए वे मर्द हैं रो नहीं सकते। अगर किसी ने उनके आँसू देख लिए तो सब घबरा जाएंगे। 
उन्हें याद आया जब वह लगभग आठ नौ बरस के होंगे तब साइकिल सीखते हुए बुरी तरह गिरे  थे। घुटने कोहनी सब छिल गए खून छलछला आया। मुँह जमीन से टकराया जिससे होंठ फट गया। बुक्का फाड़कर रोए थे वे, तब पिताजी ने बुरी तरह घुड़का था क्या लड़का होकर रोता है? लड़के रोते नहीं हैं। कैसे बताते वे कि कितना डर गए थे? कैसे बताते कि गिरने से लगी चोट के अलावा साथी दोस्तों की हँसी और उड़ाई गई खिल्ली का भी दर्द था उन्हें। जब दर्द बताने के लिए रो नहीं सकते आँसू नहीं बहा सकते तो शब्दों में उन्हें कैसे छलकाते? दाँत भींचकर घाव पर हल्दी चूना लगवाते रहे। उसके बाद भी याद रखते कि उन्हें रोना नहीं है वह लड़के हैं और लड़के रोते नहीं हैं। 
बड़े होते होते यारों दोस्तों के बीच भी शान तभी रहती जब विकट से विकट स्थिति में चाहे हेड मास्साब की छड़ी पड़े या टेस्ट में फेल होने पर घर में कुटाई हो रोया ना जाए। दादी जो उनके घावों पर हल्दी चूना लगाती थीं उनकी गोद में सिर रखकर वे उनसे सब बातें कहते थे वे भी कभी उनके रुंआसे होने पर झिड़क देतीं कि लड़के रोते नहीं हैं। उन्हीं दादी के न रहने पर उन्हें जोर से रुलाई आई थी और वह घर के पिछवाड़े के दरवाजे से गाँव के तालाब किनारे बैठे रहे। उस दिन आँसू बहे थे लेकिन इतने छुपकर कि कोई देख न ले। जब उन्होंने देखा कि घर के पुरुष भी सूखी सूनी आँखों से दादी को देख रहे हैं उन्हें खुद पर शर्म आई कैसे लड़के हैं वे?  देवेंद्र ने खुद को धीरे धीरे कठोर करना शुरू किया। कठोर तो वे नहीं हो पाए सुख-दुख परेशानियाँ उन्हें सालती थीं लेकिन उन्होंने अपनी भावनाओं को छुपाना और आँखों को सुखाना सीख लिया था। फिर भी कभी-कभी उनका मन होता कि वह पूजा की गोद में या सीने में सिर छुपाकर खूब रोएं। नई नई शादी में उन्हें झिझक होती मन में डर भी रहता पता नहीं पूजा उनके बारे में क्या सोचे क्या धारणा बना ले? फिर उन्होंने यह ख्याल ही छोड़ दिया। ऑफिस घर खुद की परेशानियाँ वे चुपचाप गटक लेते  और उसका दबाव सीने पर महसूस करते। आज भी वही दबाव उनके दिल को इस दर्द तक ले आया। 
आज हॉस्पिटल से डिस्चार्ज मिलेगा तीन दिन वह कुछ सुकून से रहे। उन्होंने पत्नी और बेटे को खर्च पैसे की चिंता में देखा उन्हें लगा शायद अब वे उनकी स्थिति उनके तनाव को समझ पाएं। हालाँकि उन्हें परेशान देख कर वे भी खुश नहीं हुए लेकिन वक्त जरूरत पर पैसों  अहमियत समझाने के लिए यह जरूरी है यह सोच कर चुप रहे। जिंदगी को मौत की डगर पर जाते देख एक बार फिर उनका मन हुआ था कि वे जोर से रोयें लेकिन इस समय उनका रोना पत्नी और बच्चों को हिला देगा यह सोच कर एक बार फिर उन्होंने अपने आँसू जज्ब कर लिए थे। आज उन्होंने यह सोचा कि अब वे इस तनाव को रोककर नहीं रखेंगे उसे बाहर निकालेंगे। दुनिया को नहीं तो कम से कम घर वालों को तो दिखाएँ। यह सोच कर ही उन्हें बड़ी तसल्ली मिली। 
पापा चलिए ऑटो आ गया बेटे ने उन्हें सहारा देकर खड़ा किया उनकी चप्पलें सीधी की और बेटे का सहारा लेकर देवेन्द्र फूट-फूट कर रो पड़े।
कविता वर्मा

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2022

भोलू जी उठा

 भोलू मेरा तौलिया कहाँ है? भोलू मेरी बाइक साफ कर दी? भोलू मेरे जूते पालिश कर दे। कॉलोनी के उस घर से रोज सुबह से ऐसी ही आवाजें आतीं जो दोपहर होते तक भोलू छत पर कपड़े सुखा दे भोलू  गेहूँ पिसवा ला सब्जी ले आना पिंकी को कोचिंग छोड़ दे पौधों को पानी दे दे कपड़े उठा ला से होती हुई शाम तक भोलू बिस्तर लगा दिए? करता क्या है  सारे दिन? बिल्कुल अकल नहीं है इसमें काम के नाम पर जी चुराने लगता है की झिडकियों पर खत्म होतीं। अगली सुबह फिर उन्हीं जुमलों से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होती।

 भोलू मिश्रा परिवार का सबसे छोटा बेटा जो अपने माता-पिता दो भाई भाभी और एक भतीजी पिंकी के साथ शहर की उस मध्यमवर्गीय कॉलोनी में रहता है। गोलू के पिता मिश्रा पंडित जी किसी सरकारी विभाग में अपनी अकाउंटेंट की नौकरी से रिटायर होकर आजकल पूजा-पाठ जप हवन के द्वारा अपने यजमान से मोटी कमाई कर रहे हैं।  दोनों भाई पढ़ लिखकर प्राइवेट कंपनी में लग गए हैं जहाँ अपने परिवार को पालने लायक तनख्वाह पा जाते हैं। सबसे छोटा भोलू बचपन से ही बहुत बीमार रहा फिर माँ का लाडला भी जिन्होंने उस पर पढ़ाई लिखाई का कोई जोर न दिया। नतीजा यह हुआ कि वह पढ़ाई में पिछड़ता ही गया और जैसे-जैसे तृतीय श्रेणी से दसवीं पास करके उसने पढ़ाई छोड़ दी। उस समय पंडित जी दोनों बड़े बेटों की नौकरी और शादियों की खुशियाँ मनाने में ऐसे मगन थे कि छोटे भोलू पर उनका ध्यान ही न गया। माँ अभी भी सबसे छोटे बेटे के लाड़ और मोह में ऐसी अंधी थी कि उसके भविष्य के बारे में कुछ सोच ही नहीं पा रही थी। 
भोलू की जिंदगी उस कठपुतली के समान थी जो रोज परिवार वालों के इशारे पर दिनभर नाचती थी और शाम को अपने बक्से में तह करके रख दी जाती थी दूसरे दिन फिर से इशारों पर नाचने के लिए। उसकी अपनी इच्छा अपनी कोई चाह या सपने नहीं होते। उसका कोई भविष्य नहीं होता। भोलू के भविष्य के विषय में भी कोई नहीं सोचता था। उसकी कम अक्ली पर सबको भरोसा था कि वह भी कुछ नहीं सोच पाता होगा। लेकिन ऐसा सोचने वाले यह नहीं सोच पाते थे कि अगर वह सचमुच बेअकल है तो वह इतने काम कैसे कर पाता है? 
भोलू खुद क्या सोचता है वह खुद भी समझ नहीं पाता। एक दोपहर भोलू घर से निकला और पास के एक मंदिर के बगीचे में जा बैठा। वह आज बहुत उदास था। सुबह-सुबह बड़े भैया ने फिर पंडित जी ने उसे डाँट दिया। सुबह से इतने काम थे कि वह चाय भी नहीं पी पाया वह पड़े पड़े ठंडी हो गई। भाभी ने ठंडी चाय देखकर उसे फिर डाँट दिया कि जब पीना नहीं तो बनवाई क्यों? खुद तो कुछ कमाते नहीं हो मुफ्त में मिल रहा है तो गर्रा रहे हो। भाभी की बात सुनकर माँ भी चुप रहीं उनकी चुप्पी भोलू को आहत कर गई। 
इस बात और चुप्पी ने भोलू को सोचने पर मजबूर कर दिया। वह कमाल नहीं रहा वह जो दिन भर काम करता है दो टाइम खाना और दो जोड़ी कपड़ों के बदले उससे उसे कोई कमाई नहीं हो रही है। उसे जाने क्यों याद आ रहा है कि जब भी उसे कुछ लेना होता वह माँ से पैसे मांगता है और वह दस सवाल जवाब के बाद उसे पैसे देती हैं। उसे डर रहता है कि कहीं जेब में पैसे होने से भोलू बिगड़ न जाए।
 आज उसे न जाने क्यों ढेरों पुरानी बातें याद आ रही हैं। बड़े भाइयों के काम उनकी डाँट उनकी दुत्कार पंडित जी का उसे देखकर हमेशा अफसोस जाहिर करना। माँ का हमेशा चुप रहना और मानों उसे लेकर एक अपराध बोध से भरे रहना।
 आज भोलू सोच रहा है कि वह क्या है क्या कर रहा है क्या करना चाहता है? उसे आश्चर्य हो रहा था कि आज तक उसने कभी अपने बारे में कैसे नहीं सोचा? तभी किसी के हँसने की आवाज आई। पार्क में पेड़ के नीचे एक जोड़ा बैठा था जो किसी बात पर जोर से हँस रहा था। भोलू  उन्हें देखकर सोचने लगा वह पिछली बार कब हँसा था? बहुत सोचने पर भी उसे याद नहीं आया कि वह कब हँसा था? उसे तो यह भी याद नहीं आया कि वह रोया कब था? घुड़कियाँ तो उसे रोज ही मिलती थीं वह इनका आदी हो गया था और शायद इसीलिए कोई बात उसे खुशी या दुख नहीं देती थी। आज वह वाकई दुखी हो गया था भाभी के तानों के बजाय माँ की चुप्पी ने पिता की उदासीनता ने उसे आहत किया था और वह अपने होने का अर्थ खोजने लगा था। 
उस दिन भोलू देर तक पार्क में बैठा रहा अब उसने हर दिन दोपहर में पार्क आने का नियम बना लिया था। यहाँ बैठकर वह कुछ देर खुद के साथ बैठता था लोगों को हँसते बोलते बच्चों को खेलते देखता और खुश होता। दोपहर में घर में बहुत ज्यादा काम नहीं रहता था सभी लोग आराम करते थे इसलिए किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। 
उस दिन उसकी बेंच पर उसी का हमउम्र एक लड़का बैठा था। भोलू उसे देखकर कुछ ठिठका फिर झिझकते हुए बेंच के किनारे पर बैठ गया। वह लड़का थोड़ा खिसक गया। अनायास ही उनकी बातें शुरू हो गईं। क्या नाम है क्या करते हो से शुरू हुई बातें एक सुकून सा देने लगीं भोलू को। उसने स्कूल छोड़ा उसके बाद से किसी ने उससे इस तरह बात नहीं की। स्कूल में भी उसके बहुत सारे दोस्त नहीं थे बस एक ही दोस्त था जो अब कहाँ है उसे नहीं पता। 
वह लड़का शेखर पास के एक ढाबे में वेटर था। इस शहर में नया और अकेला था तो दोपहर का कुछ समय यहाँ काटने चला आता। उससे बात करके भोलू को पता चला कि काम करके पैसे कमाए जाते हैं। वैसे पता तो उसे पहले से था लेकिन उसने कभी अपने किये काम की महत्ता नहीं समझी थी। घर में किसी ने भी नहीं समझी थी वह तो खैर है ही कम बुद्धि। लेकिन घर में बाकी सब तो समझदार हैं उन्होंने भी नहीं बताया कि उसका काम महत्वपूर्ण है। शेखर से बात करते हुए भोलू की भी इच्छा हुई कि वह पैसे कमाए लेकिन कैसे वह तो कम अक्ल है। उसे कौन काम देगा? 
शेखर ने उससे पूछा था वह क्या क्या कर सकता है? 
"कुछ नहीं" यही जवाब सूझा था उसे। 
"कुछ तो कर सकता होगा" शेखर ने उसे उत्साहित करते हुए पूछा। घर में कुछ तो करता होगा। 
भोलू फिर सोच में पड़ गया घर में जो करता है क्या वह काम है? घर में तो आज तक किसी ने नहीं कहा कि वह कोई काम करता है। उसने बताया कि वह जूते पॉलिश करना गाड़ी साफ करना बिस्तर बिछाना उठाना जैसे तमाम काम करता है। हाँ कभी-कभी जब भाभी काम नहीं करती वह माँ के साथ खाना भी बनाता है। 
"तुम्हें खाना बनाना आता है?" शेखर ने उत्साहित होकर पूछा। 
"हाँ आता है।" 
"फिर तो तुम्हें काम मिल सकता है। मेरे ही होटल में एक असिस्टेंट की जरूरत है अच्छे पैसे भी मिलेंगे।" 
भोलू की आँखों में चमक आ गई वह खुद कमाएगा लेकिन घर में कैसे बताएगा? पता नहीं सब क्या कहेंगे? वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि घर में बात करे। 
शेखर ने ही सुझाया तुम पहले होटल में बात कर लो। अगर बात बन जाती है तो कुछ दिन बिना किसी को बताए काम करो। जब पैसे लेकर जाओगे तो कोई कुछ नहीं कहेगा। भोलू की आँखें चमक उठीं उसने सोच लिया कि अब वह वह काम करेगा जिसका कोई मोल हो। अब वह खुद कमाएगा चाहे घरवालों से झूठ बोलना पड़े चाहे छुपाना पड़े। वह उठ खड़ा हुआ होटल जाने के लिए। कठपुतली में जीवन का संचार होने लगा था।
कविता वर्मा

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2022

जो तुम न होतीं

 अंदेशा तो पहले ही था और आज वह बुरी खबर आ ही गई कुसुम नहीं रही। 15 दिन मौत से जूझने के बाद उसने हार मान ली ।महेश बाबू पत्नी के साथ तुरंत रवाना हो गए। पत्नी बार-बार आँसू पोंछती और वे खामोश हैं मानों मन ही मन सोच रहे थे कि वहाँ जाकर क्या करना है और क्या कहना है या क्या नहीं कहना? या शायद सोच रहे हों कि उनसे कहाँ गलती हुई? वैसे ऐसा सोचेंगे इसकी संभावना कम ही थी फिर भी वह चुप थे गहरे सोच में डूबे हुए। 

लगभग 15 दिन पहले खबर आई थी कि कुसुम सीढ़ियों से गिर गई है। सिर फट गया है अस्पताल में भर्ती है बहुत खून बह गया है और महेश बाबू पत्नी को लेकर तुरंत चल पड़े थे। अस्पताल में बिस्तर पर जो पड़ी थी वह खुद की बेटी है यह स्वीकारने में समय लगा था उन्हें। पीला चेहरा निस्तेज आँखें जिनमें उन्हें देख कर कोई खुशी कोई आशा नहीं उभरी थी। धक्का लगा था उन्हें लेकिन वे खामोश रहे शायद कमजोरी की वजह से है सोच कर खुद को तसल्ली दी थी।  दो दिन रह कर लौट आए थे कुसुम को साथ लाने की चर्चा भी नहीं की थी उन्होंने। सालों नौकरी घर परिवार की जद्दोजहद में गुजर गए अब रिटायरमेंट के बाद फिर इस झंझट में कौन पड़े? बेटी के ससुराल में सास ससुर हैं पति हैं जेठ जेठानी हैं सब संभाल लेंगे वह बहू है उनके घर की। 
बरामदे में अर्थी सजी हुई थी कुसुम को उस पर लिटा दिया गया था। लाल साड़ी बड़ी बिंदी नथ टीका बिंदी सीने पर बड़ा सा मंगलसूत्र हाथ भर लाल चूड़ियाँ बहुत सुंदर लग रही थी वह। चेहरा भी भरा भरा लग रहा था वह पीलापन पिचके गाल कहीं नजर नहीं आ रहे थे। मरने के बाद शरीर फूल गया था शायद। सिर का घाव पल्ले से छुप गया था। 
ऐसी ही तो लग रही थी कुसुम जिस दिन दुल्हन बनी थी। कैसे बिलख बिलख कर रोई थी विदा के समय। महेश बाबू धम्म से उसके बगल में बैठ गए। उसके गाल पर हथेली रखी उसका ठंडापन उन्हें भीतर तक सिहरा गया। उन्होंने साथ लाई बनारसी साड़ी उस पर उड़ा दी। सुहागन सुहाग लेने लगीं वह परे हट गए।
अंतिम संस्कार के बाद स्नान के बाद दामाद पुनीत ने कहा पापा जी आप अंदर मेरे कमरे में आराम करें वे अंदर आ गए। अभी तक की बातचीत से यही पता चला कि सिर का घाव भरने लगा था कुसुम ठीक हो रही थी लेकिन फिर उसके फेफड़ों में पानी भरने लगा और हालत बिगड़ती रही। एक दिन वेंटिलेटर पर रही और कल शाम उसने दम तोड़ दिया। 
कमरे का बिखरापन स्वामिनी के बीमार होने की चुगली कर रहा था। कपड़े जूते तौलिया मैली चादर दीवार पर लगी शादी की फोटो पर जमी धूल बता रहे थे कि कोई उनकी सुध लेने वाला न था। वह लेट गए पर नींद कहाँ थी आंखों में। थोड़ी ठंड सी लगी पत्नी ने चादर निकालने के लिए अलमारी खोली तो कपड़े भरभरा कर उस पर गिर पड़े। उन्हें  चादर देकर वह कपड़े जमाने बैठ गई नींद चैन तो उसका भी गायब था। महेश बाबू पत्नी को देखते रहे एक सूनापन घर कमरे और उनके भीतर व्याप्त था। न जाने कब उनकी आँख लग गई। 
शाम हो चुकी थी बाहर बैठक में घर परिवार के लोग रिश्तेदार सभी बैठे थे वह भी वहाँ बैठ गए। अगले दिन सुबह उठावने के बाद दोपहर में ही जाने का निश्चय उन्होंने कर लिया था। वापसी में जाने से ज्यादा सन्नाटा था वह घर जाकर भी सहज नहीं हो पा रहे थे। पत्नी बैग में से कपड़े निकाल रही थी तभी उनकी नजर उस डायरी पर पड़ी। 
"यह क्या है" उन्होंने पूछा। 
"यह डायरी कुसुम के कपड़े जमाते समय मिली थी उसका नाम और लिखावट देखी तो चुपचाप बैग में रख ली। न जाने क्या लिखा हो शायद इसे पढ़कर पता चले कि क्या कुछ होता रहा उसके साथ? उसने तो कभी बताया नहीं।" कहते हुए पत्नी सुबक पड़ी। उन्होंने डायरी उठा ली और पन्ने पलटने लगे।  
डायरी के पहले पन्ने पर बेहद खूबसूरत फूलों के गुलदस्ते के बीच कुसुम का नाम लिखा था। महेश बाबू ने पन्ने पलटना शुरू किए। 
डियर डायरी 
आज मम्मी से ड्रेस डिजाइनिंग का कोर्स करने की बात कही थी जिसे बड़ी मायूसी से मम्मी ने मना कर दिया। अगले साल भैया का इंजीनियरिंग में एडमिशन करवाना है न जाने कौन सा कॉलेज मिले? किसी प्राइवेट कॉलेज में हुआ तो उसकी फीस भी ज्यादा होती है। भैया की पढ़ाई जरूरी है उसे नौकरी करना है मेरी पढ़ाई पर इतना खर्च फिर मेरी शादी के लिए पैसे बचाना कैसे कर पाएंगे? मैंने अपनी इच्छा को अपने ही अंदर दफन कर दिया दोबारा कभी इसका जिक्र तक न किया। 
डियर डायरी 
आज पापा के दोस्त आए हैं बातचीत में उन्होंने कहा यार लकी है बस एक ही लायबिलिटी है और पापा ठहाका मारकर हंस दिए। भैया का तीन साल से इंजीनियरिंग में सिलेक्शन नहीं हो रहा है उनकी कोचिंग ट्यूशन में हर महीने हजारों रुपए लगते हैं उनकी संगत को लेकर आप हमेशा चिंतित रहते हो लेकिन जिम्मेदारी सिर्फ मेरी महसूस करते हो पापा। 
भैया को मोटरसाइकिल सीखना है। आपने अपने दोस्त से लेकर उसे बाइक चलाना सिखाया फिर खुद का स्कूटर बेचकर बाइक खरीद ली। जब मैंने स्कूटर सीखने की बात की आप हंसकर टाल गए यह कहकर कि हाथ पैर टूट गए तो कौन तुझसे शादी करेगा? सारी जिंदगी तुझे बिठा कर खिलाना पड़ेगा। आपके लिए तो यह हँसी की बात थी पापा लेकिन मुझे गहरे तक चुभ गई। आपने हँसी हँसी में बता दिया कि मैं पराई हूँ और आपके घर में मेरे लिए पूरी जिंदगी के लिए जगह नहीं है। आपकी और मम्मी की हँसी देर तक चुभती रही। 
महेश बाबू पढ़कर सन्न रह गए हँसी मजाक में कही बातें ऐसे भी चुभती हैं यह तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। उन्होंने डायरी के कई पन्ने पलट डालें। 
डियर डायरी 
आज पुनीत जी ने बाइक न देने की बात पर आप को लेकर बहुत खरी-खोटी सुनाई बहुत बुरा लगा सुनकर। मैं जानती हूँ भैया की नौकरी के लिए सिफारिश रिश्वत में आपका बहुत पैसा लग गया है। पिछली बार मम्मी से कहा था कि बाइक का वादा पूरा नहीं होने से सबकी बातें ताने सुनने पड़ते हैं। उन्होंने यह कहकर बात खत्म कर दी कि बेटा तुम्हारी शादी में बहुत खर्च हो गया अब अपने घर की बातें खुद संभालना सीखो। भैया की सब बातें तो आप लोग संभालते हो पापा फिर मैं ही क्यों पराई हूँ? आपकी परेशानियाँ देखकर मैंने सबके ताने सबकी बातें सुनना सहना सीख लिया है। 
डियर डायरी 
मम्मी का ऑपरेशन है। भैया शादी के बाद अभी नौकरी पर गया है उसे छुट्टी नहीं मिलेगी आपने मुझे बुलवा भेजा है। घर में इस बात को लेकर बहुत बहस हुई मैंने सबके हाथ पैर जोड़े रोई गिड़गिड़ा तब आने की इजाजत मिली। 15 दिन घर का काम मम्मी की देखभाल, शादी के बाद पहली बार इतने दिन आपके यहाँ रही। आपके और मम्मी के मुँह पर भैया की व्यस्तता की चिंता और उसके द्वारा ऑपरेशन के लिए भेजे गए ₹10000 की तारीफ ही रही। मेरी सेवा का कोई मोल नहीं है पापा क्योंकि मैं तो पराई हूँ। 
डियर डायरी  
भैया भाभी आठ दिन की छुट्टी लेकर आए हैं यह बात उनके वापस जाने के बाद पता चली। मम्मी ने फोन कर घर के सूनेपन और खुद की उदासी को बहलाना चाहा। मम्मी ने बड़े उत्साह से बताया कि एक दिन ओंकारेश्वर महेश्वर घूमने गए थे। मम्मी ने यह भी कहा कि कितना अच्छा लगता है न जब पूरा परिवार साथ रहता है। पूरा परिवार!!! जिसमें मैं शामिल नहीं हूँ। जिसके साथ रहने के लिए आपने एक बुलावा भेजने की जरूरत नहीं समझी। 
डियर डायरी 
छोटी-छोटी बातें तो रोज ही होती हैं अब धीरे-धीरे बहुत सारी चीजों को बर्दाश्त करना सीख लिया है। अब दिल का एक हिस्सा धीरे-धीरे मरता जा रहा है। जब शरीर का एक हिस्सा मरने लगे तो दूसरे हिस्से में कोई बीज कैसे अंकुआ सकता है? पुनीत जी की दूसरी शादी की बातें फुसफुसाहटों के रूप में मुझ तक पहुँच रही हैं या शायद जानबूझकर पहुंचाई जा रही हैं। इस आधार पर तलाक तो मिल नहीं सकता और इसका इलाज बहुत महँगा है। पुनीत जी और घरवाले यह खर्च उठाना नहीं चाहते। आप से खर्च लेने की माँग करते हैं जो आपसे मैंने कभी नहीं कहा। अब मैं आपको कुछ नहीं बताना चाहती हूँ। अब मेरा जो होगा  सिर्फ मेरा होगा। 
डियर डायरी  
किन शब्दों में तुम्हारा शुक्रिया अदा करूँ? तुमने मेरी वह सब बातें सुनी मुझे समझा जिसे मैं किसी से नहीं कह सकती थी। लगता है अब मेरा और तुम्हारा साथ यहीं समाप्त होने वाला है। 
तुम्हारी कुसुम 

कविता वर्मा

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

मुक्ति

 एंबुलेंस रुकते ही कमर में जोर का झटका लगा दर्द की एक तीखी लहर रीढ़ में दौड़ गई जिसे अधबेहोशी में भी रीना ने महसूस किया। दरवाजा खुला रोशनी का एक कतरा मुंदी आँखों पर पड़ा उसने आँखों को हथेली से ढंकने का सोचा लेकिन वह इतनी निढाल इतनी बेदम थी कि हाथ हिला भी नहीं सकी । अपने आसपास हलचल सी महसूस की उसने और अचानक लगा जैसे पृथ्वी डोल रही है। उसका पूरा  शरीर ही हिल रहा था इस हिलने डुलने में कुछ चेतना सी आई उसने आँखें खोलने की कोशिश की लेकिन तेज रोशनी ने आँखें खोलने नहीं दीं। आसपास तेज आवाजें आ रही थीं जो शोर बन कानों में समा रही थीं लेकिन किसी स्पष्ट रूप में समझ नहीं आ रही थीं। अचानक वह  डोलती धरती किसी सतह पर टिक गई एक झटका सा लगा लेकिन राहत सी महसूस हुई। दर्द अभी चित्कारें मार रहा था। शायद अंदर बहने लगा था वह बहता हुआ महसूस कर रही थी क्या था वह राजीव का प्यार बेटी रूही के लिए ममता या परिवार वालों की आकांक्षा कुछ समझ नहीं आ रहा था। 

किसी ने उसका हाथ पकड़ा सिहर गई वह। यह तो वही चिर परिचित स्पर्श है जिसे उसके पिता ने उस हाथ में दिया था। नरम मुलायम और गर्म जिसे थाम सोती थी तो बेसुध नींद आती थी। वह फिर सो जाना चाहती थी उस स्पर्श को भीतर उतार कर तभी उसका हाथ छोड़ दिया गया। अकुला गई  वह। घर्र घर्र के शोर के साथ वह उस स्पर्श से दूर ले जाई जा रही थी। एक अनंत सुरंग में घुसती सी। पलकों पर तेज रोशनी के कतरे पड़ते हल्के होते होते फिर तेज हो जाते और फिर वह एक अंधेरे कक्ष में पहुंच गई। 
अचानक सभी आवाजें बंद हो गईं अंधेरा निस्तब्धता ने उसे  डरा दिया उसने फिर जोर लगाकर आंखें खोलना चाही लेकिन सफल नहीं हुई। उसने शरीर ढीला छोड़ दिया या शायद अब उसकी सारी ताकत चुक गई थी इसलिए शरीर ढीला पड़ गया। 
देर तक ठहरे इस अंधेरे सन्नाटे ने उसे दूर कई बरस पीछे धकेल दिया। पहली बार उसकी कोख में हलचल हुई थी खुशी के मारे पूरा परिवार बौरा गया था। तीसरी पीढ़ी के आगमन के आहट की खुशी कभी-कभी फुसफुसाहटों में उस तक पहुँचती रही। टेस्ट बेटा पहला बच्चा उसके अंदर बच्चे के कोख में घूमने से उठती आनंद की हिलोरों के साथ डर की लहरें भी पैदा करते रहे। इसी डर ने उसे इस कदर जकड़ लिया कि दर्द के समय शरीर ढीला ही नहीं हो सका और एक बार पहले भी वह ऐसे ही घुप अंधेरे ठंडे कमरे में पहुँचाई गई थी। रीढ़ की हड्डी में दिया वह इंजेक्शन अभी भी टीसता है लेकिन इसका जिम्मेदार कौन है वह समझ नहीं पाती। 
आसपास हलचल शुरू हो गई कॉटन कपड़े खून डॉक्टर नर्स की आवाजों ने उसे वर्तमान में खींचा। उसे लगा कि वह कहीं हवा में स्थिर है और बंद आँखों से सब देख रही है। उसके कपड़े काटे जा रहे हैं हाथ पर नस ढूंँढ कर बाटल लगाई जा रही है। नसों में कुछ रिसना शुरू हो गया है बेटी को गोद में लेकर ऐसा ही कुछ रिसा था सबके मन में। लक्ष्मी आई है अब पहली बार में जो हो जाए भगवान की मर्जी है। मायूस हो गई थी वह जैसे बेटी पैदा करके कोई भयंकर भूल कर बैठी हो। उसे गोद में लिए घंटों निहारती थी सोचती थी इतनी मासूम आँखें भोली मुस्कान देख कर कोई कैसे अफसोस कर सकता है? धीरे-धीरे बेटी की किलकारी में सभी अवसाद भूल गए और साल भर बीतते न बीतते उसके लिए भैया की चाह सिर उठाने लगी। काँप जाती थी वह अभी तक सुन्न शरीर पर कुछ होते रहने की दहशत से उबर नहीं पाई थी। ऑपरेशन के टांके कभी-कभार टीस उठते थे।  वह चाहती थी राजीव उन्हें सहलाये उससे पूछे उसमें दर्द तो नहीं होता लेकिन वह अपनी इच्छा पूर्ति के बाद करवट बदल कर सो जाता था। उन क्षणों में भी वह रूही के लिए भाई परिवार का वारिस जैसी बातें कर उसमें बेटे के लिए भावना का प्रवाह करता था। शायद यह मेडिकल साइंस से इतर कोई इलाज था बेटे की चाह पूरी करने का। 
अबॉर्शन सी स्थिति है युटेरस बहुत कमजोर है वजन नहीं ले पा रहा। दो साल में तीन बार लिंग परीक्षण बेटी फिर बेटी अवांछित बेटी हर बार अपने अंश को मशीनों से कटवा कर अपनी आत्मा के एक अंश को मारती कोख को हर बार मशीन कटर की खरखराहट से थर्राते हुए वह जानती थी कि उसे कितना कमजोर कर चुकी है। 
बार-बार कहना चाहा राजीव से अब बस अब और शक्ति नहीं बची है मुझ में नहीं चाहिए बेटी तो बेटा ही क्यों जरूरी है? लेकिन राजीव के पौरुष का विश्वास उसे चुप कर जाता देखना अबकी बार बेटा ही होगा। अब उन क्षणों में अंतरंग कुछ नहीं रहा था उन्हें परिवार की इच्छा वारिस वारिस होने की जरूरत और पौरुष का दंभ प्रवेश कर चुके थे। वे सभी जब रीना के भीतर प्रवेश करते अपमान से आहत निढाल हो जाती वह। ऐसा लगता मानो सरेराह निर्वस्त्र कर दी जा रही है। आँखों की कोरों से तकिए में जज्ब होता यह अपमान  अपेक्षा उम्मीदों से भरी उन आँखों को कभी नजर नहीं आया। अच्छा सोचो पॉजिटिव रहो जैसे जुमले उसके ऊपर उछाले जाते जिनमें कोई भाव न होता प्रेम का कतरा भी नहीं। 
बहुत जल्दी थी सभी को उसकी स्थिति कभी किसी ने नहीं समझी। चौथी बार घर में उत्सव सा माहौल था पूरा परिवार मंदिर गया घर में कथा करवाई शादी के गठजोड़ पहन कर वह और राजीव हवन पर बैठे। इस बार राजीव की हथेली में अपनी हथेली रखते लिजलिजा सा अहसास हुआ था उसे। मानो तीनों बार के कटे माँस के लोथड़ों पर उसका हाथ रख दिया गया हो। हटा लेना चाहती थी वह उसे लेकिन रखा रहने दिया मन तो सुन्न था ही तन भी कर लिया। हवन निपटते ही थक गई कहते वह कमरे में आ गई। सच में थक गई थी वह। चार साल में चार जन्म जितनी थकान थी उसे। अब उसकी थकान को समझा जा रहा था या शायद उसकी दौड़ को स्थगित कर दिया गया था। 
बहुत मुश्किल है ब्लीडिंग काफी हो चुकी है नहीं बचा पाएंगे। दरवाजा खुला शायद नर्स बाहर गई वह भी जाना चाहती है देखना चाहती है बाहर खड़े राजीव और सास-ससुर के चेहरे। उनके चेहरे की मायूसी शायद एक सुकून देगी उसे। क्या वह भी उन्हीं जैसी निष्ठुर हो गई है? हाँ शायद लेकिन इसमें अस्वाभाविक क्या है? साथ रहते एक दूसरे का स्वभाव अंगीकार कर ही लेते हैं लोग। तिर्यक मुस्कान सी फैली उसके होठों पर। 
मशीन की खरखड़ाहट ने डरा दिया उसे मुस्कान लुप्त हो गई। यह निष्ठुरता उस अजन्मे बच्चे से क्यों? वह तो लड़का है बेटा है मेरा उसे क्यों कोख से निकाला जा रहा है? बच्चा मर चुका है शायद गिरने से सिर पर चोट आई। युटेरस भी कमजोर था बच्चे को ऑक्सीजन सप्लाई बंद हो गई उसकी धड़कन तो पहले ही रुक गई थी। शब्द चीत्कार कर रहे थे युटेरस नीचे खिसक गया उसका मुँह डैमेज हो गया निकालना पड़ेगा। 
नर्स फिर बाहर गई इस बार वह बाहर नहीं जाना चाहती। डर गई है वह अब क्या वह उस घर में जा पाएगी? बंद होते दरवाजे ने मानो उसकी नियति निश्चित की। एक बेटी की माँ बिना कोख बिना किसी उम्मीद के अब वहाँ क्यों और कैसे रहेगी?
 मशीन की खर खराहट बंद हो चुकी है लाइट भी। कमरे में उसके भविष्य जितना अंधेरा है। उसने डॉक्टर नर्स को बाहर जाते देखा अब वह अपने शरीर में निढाल पड़ी है। इतना हल्का क्यों महसूस कर रही है वह? एकदम उन्मुक्त बिना किसी उम्मीद के अब वह अपनी जिंदगी जी सकेगी। राजीव तो साथ नहीं ही देंगे परिवार भी नहीं लेकिन बेटी तो उसके साथ रहेगी। 
दरवाजा खुल रहा है रोशनी का टुकड़ा उसकी पलकों को चीर उसकी आँखों में भरता जा रहा है। भविष्य में फिर इस अंधेरे से नहीं गुजरना होगा वह आश्वस्त है। बेटे ने उसे मुक्ति दे दी।
कविता वर्मा

रविवार, 2 अक्टूबर 2022

सारा जग अपना

 सुबह के 8:00 बज रहे थे ज्ञानम्मा अभी तक उठी नहीं थी। नींद तो बरसों के अभ्यास से सुबह 6:00 बजे ही खुल गई थी लेकिन आज शरीर के साथ मन की हिम्मत भी टूट रही थी। एक-दो बार मन ने धिक्कारा भी था लेकिन फिर मन ने ही समझाया था कि किसके लिए उठना है? कौन सा कुनबा जोड़ रखा है तुमने कि सुबह उठकर रोटी पानी साफ सफाई नहीं करोगी तो दुनिया उलट जाएगी ? पड़ी रहो चुपचाप जब हिम्मत हो तब उठना। प्यास से कंठ सूख रहा था बिस्तर मानो काट रहा था मन कचोट रहा था कि इस बुढ़ापे में बरसों के नियम धर्म छूट रहे हैं। आँखें बरसना चाहती थीं लेकिन सूख चुकी थीं। अब तो कभी पिछली जिंदगी देखने की कोशिश करती तो वह भी धुंधला जाती। 

घर के  बीचो-बीच बने आंगन में धूप फैल चुकी थी। ज्ञानम्मा ने कोशिश करके खुद को बिस्तर से उठाया और सहारा लेकर आंगन में आई। सारा घर सांय सांय कर रहा था। जोर की रुलाई भीतर से उमड़ी लेकिन गले में आकर अटक गई। किसी तरह एक कप चाय बनाई और वहीं आंगन की सीढ़ियों पर बैठ गई। ऐसे सीढ़ियों पर बैठकर दादी सास चाय पीती थीं। 
14 वर्ष  की थी वह  जब तीसरी पीढ़ी की सबसे बड़ी बहू बनकर रुनझुन करती इस आंगन में आई थी। दादा ससुर दादी सास दो चाची सास और 10 ननन देवर की किलकारियों से गूंजता आंगन। सब उसे घेरे रहते। बहुत छोटे देवर ननद उसके हार कंगन को छूकर देखते तो कोई उसकी रेशमी साड़ी को किसी को उसकी हँसी अच्छी लगती तो किसी को आंखें। पति तो उसके भोलेपन पर रीझे रहते। पांचवी तक ही पढी थी वह और पति तेरहवीं चौदहवीं में पढ़ रहे थे। मोटी मोटी काली किताबें देख वे मासूमियत से पूछतीं "यह किताबें काली क्यों हैं?"
"क्योंकि तुम्हारी काली आँखों ने इन्हें देख लिया है।" वह कुछ नहीं समझती पर कुछ समझने सा आभास देकर वहाँ से हट जाती। 
दिन भर घर में ज्ञानम्मा के नाम की आवाज लगती और वे इस कमरे से उस कमरे जाते हुए आँगन में खेल रहे छोटे ननद या देवर की तरफ से पिट्ठू खेल जातीं या बहुत देर से लंगडी का दाम देकर थके रुंआसे देवर की तरफ से दाम दे दो मिनट में किसी को आउट करके आँगन पार कर जाती। ज्ञानम्मा बच्चों की भाभी नहीं सखी सहेली तारक थीं उनकी फरमाइश अब ज्ञानम्मा के जरिए बड़ों तक पहुंचती और पूरी हो ही जाती। ऐसे ही खेलते कूदते तीन ननदों का विवाह किया ज्ञानम्मा ने। तब तक पति वकालत की पढ़ाई पूरी कर चुके थे और उनका नाम बनने लगा था। 
ज्ञानम्मा के चेहरे पर धूप पड़ने लगी तो वे आँगन में लौटीं। आंते कुल बुलाने लगी थीं। कल रात भी तो कुछ नहीं खाया इसीलिए कमजोरी लग रही थी। बुढ़ापे और अकेलेपन ने चिरई सी भूख कर दी थी। ज्ञानम्मा ने किसी तरह उठकर थोड़ा भात चढ़ा दिया टोकनी में पड़े एक दो टमाटर मिर्च गोभी का टुकड़ा उसी में डाल दिए और करछी चलाने लगीं। 
तीज त्यौहार पर बड़ी-बड़ी देगची में भात बनता था इस आँगन में जिसे दो लोग मिलकर उठाते थे। गांँव में चचेरे ममेरे फुफेरे रिश्तेदार भी घर में आते रहते मेला लगा रहता।
चार साल हो गए थे ज्ञानम्मा के ब्याह को अभी तक गोद हरी नहीं हुई थी। दादी चाची माँ सभी को चिंता होने लगी थी लेकिन ज्ञानम्मा को कभी किसी ने एक शब्द नहीं कहा। ज्ञानम्मा उनकी चिंता समझती थी। दादी का विष्णु पुराण सतत चलता था। इसी बीच उसकी दो देवरानी अभी आ गई थीं। ननदों के विदा होने का सूनापन इस आंगन में कभी नहीं व्यापा लेकिन एक चिंता कभी कभी आंगन में तैर जाती वह महसूस करती और मायूस हो जाती।
भात खदबदाने लगा था उन्होंने चुल्हा बंद किया और भात एक थाली में उलट दिया। उसकी भाप में झिलमिलाता  लाशों से पटा आँगन आ गया। उनकी मांँ बीमार थी बार-बार बुलावा आ रहा था। उस दिन भाई उन्हें लेने आया था। माँ का नेह उन्हें खींच रहा था तो इस आंगन का दुलार रोक रहा था। उस शाम गाँव में चन्ना केशव मंदिर में मूर्ति स्थापना थी। पूरा गाँव महीनों से उल्लास में डूबा इस दिन का इंतजार कर रहा था और वे इसी दिन नैहर जाने वाली थीं। उन्होंने भाई को एक दिन रुकने की विनती की लेकिन उसकी परीक्षा थी कैसे रुकता? माँ की अंतिम घड़ी थी उसे कैसे छोड़ता? न जाने  क्यों आँखों में आँसू भर बार-बार मुड़कर वे इस आँगन को देखती रहीं। भात से भाप उठना कम हो गई थी लेकिन मन भर आया था। एक बारगी थाली परे खिसका दी लेकिन फिर देह धरे को दंड समझ एक एक ग्रास मुँह में डालती रहीं। 
माँ उसी की राह देख रही थीं। उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसने दम तोड़ दिया। माँ की चिता ठंडी भी नहीं हुई थी कि वह मनहूस खबर आई जिसे उसे नहीं बताया गया। बदहवास सी पहुंची थी वह घर के दरवाजे पर। आँखों के सामने आँगन तो था ही नहीं। वह आँगन जहाँ दिनभर हँसी किलकारी गूँजती थी मानों सफेद चादर से ढँका था। दादा दादी और छोटी चाची को छोड़कर सभी उसके नीचे थे। मंदिर का प्रसाद जाने कैसे जहर हुआ कभी पता नहीं चला। पूरे गांव से 40 अर्थी उठीं इस सामूहिक विलाप में वह खुद का रुदन सुन ही नहीं पाई या शायद वह रोई ही नहीं पत्थर हो गई। दादा दादी उम्र के कारण और चाची तबीयत के कारण रुक गए थे। उसे नहीं पता मायके जाते हुए वह बार-बार घर आँगन को क्यों देख रही थी? क्या यह आभास था कि आखरी बार इसे खिलखिलाते देख लो? कुछ दिनों तक सब पथरा गया था। 
ज्ञानम्मा ने थाली धो कर रखी। सुबह से घर का दरवाजा नहीं खुला था जो कभी बंद नहीं होता था। अब उसे दरवाजे से किसी के आने की कोई आस भी नहीं रह गई थी लेकिन उन पथराए दिनों को एक बच्चे के क्रंदन ने तोड़ा था। उसने यंत्रवत काम निपटाए थे। दादा दादी टूट चुके थे चाची बौरा गई थीं न पहनने की सुध थी न खाने सोने की। वह सोचती काश वह भी इस तरह सुध बुध खो सकती लेकिन उसे इस का अवसर ही नहीं मिला। उसने दोपहर में उड़का दरवाजा खोला तो उस बच्चे को रोता पाया जिसे पता नहीं था कि उसके माता-पिता कहाँ चले गए? घर का वह दरवाजा फिर खुल गया। ज्ञानम्मा ने गाँव में घूम घूम कर बच्चों को बेसहारा औरतों को इकट्ठा किया। आँगन की किलकारी फिर गूँज उठी। 
थक गई वह अंदर जाकर लेट गई। अब उम्र हो चली है पता नहीं कब आँख मुंद जाए। ज्ञानम्मा की आँखों में वे सब बच्चे  घूम गए उन सब को पढ़ाई नौकरी के लिए उसने खुद खुशी खुशी विदा किया था। उसके जीवन का बड़ा हिस्सा अकेले होने के बाद भी खाली न रहा। चन्ना केशव से शिकायत भी क्या करती उसने इसे उनका रचाया खेल स्वीकार कर लिया था। घर और मन भर गया था उसका। न जाने कैसे दो बूँद आँसू सूखी आँखों की कोरों से बह निकले अब फिर सब खाली हो गया। 
बाहर कोई  जोर-जोर से दरवाजा खटखटा रहा था। एक बारगी डर गई वह। कितनी अकेली है पता नहीं कौन है? धीरे-धीरे सहारा लेकर दरवाजे तक आई। डर के कारण शब्द गले में जम गए। दरवाजा अभी भी पीटा जा रहा था। उसने काँपते हाथों से दरवाजा खोल दिया। बाहर खड़े हुए सब आँगन में आ गए। आँगन में खेलती किलकारी वापस आ गई थी। किसी ने उन्हें बता दिया था कि आज ज्ञानम्मा का दरवाजा नहीं खुला वे खासे चिंतित थे। कोई हाल-चाल पूछ रहा था तो कोई फल-फूल काट रहा था कोई नब्ज देख रहा था। यह ज्ञानम्मा के जीवन भर की कमाई दौलत थी वह भावविभोर थी।
कविता वर्मा

सोमवार, 26 सितंबर 2022

दरख्त

 स्टेशन पर बेचैनी से चहल कदमी करते विनय ने 2 मिनट में न जाने कितनी बार घड़ी देख ली। वह बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहा था। इस इंतजार में बेचैनी थी तो एक डर भी था। डर था कि कहीं कोई जान पहचान वाला उसे देख न ले और देखकर घर पर बाबूजी को खबर न कर दे। वैसे तो आधी रात के 2:00 बजे इसकी उम्मीद कम ही थी लेकिन फिर भी डर तो था ही। विनय ने जानबूझकर यह समय और यह ट्रेन चुनी थी। दिन के समय स्टेशन की चहल-पहल में कोई न कोई जानने वाला मिल ही जाता और नहीं तो स्टेशन के स्टाफ में से कोई बाबूजी को खबर कर देता। सिग्नल हरा हो चुका था विनय ने जेब में टिकट चेक किया पर्स मोबाइल देखा और अपनी अटैची और लैपटॉप बैग को एक नजर देखा। ट्रेन का इंजन धड़ धड़ाता उसके सामने से गुजर गया। ट्रेन की स्पीड कम होते होती भी आधी से ज्यादा ट्रेन उसके सामने से गुजर गई। ए.सी कोच पीछे था उसने लगभग दौड़ लगा दी। डिब्बे में चढ़कर व्यवस्थित भी नहीं हो पाया था कि ट्रेन चल दी राहत की सांस ली विनय ने। ऊपर की बर्थ पर बिस्तर लगाकर लेट कर उसने आँखें बंद कर लीं। 

नींद की जगह विनय की पिछली जिंदगी रील की तरह चलने लगी। शहर के सबसे रसूखदार परिवार का छोटा बेटा विनय दादा ठाकुर विश्वेश्वर सिंह और पिता बशेश्वर सिंह का लाडला उनकी आशाओं का केंद्र बिंदु। परदादा बड़े जागीरदार रहे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक, दादा ने अपनी फैक्ट्रियाँ लगाई जिन्हें पिता ने संभाला और अब बड़ा भाई संभाल रहा है। 

बचपन में दोनों भाई बग्घी में बैठकर स्कूल जाते थे। एक सेवादार क्लास से उनका बैग लाकर बग्घी में रखता। विनय का बड़ा मन करता कि वह भी दूसरे बच्चों की तरह बैग झुलाते चीखते चिल्लाते बातें करते खेलते घर जाए लेकिन ठाकुर परिवार के बेटे ऐसा कैसे कर सकते हैं? बड़ा भाई विजय और विनय बड़ी हसरत से बच्चों को बग्घी में बैठे मुड़ मुड़कर देखते और मुँह लटका कर घर लौटते। घर पर नौकरों की जमात जूते मोजे कपड़े उतारने से लेकर मुँह हाथ धुलाने पोंछने को तैयार खड़ी रहती। दोनों भाई स्कूल के बाद कस्बे के एकमात्र क्लब में क्रिकेट सीखने जाते थे जहाँ उनकी ही तरह धनाढ्य परिवार के बच्चे होते थे। 

नीचे की बर्थ पर से कोई उठकर बाथरूम गया विनय ने करवट बदली। बाबूजी की इच्छा थी कि विनय इंजीनियर बने ताकि वह फैक्ट्रियाँ ठीक से संभाल सके। विजय का मन 11 वीं के बाद ही पढ़ाई से उचट गया था। वह तीन बार की कोशिश में भी इंजीनियरिंग में प्रवेश नहीं पा सका था। निराश दादाजी ने स्कूल के हेड मास्टर को घर बुलवाकर आगे की उसकी पढ़ाई की दिशा तय करने बाबत जानकारी ली और विजय को बीकॉम में एडमिशन दिलवाया। आखिर को फैक्ट्री का हिसाब किताब देखने समझने वाला भी तो कोई चाहिए। विजय कसमसा कर रह गया वह कह हीन हीं पाया कि वह पूरी दुनिया घूमना चाहता है पहाड़ों पर चढ़ना चाहता है समुद्र की लहरों पर सवारी करना चाहता है। परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते उस पर उम्मीदों का इतना दबाव था कि वह अपनी इच्छाओं को सम्मान से सिर उठाने देने की हिम्मत ही न कर पाया। 

गाड़ी धीमे होते होते रुक गई शायद कोई बड़ा स्टेशन था। बाहर से चाय कॉफी वालों की आवाजें आ रही थीं। सभी लोग गहरी नींद में थे। कुछ लोगों के खर्राटे डब्बे में गूंज रहे थे। विनय की आँखों में नींद नहीं थी। वह ठीक तो कर रहा है न? उसने खुद से पूछा जवाब सकारात्मक तो न था लेकिन इसके सिवाय चारा ही क्या था? उसने खुद से पूछा। ट्रेन चल दी थी विनय ने बैग से बोतल निकाल कर पानी पिया और लेट गया। 

जब वह दसवीं में था तब उसे शौक लगा था फोटोग्राफी का। बाबूजी शहर से कैमरा लेकर आए थे। सब की नजर बचाकर वह कैमरा ले जाकर जाता और कभी डूबते सूरज की तालाब की लहरों की अकेले उदास खड़े पेड़ की सिर पर लकड़ियाँ लेकर जाती आदिवासी औरतों की फोटो खींचता। दादाजी उससे बहुत प्यार से अपनी इच्छा बताते कि वह चाहते हैं घर में एक इंजीनियर हो और वह सुनकर उदास हो जाता। वह भी दादाजी से कम प्यार नहीं करता था उनके विराट व्यक्तित्व के सामने खुद की लघुता का एहसास होता था उसे। होता भी क्यों नहीं उसने तो बाबूजी को भी उनके सामने बौना ही देखा। सदैव उनकी आज्ञा को सिर माथे रखते। कभी-कभी विनय सोचता क्या कभी बाबूजी की अपनी कोई राय नहीं होती? कभी कभी उसे महसूस होता कि बाबूजी को दादाजी की बात पसंद नहीं आ रही है क्षणांश को उनके चेहरे पर एक हल्की सी लकीर उभरती और गुम हो जाती। कभी उनकी कोई बात नहीं टालते। ज्यों-ज्यों विनय बड़ा हो रहा था सम्मान के इस रवैए पर उसकी असंतुष्टि बढ़ती जाती और दादाजी की उम्र और रुतबे के अनुपात में 'जी दादा जी' कहकर बात समाप्त करने की आदत भी। 

दादाजी की इच्छा थी उसने गणित विषय लिया उनकी इच्छा थी उसने इंजीनियरिंग में दाख़िला लिया। उनको खुशी नहीं होती इसलिए उसने फोटोग्राफी का शौक छोड़ दिया। कॉलेज केंपस इंटरव्यू में उसे दिल्ली में नौकरी मिली थी। उसने खुशख़बरी देने के लिए घर पर फोन किया फोन बाबू जी ने उठाया। खबर सुनकर उनके मुँह से निकली बधाई बीच में ही अटक गई पीछे से दादाजी की भारी आवाज़ सुनाई दी "अब ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता दूसरों की चाकरी करेगा इतने बुरे दिन न आए हैं अभी। सात पुश्तें बैठकर खाएँ इतना जोड़ कर रखा है मैंने। उससे कहो डिग्री होते ही घर चला आए।" 

अपनी काबिलियत पर गर्व करने का मौका ही नहीं मिला उसे। अपनी कमाई से कुछ करने का ख़्वाब देखते ही चकनाचूर हो गया। उसकी आँखों में आँसू आ गए दोस्तों के साथ पार्टी करने को टाल कर वह एक सुनसान सड़क किनारे घंटों बैठा रहा आँसू बहाता रहा। 

घर आकर पहली बार उसने बाबूजी से मन की बात कही। बताया था उन्हें कि अव्वल तो उसे इंजीनियरिंग करना ही नहीं था, कर ली तो अपने दम पर कुछ करना है। जिंदगी भर ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता कहलाने के बजाय अपनी पहचान बनाना है। 

"वह परिवार के वटवृक्ष हैं उनके व्यक्तित्व और स्नेह की छाँव है इसलिए हम इतने सुकून से हैं। कोई चिंता नहीं कोई तकलीफ़ नहीं।" 

"मैं अपनी जिंदगी की तकलीफें खुद उठाना चाहता हूँ। अपनी चिंता खुद करना चाहता हूँ। मैं खुद एक मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ।" 

"तुम्हारे दादा जी की इच्छा का सम्मान करना हमारा फर्ज़ है। "

" और हमारी इच्छा का? उसका सम्मान हम कब करेंगे बाबूजी?" बाबूजी की आँखों में आँखें डाल कर पूछा था उसने और उन्होंने नज़रें झुका ली थीं। 

बरगद के नीचे घास भी नहीं पनपती बाबूजी और मैं तो मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ। उसने मन में सोच लिया था और बिना किसी को बताए बेंगलुरु की एक कंपनी में नौकरी का आवेदन करके वीडियो इंटरव्यू देकर आज वह चुपचाप घर छोड़ आया था। इस संकल्प के साथ कि एक दिन मजबूत दरख़्त बनकर लौटेगा।

कविता वर्मा