नरेश तैयार होकर बाहर कमरे में आया अर्दली उसका बैग उठाकर तैयार खड़ा था। उसने नंदा पर एक नजर डाली उसे बाय कहा नंदा ने भी उदास सी मुस्कान के साथ जवाब दिया तो चिढ़ गया नरेश लेकिन कुछ बोला नहीं । बेटे के कमरे से म्यूजिक की आवाज बाहर आ रही थी लेकिन बेटा कमरे में था। एक हूक सी उठी जब घर में होता है तब तो डैडी को बाय कहने आ सकता है। कई कई दिन हो जाते हैं बेटे का चेहरा देखे। बेटी तो शायद अभी सोकर ही न उठी हो।
कहानी Kahani
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बुधवार, 9 नवंबर 2022
बंद रास्ते
मंगलवार, 1 नवंबर 2022
और बाँध फूट गया
देवेंद्र भाई को हार्ट अटैक आया है यह खबर मोहल्ले में आग की तरह फैल गई। पड़ोस के शर्मा अंकल और सुभाष भाई तुरंत गाड़ी में डालकर हॉस्पिटल ले गए ।कार के पीछे तीन चार और लोग भी हॉस्पिटल पहुँच गए थे। मोहल्ले के लोग झुंड बनाकर देवेंद्र भाई की सज्जनता का गुणगान करने लगे। कुछ लोगों ने हार्टअटैक कोलेस्ट्रॉल बीपी के बारे में अब तक का अर्जित ज्ञान उन्डेल कर अपनी विद्वता दर्शाने के इस मौके को लपक लिया तो कुछ डॉ और हॉस्पिटल के बारे में अपनी जानकारी साझा करने को उतावले थे।
मंगलवार, 18 अक्टूबर 2022
भोलू जी उठा
भोलू मेरा तौलिया कहाँ है? भोलू मेरी बाइक साफ कर दी? भोलू मेरे जूते पालिश कर दे। कॉलोनी के उस घर से रोज सुबह से ऐसी ही आवाजें आतीं जो दोपहर होते तक भोलू छत पर कपड़े सुखा दे भोलू गेहूँ पिसवा ला सब्जी ले आना पिंकी को कोचिंग छोड़ दे पौधों को पानी दे दे कपड़े उठा ला से होती हुई शाम तक भोलू बिस्तर लगा दिए? करता क्या है सारे दिन? बिल्कुल अकल नहीं है इसमें काम के नाम पर जी चुराने लगता है की झिडकियों पर खत्म होतीं। अगली सुबह फिर उन्हीं जुमलों से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होती।
मंगलवार, 11 अक्टूबर 2022
जो तुम न होतीं
अंदेशा तो पहले ही था और आज वह बुरी खबर आ ही गई कुसुम नहीं रही। 15 दिन मौत से जूझने के बाद उसने हार मान ली ।महेश बाबू पत्नी के साथ तुरंत रवाना हो गए। पत्नी बार-बार आँसू पोंछती और वे खामोश हैं मानों मन ही मन सोच रहे थे कि वहाँ जाकर क्या करना है और क्या कहना है या क्या नहीं कहना? या शायद सोच रहे हों कि उनसे कहाँ गलती हुई? वैसे ऐसा सोचेंगे इसकी संभावना कम ही थी फिर भी वह चुप थे गहरे सोच में डूबे हुए।
गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022
मुक्ति
एंबुलेंस रुकते ही कमर में जोर का झटका लगा दर्द की एक तीखी लहर रीढ़ में दौड़ गई जिसे अधबेहोशी में भी रीना ने महसूस किया। दरवाजा खुला रोशनी का एक कतरा मुंदी आँखों पर पड़ा उसने आँखों को हथेली से ढंकने का सोचा लेकिन वह इतनी निढाल इतनी बेदम थी कि हाथ हिला भी नहीं सकी । अपने आसपास हलचल सी महसूस की उसने और अचानक लगा जैसे पृथ्वी डोल रही है। उसका पूरा शरीर ही हिल रहा था इस हिलने डुलने में कुछ चेतना सी आई उसने आँखें खोलने की कोशिश की लेकिन तेज रोशनी ने आँखें खोलने नहीं दीं। आसपास तेज आवाजें आ रही थीं जो शोर बन कानों में समा रही थीं लेकिन किसी स्पष्ट रूप में समझ नहीं आ रही थीं। अचानक वह डोलती धरती किसी सतह पर टिक गई एक झटका सा लगा लेकिन राहत सी महसूस हुई। दर्द अभी चित्कारें मार रहा था। शायद अंदर बहने लगा था वह बहता हुआ महसूस कर रही थी क्या था वह राजीव का प्यार बेटी रूही के लिए ममता या परिवार वालों की आकांक्षा कुछ समझ नहीं आ रहा था।
रविवार, 2 अक्टूबर 2022
सारा जग अपना
सुबह के 8:00 बज रहे थे ज्ञानम्मा अभी तक उठी नहीं थी। नींद तो बरसों के अभ्यास से सुबह 6:00 बजे ही खुल गई थी लेकिन आज शरीर के साथ मन की हिम्मत भी टूट रही थी। एक-दो बार मन ने धिक्कारा भी था लेकिन फिर मन ने ही समझाया था कि किसके लिए उठना है? कौन सा कुनबा जोड़ रखा है तुमने कि सुबह उठकर रोटी पानी साफ सफाई नहीं करोगी तो दुनिया उलट जाएगी ? पड़ी रहो चुपचाप जब हिम्मत हो तब उठना। प्यास से कंठ सूख रहा था बिस्तर मानो काट रहा था मन कचोट रहा था कि इस बुढ़ापे में बरसों के नियम धर्म छूट रहे हैं। आँखें बरसना चाहती थीं लेकिन सूख चुकी थीं। अब तो कभी पिछली जिंदगी देखने की कोशिश करती तो वह भी धुंधला जाती।
सोमवार, 26 सितंबर 2022
दरख्त
स्टेशन पर बेचैनी से चहल कदमी करते विनय ने 2 मिनट में न जाने कितनी बार घड़ी देख ली। वह बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहा था। इस इंतजार में बेचैनी थी तो एक डर भी था। डर था कि कहीं कोई जान पहचान वाला उसे देख न ले और देखकर घर पर बाबूजी को खबर न कर दे। वैसे तो आधी रात के 2:00 बजे इसकी उम्मीद कम ही थी लेकिन फिर भी डर तो था ही। विनय ने जानबूझकर यह समय और यह ट्रेन चुनी थी। दिन के समय स्टेशन की चहल-पहल में कोई न कोई जानने वाला मिल ही जाता और नहीं तो स्टेशन के स्टाफ में से कोई बाबूजी को खबर कर देता। सिग्नल हरा हो चुका था विनय ने जेब में टिकट चेक किया पर्स मोबाइल देखा और अपनी अटैची और लैपटॉप बैग को एक नजर देखा। ट्रेन का इंजन धड़ धड़ाता उसके सामने से गुजर गया। ट्रेन की स्पीड कम होते होती भी आधी से ज्यादा ट्रेन उसके सामने से गुजर गई। ए.सी कोच पीछे था उसने लगभग दौड़ लगा दी। डिब्बे में चढ़कर व्यवस्थित भी नहीं हो पाया था कि ट्रेन चल दी राहत की सांस ली विनय ने। ऊपर की बर्थ पर बिस्तर लगाकर लेट कर उसने आँखें बंद कर लीं।
नींद की जगह विनय की पिछली जिंदगी रील की तरह चलने लगी। शहर के सबसे रसूखदार परिवार का छोटा बेटा विनय दादा ठाकुर विश्वेश्वर सिंह और पिता बशेश्वर सिंह का लाडला उनकी आशाओं का केंद्र बिंदु। परदादा बड़े जागीरदार रहे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक, दादा ने अपनी फैक्ट्रियाँ लगाई जिन्हें पिता ने संभाला और अब बड़ा भाई संभाल रहा है।
बचपन में दोनों भाई बग्घी में बैठकर स्कूल जाते थे। एक सेवादार क्लास से उनका बैग लाकर बग्घी में रखता। विनय का बड़ा मन करता कि वह भी दूसरे बच्चों की तरह बैग झुलाते चीखते चिल्लाते बातें करते खेलते घर जाए लेकिन ठाकुर परिवार के बेटे ऐसा कैसे कर सकते हैं? बड़ा भाई विजय और विनय बड़ी हसरत से बच्चों को बग्घी में बैठे मुड़ मुड़कर देखते और मुँह लटका कर घर लौटते। घर पर नौकरों की जमात जूते मोजे कपड़े उतारने से लेकर मुँह हाथ धुलाने पोंछने को तैयार खड़ी रहती। दोनों भाई स्कूल के बाद कस्बे के एकमात्र क्लब में क्रिकेट सीखने जाते थे जहाँ उनकी ही तरह धनाढ्य परिवार के बच्चे होते थे।
नीचे की बर्थ पर से कोई उठकर बाथरूम गया विनय ने करवट बदली। बाबूजी की इच्छा थी कि विनय इंजीनियर बने ताकि वह फैक्ट्रियाँ ठीक से संभाल सके। विजय का मन 11 वीं के बाद ही पढ़ाई से उचट गया था। वह तीन बार की कोशिश में भी इंजीनियरिंग में प्रवेश नहीं पा सका था। निराश दादाजी ने स्कूल के हेड मास्टर को घर बुलवाकर आगे की उसकी पढ़ाई की दिशा तय करने बाबत जानकारी ली और विजय को बीकॉम में एडमिशन दिलवाया। आखिर को फैक्ट्री का हिसाब किताब देखने समझने वाला भी तो कोई चाहिए। विजय कसमसा कर रह गया वह कह हीन हीं पाया कि वह पूरी दुनिया घूमना चाहता है पहाड़ों पर चढ़ना चाहता है समुद्र की लहरों पर सवारी करना चाहता है। परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते उस पर उम्मीदों का इतना दबाव था कि वह अपनी इच्छाओं को सम्मान से सिर उठाने देने की हिम्मत ही न कर पाया।
गाड़ी धीमे होते होते रुक गई शायद कोई बड़ा स्टेशन था। बाहर से चाय कॉफी वालों की आवाजें आ रही थीं। सभी लोग गहरी नींद में थे। कुछ लोगों के खर्राटे डब्बे में गूंज रहे थे। विनय की आँखों में नींद नहीं थी। वह ठीक तो कर रहा है न? उसने खुद से पूछा जवाब सकारात्मक तो न था लेकिन इसके सिवाय चारा ही क्या था? उसने खुद से पूछा। ट्रेन चल दी थी विनय ने बैग से बोतल निकाल कर पानी पिया और लेट गया।
जब वह दसवीं में था तब उसे शौक लगा था फोटोग्राफी का। बाबूजी शहर से कैमरा लेकर आए थे। सब की नजर बचाकर वह कैमरा ले जाकर जाता और कभी डूबते सूरज की तालाब की लहरों की अकेले उदास खड़े पेड़ की सिर पर लकड़ियाँ लेकर जाती आदिवासी औरतों की फोटो खींचता। दादाजी उससे बहुत प्यार से अपनी इच्छा बताते कि वह चाहते हैं घर में एक इंजीनियर हो और वह सुनकर उदास हो जाता। वह भी दादाजी से कम प्यार नहीं करता था उनके विराट व्यक्तित्व के सामने खुद की लघुता का एहसास होता था उसे। होता भी क्यों नहीं उसने तो बाबूजी को भी उनके सामने बौना ही देखा। सदैव उनकी आज्ञा को सिर माथे रखते। कभी-कभी विनय सोचता क्या कभी बाबूजी की अपनी कोई राय नहीं होती? कभी कभी उसे महसूस होता कि बाबूजी को दादाजी की बात पसंद नहीं आ रही है क्षणांश को उनके चेहरे पर एक हल्की सी लकीर उभरती और गुम हो जाती। कभी उनकी कोई बात नहीं टालते। ज्यों-ज्यों विनय बड़ा हो रहा था सम्मान के इस रवैए पर उसकी असंतुष्टि बढ़ती जाती और दादाजी की उम्र और रुतबे के अनुपात में 'जी दादा जी' कहकर बात समाप्त करने की आदत भी।
दादाजी की इच्छा थी उसने गणित विषय लिया उनकी इच्छा थी उसने इंजीनियरिंग में दाख़िला लिया। उनको खुशी नहीं होती इसलिए उसने फोटोग्राफी का शौक छोड़ दिया। कॉलेज केंपस इंटरव्यू में उसे दिल्ली में नौकरी मिली थी। उसने खुशख़बरी देने के लिए घर पर फोन किया फोन बाबू जी ने उठाया। खबर सुनकर उनके मुँह से निकली बधाई बीच में ही अटक गई पीछे से दादाजी की भारी आवाज़ सुनाई दी "अब ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता दूसरों की चाकरी करेगा इतने बुरे दिन न आए हैं अभी। सात पुश्तें बैठकर खाएँ इतना जोड़ कर रखा है मैंने। उससे कहो डिग्री होते ही घर चला आए।"
अपनी काबिलियत पर गर्व करने का मौका ही नहीं मिला उसे। अपनी कमाई से कुछ करने का ख़्वाब देखते ही चकनाचूर हो गया। उसकी आँखों में आँसू आ गए दोस्तों के साथ पार्टी करने को टाल कर वह एक सुनसान सड़क किनारे घंटों बैठा रहा आँसू बहाता रहा।
घर आकर पहली बार उसने बाबूजी से मन की बात कही। बताया था उन्हें कि अव्वल तो उसे इंजीनियरिंग करना ही नहीं था, कर ली तो अपने दम पर कुछ करना है। जिंदगी भर ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता कहलाने के बजाय अपनी पहचान बनाना है।
"वह परिवार के वटवृक्ष हैं उनके व्यक्तित्व और स्नेह की छाँव है इसलिए हम इतने सुकून से हैं। कोई चिंता नहीं कोई तकलीफ़ नहीं।"
"मैं अपनी जिंदगी की तकलीफें खुद उठाना चाहता हूँ। अपनी चिंता खुद करना चाहता हूँ। मैं खुद एक मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ।"
"तुम्हारे दादा जी की इच्छा का सम्मान करना हमारा फर्ज़ है। "
" और हमारी इच्छा का? उसका सम्मान हम कब करेंगे बाबूजी?" बाबूजी की आँखों में आँखें डाल कर पूछा था उसने और उन्होंने नज़रें झुका ली थीं।
बरगद के नीचे घास भी नहीं पनपती बाबूजी और मैं तो मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ। उसने मन में सोच लिया था और बिना किसी को बताए बेंगलुरु की एक कंपनी में नौकरी का आवेदन करके वीडियो इंटरव्यू देकर आज वह चुपचाप घर छोड़ आया था। इस संकल्प के साथ कि एक दिन मजबूत दरख़्त बनकर लौटेगा।
कविता वर्मा