स्टेशन पर बेचैनी से चहल कदमी करते विनय ने 2 मिनट में न जाने कितनी बार घड़ी देख ली। वह बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहा था। इस इंतजार में बेचैनी थी तो एक डर भी था। डर था कि कहीं कोई जान पहचान वाला उसे देख न ले और देखकर घर पर बाबूजी को खबर न कर दे। वैसे तो आधी रात के 2:00 बजे इसकी उम्मीद कम ही थी लेकिन फिर भी डर तो था ही। विनय ने जानबूझकर यह समय और यह ट्रेन चुनी थी। दिन के समय स्टेशन की चहल-पहल में कोई न कोई जानने वाला मिल ही जाता और नहीं तो स्टेशन के स्टाफ में से कोई बाबूजी को खबर कर देता। सिग्नल हरा हो चुका था विनय ने जेब में टिकट चेक किया पर्स मोबाइल देखा और अपनी अटैची और लैपटॉप बैग को एक नजर देखा। ट्रेन का इंजन धड़ धड़ाता उसके सामने से गुजर गया। ट्रेन की स्पीड कम होते होती भी आधी से ज्यादा ट्रेन उसके सामने से गुजर गई। ए.सी कोच पीछे था उसने लगभग दौड़ लगा दी। डिब्बे में चढ़कर व्यवस्थित भी नहीं हो पाया था कि ट्रेन चल दी राहत की सांस ली विनय ने। ऊपर की बर्थ पर बिस्तर लगाकर लेट कर उसने आँखें बंद कर लीं।
नींद की जगह विनय की पिछली जिंदगी रील की तरह चलने लगी। शहर के सबसे रसूखदार परिवार का छोटा बेटा विनय दादा ठाकुर विश्वेश्वर सिंह और पिता बशेश्वर सिंह का लाडला उनकी आशाओं का केंद्र बिंदु। परदादा बड़े जागीरदार रहे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक, दादा ने अपनी फैक्ट्रियाँ लगाई जिन्हें पिता ने संभाला और अब बड़ा भाई संभाल रहा है।
बचपन में दोनों भाई बग्घी में बैठकर स्कूल जाते थे। एक सेवादार क्लास से उनका बैग लाकर बग्घी में रखता। विनय का बड़ा मन करता कि वह भी दूसरे बच्चों की तरह बैग झुलाते चीखते चिल्लाते बातें करते खेलते घर जाए लेकिन ठाकुर परिवार के बेटे ऐसा कैसे कर सकते हैं? बड़ा भाई विजय और विनय बड़ी हसरत से बच्चों को बग्घी में बैठे मुड़ मुड़कर देखते और मुँह लटका कर घर लौटते। घर पर नौकरों की जमात जूते मोजे कपड़े उतारने से लेकर मुँह हाथ धुलाने पोंछने को तैयार खड़ी रहती। दोनों भाई स्कूल के बाद कस्बे के एकमात्र क्लब में क्रिकेट सीखने जाते थे जहाँ उनकी ही तरह धनाढ्य परिवार के बच्चे होते थे।
नीचे की बर्थ पर से कोई उठकर बाथरूम गया विनय ने करवट बदली। बाबूजी की इच्छा थी कि विनय इंजीनियर बने ताकि वह फैक्ट्रियाँ ठीक से संभाल सके। विजय का मन 11 वीं के बाद ही पढ़ाई से उचट गया था। वह तीन बार की कोशिश में भी इंजीनियरिंग में प्रवेश नहीं पा सका था। निराश दादाजी ने स्कूल के हेड मास्टर को घर बुलवाकर आगे की उसकी पढ़ाई की दिशा तय करने बाबत जानकारी ली और विजय को बीकॉम में एडमिशन दिलवाया। आखिर को फैक्ट्री का हिसाब किताब देखने समझने वाला भी तो कोई चाहिए। विजय कसमसा कर रह गया वह कह हीन हीं पाया कि वह पूरी दुनिया घूमना चाहता है पहाड़ों पर चढ़ना चाहता है समुद्र की लहरों पर सवारी करना चाहता है। परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते उस पर उम्मीदों का इतना दबाव था कि वह अपनी इच्छाओं को सम्मान से सिर उठाने देने की हिम्मत ही न कर पाया।
गाड़ी धीमे होते होते रुक गई शायद कोई बड़ा स्टेशन था। बाहर से चाय कॉफी वालों की आवाजें आ रही थीं। सभी लोग गहरी नींद में थे। कुछ लोगों के खर्राटे डब्बे में गूंज रहे थे। विनय की आँखों में नींद नहीं थी। वह ठीक तो कर रहा है न? उसने खुद से पूछा जवाब सकारात्मक तो न था लेकिन इसके सिवाय चारा ही क्या था? उसने खुद से पूछा। ट्रेन चल दी थी विनय ने बैग से बोतल निकाल कर पानी पिया और लेट गया।
जब वह दसवीं में था तब उसे शौक लगा था फोटोग्राफी का। बाबूजी शहर से कैमरा लेकर आए थे। सब की नजर बचाकर वह कैमरा ले जाकर जाता और कभी डूबते सूरज की तालाब की लहरों की अकेले उदास खड़े पेड़ की सिर पर लकड़ियाँ लेकर जाती आदिवासी औरतों की फोटो खींचता। दादाजी उससे बहुत प्यार से अपनी इच्छा बताते कि वह चाहते हैं घर में एक इंजीनियर हो और वह सुनकर उदास हो जाता। वह भी दादाजी से कम प्यार नहीं करता था उनके विराट व्यक्तित्व के सामने खुद की लघुता का एहसास होता था उसे। होता भी क्यों नहीं उसने तो बाबूजी को भी उनके सामने बौना ही देखा। सदैव उनकी आज्ञा को सिर माथे रखते। कभी-कभी विनय सोचता क्या कभी बाबूजी की अपनी कोई राय नहीं होती? कभी कभी उसे महसूस होता कि बाबूजी को दादाजी की बात पसंद नहीं आ रही है क्षणांश को उनके चेहरे पर एक हल्की सी लकीर उभरती और गुम हो जाती। कभी उनकी कोई बात नहीं टालते। ज्यों-ज्यों विनय बड़ा हो रहा था सम्मान के इस रवैए पर उसकी असंतुष्टि बढ़ती जाती और दादाजी की उम्र और रुतबे के अनुपात में 'जी दादा जी' कहकर बात समाप्त करने की आदत भी।
दादाजी की इच्छा थी उसने गणित विषय लिया उनकी इच्छा थी उसने इंजीनियरिंग में दाख़िला लिया। उनको खुशी नहीं होती इसलिए उसने फोटोग्राफी का शौक छोड़ दिया। कॉलेज केंपस इंटरव्यू में उसे दिल्ली में नौकरी मिली थी। उसने खुशख़बरी देने के लिए घर पर फोन किया फोन बाबू जी ने उठाया। खबर सुनकर उनके मुँह से निकली बधाई बीच में ही अटक गई पीछे से दादाजी की भारी आवाज़ सुनाई दी "अब ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता दूसरों की चाकरी करेगा इतने बुरे दिन न आए हैं अभी। सात पुश्तें बैठकर खाएँ इतना जोड़ कर रखा है मैंने। उससे कहो डिग्री होते ही घर चला आए।"
अपनी काबिलियत पर गर्व करने का मौका ही नहीं मिला उसे। अपनी कमाई से कुछ करने का ख़्वाब देखते ही चकनाचूर हो गया। उसकी आँखों में आँसू आ गए दोस्तों के साथ पार्टी करने को टाल कर वह एक सुनसान सड़क किनारे घंटों बैठा रहा आँसू बहाता रहा।
घर आकर पहली बार उसने बाबूजी से मन की बात कही। बताया था उन्हें कि अव्वल तो उसे इंजीनियरिंग करना ही नहीं था, कर ली तो अपने दम पर कुछ करना है। जिंदगी भर ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता कहलाने के बजाय अपनी पहचान बनाना है।
"वह परिवार के वटवृक्ष हैं उनके व्यक्तित्व और स्नेह की छाँव है इसलिए हम इतने सुकून से हैं। कोई चिंता नहीं कोई तकलीफ़ नहीं।"
"मैं अपनी जिंदगी की तकलीफें खुद उठाना चाहता हूँ। अपनी चिंता खुद करना चाहता हूँ। मैं खुद एक मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ।"
"तुम्हारे दादा जी की इच्छा का सम्मान करना हमारा फर्ज़ है। "
" और हमारी इच्छा का? उसका सम्मान हम कब करेंगे बाबूजी?" बाबूजी की आँखों में आँखें डाल कर पूछा था उसने और उन्होंने नज़रें झुका ली थीं।
बरगद के नीचे घास भी नहीं पनपती बाबूजी और मैं तो मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ। उसने मन में सोच लिया था और बिना किसी को बताए बेंगलुरु की एक कंपनी में नौकरी का आवेदन करके वीडियो इंटरव्यू देकर आज वह चुपचाप घर छोड़ आया था। इस संकल्प के साथ कि एक दिन मजबूत दरख़्त बनकर लौटेगा।
कविता वर्मा