दीपावली की सफाई करते हुए मीता के हाथ में अलमारी के ऊपर वाले खाने में रखा वह बक्सा आ गया। गहरे नीले रंग के उस छोटे से बक्से पर बने सुनहरी बूटे उसमें लगा छोटा सा कुंदा और उसमें लटकता पीतल का छोटा सा ताला मानो उसे मुंह चढ़ा रहे थे। पंद्रह साल हो गए हैं उसकी शादी को पंद्रह दीपावली गुजर गई हर साल वह बक्सा उसके हाथ आता है और हर बार वह उस पर हाथ फिरा कर उसके ताले को एक दो बार खींचकर कपड़े से उसकी धूल झाड़ पोंछकर वापस रख देती है। शादी के शुरुआती सालों में उस बक्से के प्रति उसकी उत्सुकता चरम पर रहती थी। वह प्रदीप से पूछती थी जिद भी करती थी कि एक बार वह बक्सा खोल कर बताएं उसमें क्या है ? प्रदीप हमेशा बात को टाल देता तुम्हारे काम की कोई चीज नहीं है बस ऐसे ही है उस पर ध्यान मत दो उसके ऊपर कपड़े रख दो फिर वह तुम्हें दिखेगा ही नहीं जैसी बातें हमेशा सुनती और उसके दिल में एक संशय भर आता। वह सोचती ऐसा क्या है प्रदीप के जीवन में जो वह उससे छुपा रहा है ? शादी के बाद प्रदीप ने उसे अपने जीवन से जुड़ी हर घटना बताई थी। उसकी जिंदगी में आए हर व्यक्ति घटना बदलाव के बारे में जानती थी। नहीं जानती थी तो बस उस नीले बक्से का राज जिस पर पंद्रह सालों से ताला लगा था।
शादी के आठ साल बाद जब वह दो प्यारे बच्चों की मां बन चुकी थी उसने एक बार बड़े ठुनकते हुए प्रदीप से पूछा था कि आखिर उसमें ऐसा क्या है ? और प्रदीप ने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में भरते हुए उसकी आंखों में झांकते हुए बड़े प्यार से कहा था मीता मेरा विश्वास करो उसमें ऐसा कुछ नहीं है जो मेरी जिंदगी में तुम्हारे स्थान को रत्ती भर भी कम करता हो। लेकिन वह जो भी है उसे मैं खुद से अलग नहीं करना चाहता इसलिए उसे अलमारी के एक कोने में जगह दे दो प्लीज। अगर तुम्हें मेरे प्यार पर मुझ पर भरोसा है तो बार-बार इस बक्से को लेकर कोई संशय अपने दिल में मत लाओ बस उसे ऐसे ही रखा रहने दो। प्रदीप के स्वर की संजीदगी और आंखों की तरलता ने उसे द्रवित कर दिया उसके बाद उसने कभी नहीं पूछा कि उस बक्से में क्या है ? इतनी प्यारी गृहस्थी है उसकी टूट कर प्यार करने वाला पति दो प्यारे बच्चे प्रदीप की अच्छी नौकरी किसी चीज की कोई कमी नहीं है। जीवन से मिली संतुष्टि उसके और प्रदीप दोनों की आंखों में दमकती है फिर एक छोटे से बक्से में दफन अतीत के किसी टुकड़े के लिए अपना सुख चैन खोना कोई समझदारी नहीं है। वह बक्से को झाड़ पोंछकर वापस रख देती फिर भी एक बार उसका हाथ उस पर अटकता जरूर।
खुशियों के दिन पंख लगाकर उड़ते हैं उसके दिन भी कब कैसे गुजरते गए पता ना चला। बच्चों की शादी हो गई वे अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए। प्रदीप और मीता जीवन संध्या में एक दूसरे का हाथ कसकर थामें धीमे-धीमे आगे बढ़ रहे थे। वह दीपावली कुछ उदासी थी बेटी ससुराल में और बेटा सात समंदर पार था। मीता थोड़ा थोड़ा सफाई का काम निपटाती प्रदीप उसकी मदद करता। अलमारी के ऊपरी खाने से वह बक्सा आज प्रदीप ने निकाला। बक्सा हाथ में लेकर वह थम सा गया उसने हौले से उसे सहलाया। उसकी आंखें सजल हो गईं। पास खड़ी मीता उसे अपलक देख रही थी। इतने सालों में बक्से के प्रति उसकी उत्सुकता पूरी तरह बुझ चुकी थी। प्रदीप ने उसकी तरफ देखा और मुस्कुरा दिया। मीता का हाथ पकड़कर उसने उसे तकिए का सहारा देकर बैठा दिया और खुद उसके सामने बैठ गया। वह सुनहरे बेल बूटे वाला गहरा नीला बक्सा उन दोनों के बीच रखा था। मीता का हाथ अपने हाथ में लेकर प्रदीप ने उससे पूछा सच-सच बताना मीता मुझसे शादी करके तुम्हें जीवन में कभी कोई पछतावा तो नहीं हुआ तुम खुश तो हो न ? तुमने जीवन में जो चाहा था वह सब मैं तुम्हें दे पाया न ? मीता हतप्रभ रह गई आज आपको क्या हो गया है ? इतने सालों में उसने कभी कोई शिकायत नहीं की। कभी अवसर आया तो तारीफ ही की थी। फिर प्रदीप यह सब क्यों पूछ रहे हैं ? वह आज इस बक्से को देखकर प्रदीप के यूँ भावुक होने की वजह नहीं समझ पाई।
तुम हमेशा जानना चाहती थी न कि इस बक्से में क्या है ? आज मैं भी जानना चाहता हूँ कि तुमने कभी कोई शिकायत नहीं की लेकिन तुम खुश तो हो न ?
क्या है इसमें मीता ने कांपते स्वर में पूछा।
प्रदीप उठकर कमरे से बाहर गए लौटे तो उनके हाथ में एक प्लायर था। उन्होंने झटका देकर ताला तोड़ा और धीरे से बक्सा खोल दिया। बक्सा खुलते ही उसमें कैद गुलाब की खुशबू कमरे में फैल गई और उसमें रखे कुछ खत फड़फड़ा उठे। मीता का दिल धक से हो गया उम्र के इस पड़ाव पर भी वह प्रदीप के जीवन में किसी और के होने के विचार से ही कांप गई।
जानती हो मीता यह सारे खत मैंने तुम्हें लिखे थे।
मुझे बुरी तरह चौंक गई वह कब क्यों फिर आपने मुझे भेजें क्यों नहीं ?
भेजने का मौका ही नहीं मिला। जानती हो जब भी मैं मामा के यहां आता था और तुम्हारी सौतेली माँ को तुम पर अत्याचार करते देखता था तो मुझे बहुत गुस्सा आता था।
अपने जीवन के उन दुख मय दिनों को याद कर नीता की आंखें भर आई। सोलह बरस की थी वह जब उसके जीवन में सौतेली मां रूपी अभिशाप आया था। घर के सभी काम करना आधे पेट खाना फटे पुराने कपड़े पहनना और दिनभर जली कटी सुनना। उन्हीं दिनों प्रदीप को कई बार अपने को देखता पाया था लेकिन सौतेली माँ का खौफ इस कदर हावी रहता था कि कभी कोई और विचार दिल में आता ही नहीं था। लेकिन प्रदीप ने खत क्यों लिखें ?
जानती हो तभी मेरा मन होता था कि तुम्हें वहाँ से भगा ले जाऊं। तुम्हारी सौतेली माँ और सभी दुखों से दूर। मामा के यहाँ रहते तुम से बात करने की बड़ी इच्छा रहती लेकिन कभी हिम्मत ही नहीं हुई। वहाँ से लौटकर तुम्हें खत लिखता था तुम्हें हिम्मत दिलाते तुम्हें अच्छे भविष्य के सपने दिखाते खत। ऐसी दुनिया में ले जाने की आशा जगाना चाहता था जहाँ कोई दुख ना हो। लेकिन डरता था कहीं यह खत किसी के हाथ पड़ गए तो मेरा तो कुछ नहीं होगा लेकिन तुम्हारी नर्क सी जिंदगी में और जहर घुल जाएगा। मीता डबडबाई आंखों से प्रदीप को देखती रही शब्द उसके आंसुओं में घुल गए थे। होंठ कंपकंपा कर रह गए। उसे याद आया जिस दिन प्रदीप का रिश्ता आया था सौतेली माँ ने कितना हंगामा मचाया था। उसके चरित्र को लेकर कितना कीचड़ उछाला था। पाँच साल से सौतेली मां के हर अत्याचार को चुपचाप सहने वाली मीता उस दिन फूट फूट कर रोई थी। उसे समझ ही नहीं आया था कि साधारण परिस्थिति की बिना माँ की बेटी के लिए प्रदीप जैसे संपन्न सुदर्शन युवक का रिश्ता कैसे आ सकता है ?
तो आपने मुझ पर तरस खाकर यह रिश्ता किया था ? डबडबाई आंखों में संशय उभर आया।
प्रदीप ने एक बार उन में डूब कर देखा और उन खतों में से ढूंढ कर एक खत उसकी तरफ बढ़ा दिया। मीता ने कांपते हाथों से उसे थाम कर पढ़ना शुरू किया।
प्रिय मीता
हैप्पी बर्थडे। कितना अच्छा इत्तेफाक है ना कि आज तुम्हारे जन्मदिन के दिन मेरा गांव आना हुआ। आज सुबह जब तुम मौसी के साथ मंदिर से लौट रही थी तुमने सफेद चूड़ीदार कुर्ते पर सतरंगी लहरिया चुन्नी पहनी थी जो हवा में लहराते तुम्हारे बालों के साथ उड़ रही थी तभी तुमने मेरे दिल में घर बना लिया था। मौसी के साथ हंसती खिलखिलाती कानों में झुमके और हाथों में चूड़ियां खनकाती तुम मेरी नजरों में बस गई हो। मीता मेरा वादा है तुमसे एक दिन खुद को इस लायक बनाऊंगा कि तुम्हें मेरी जिंदगी में शामिल करने के लिए मौसी से तुम्हें मांग सकूँ। तुम यूँ ही खिलखिलाते रहो।
तुम्हारा प्रदीप
पहली बार तुम्हें खत लिखा था और आखरी बार था जब मैंने तुम्हें हंसते हुए देखा था। इन खतों में वे सभी वादे हैं जो मैंने खुद से किए थे तुम्हें खुश रखने के लिए। लेकिन इन्हें बक्से में इसलिए बंद कर दिया था ताकि तुम उन दुखी दिनों को कभी याद न करो। इन खतों के बहाने भी नहीं।
मीता की आंखों से प्रेम छलक आया। उसने उन खतों को ठीक से जमा कर बक्से को बंद कर दिया। मैं तुम्हारा साथ पाकर उन दिनों को कब से भूल चुकी हूँ। अब इन्हें कभी बाहर मत निकालना लेकिन यह पहला खत तुम्हारे प्रेम की पहली निशानी मेरी मां की आखिरी याद मैं अपने पास रखना चाहती हूं अगर तुम्हें एतराज ना हो तो।
खत तो तुम्हारा ही है मेरी इजाजत की क्या जरूरत कहते हुए प्रदीप ने बक्सा बंद कर वापस अलमारी के ऊपर के खाने में रख दिया।