सोमवार, 27 जून 2022

सुनहरे बूटों वाला नीला बक्सा

 दीपावली की सफाई करते हुए मीता के हाथ में अलमारी के ऊपर वाले खाने में रखा वह बक्सा आ गया। गहरे नीले रंग के उस छोटे से बक्से पर बने सुनहरी बूटे उसमें लगा छोटा सा कुंदा और उसमें लटकता पीतल का छोटा सा ताला मानो उसे मुंह चढ़ा रहे थे। पंद्रह साल हो गए हैं उसकी शादी को पंद्रह दीपावली गुजर गई हर साल वह बक्सा उसके हाथ आता है और हर बार वह उस पर हाथ फिरा कर उसके ताले को एक दो बार खींचकर कपड़े से उसकी धूल झाड़ पोंछकर वापस रख देती है। शादी के शुरुआती सालों में उस बक्से के प्रति उसकी उत्सुकता चरम पर रहती थी। वह प्रदीप से पूछती थी जिद भी करती थी कि एक बार वह बक्सा खोल कर बताएं उसमें क्या है ? प्रदीप हमेशा बात को टाल देता तुम्हारे काम की कोई चीज नहीं है बस ऐसे ही है उस पर ध्यान मत दो उसके ऊपर कपड़े रख दो फिर वह तुम्हें दिखेगा ही नहीं जैसी बातें हमेशा सुनती और उसके दिल में एक संशय भर आता। वह सोचती ऐसा क्या है प्रदीप के जीवन में जो वह उससे छुपा रहा है ? शादी के बाद प्रदीप ने उसे अपने जीवन से जुड़ी हर घटना बताई थी। उसकी जिंदगी में आए हर व्यक्ति घटना बदलाव के बारे में जानती थी। नहीं जानती थी तो बस उस नीले बक्से का राज जिस पर पंद्रह सालों से ताला लगा था। 

शादी के आठ साल बाद जब वह दो प्यारे बच्चों की मां बन चुकी थी उसने एक बार बड़े ठुनकते हुए प्रदीप से पूछा था  कि आखिर उसमें ऐसा क्या है ? और प्रदीप ने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में भरते हुए उसकी आंखों में झांकते हुए बड़े प्यार से कहा था मीता मेरा विश्वास करो उसमें ऐसा कुछ नहीं है जो मेरी जिंदगी में तुम्हारे स्थान को रत्ती भर भी कम करता हो। लेकिन वह जो भी है उसे मैं खुद से अलग नहीं करना चाहता इसलिए उसे अलमारी के एक कोने में जगह दे दो प्लीज। अगर तुम्हें मेरे प्यार पर मुझ पर भरोसा है तो बार-बार इस बक्से को लेकर कोई संशय अपने दिल में मत लाओ बस उसे ऐसे ही रखा रहने दो। प्रदीप के स्वर की संजीदगी और आंखों की तरलता ने उसे द्रवित कर दिया उसके बाद उसने कभी नहीं पूछा कि उस बक्से में क्या है ? इतनी प्यारी गृहस्थी है उसकी टूट कर प्यार करने वाला पति दो प्यारे बच्चे प्रदीप की अच्छी नौकरी किसी चीज की कोई कमी नहीं है। जीवन से मिली संतुष्टि उसके और प्रदीप दोनों की आंखों में दमकती है फिर एक छोटे से बक्से में दफन अतीत के किसी टुकड़े के लिए अपना सुख चैन खोना कोई समझदारी नहीं है। वह बक्से को झाड़ पोंछकर वापस रख देती फिर भी एक बार उसका हाथ उस पर अटकता जरूर। 

खुशियों के दिन पंख लगाकर उड़ते हैं उसके दिन भी कब कैसे गुजरते गए पता ना चला। बच्चों की शादी हो गई वे अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए। प्रदीप और मीता जीवन संध्या में एक दूसरे का हाथ कसकर थामें धीमे-धीमे आगे बढ़ रहे थे। वह दीपावली कुछ उदासी थी बेटी ससुराल में और बेटा सात समंदर पार था। मीता थोड़ा थोड़ा सफाई का काम निपटाती प्रदीप उसकी मदद करता। अलमारी के ऊपरी खाने से वह बक्सा आज प्रदीप ने निकाला। बक्सा हाथ में लेकर वह थम सा गया उसने हौले से उसे सहलाया। उसकी आंखें सजल हो गईं। पास खड़ी मीता उसे अपलक देख रही थी। इतने सालों में बक्से के प्रति उसकी उत्सुकता पूरी तरह बुझ चुकी थी। प्रदीप ने उसकी तरफ देखा और मुस्कुरा दिया। मीता का हाथ पकड़कर उसने उसे तकिए का सहारा देकर बैठा दिया और खुद उसके सामने बैठ गया। वह सुनहरे बेल बूटे वाला गहरा नीला बक्सा उन दोनों के बीच रखा था। मीता का हाथ अपने हाथ में लेकर प्रदीप ने उससे पूछा सच-सच बताना मीता मुझसे शादी करके तुम्हें जीवन में कभी कोई पछतावा तो नहीं हुआ तुम खुश तो हो न ? तुमने जीवन में जो चाहा था वह सब मैं तुम्हें दे पाया न ? मीता हतप्रभ रह गई आज आपको क्या हो गया है ? इतने सालों में उसने कभी कोई शिकायत नहीं की। कभी अवसर आया तो तारीफ ही की थी। फिर प्रदीप यह सब क्यों पूछ रहे हैं ? वह आज इस बक्से को देखकर प्रदीप के यूँ भावुक होने की वजह नहीं समझ पाई। 

तुम हमेशा जानना चाहती थी न कि इस बक्से में क्या है ? आज मैं भी जानना चाहता हूँ कि तुमने कभी कोई शिकायत नहीं की लेकिन तुम खुश तो हो न ? 

क्या है इसमें मीता ने कांपते स्वर में पूछा। 

प्रदीप उठकर कमरे से बाहर गए लौटे तो उनके हाथ में एक प्लायर था। उन्होंने झटका देकर ताला तोड़ा और धीरे से बक्सा खोल दिया। बक्सा खुलते ही उसमें कैद गुलाब की खुशबू कमरे में फैल गई और उसमें रखे कुछ खत फड़फड़ा उठे। मीता का दिल धक से हो गया उम्र के इस पड़ाव पर भी वह प्रदीप के जीवन में किसी और के होने के विचार से ही कांप गई। 

जानती हो मीता यह सारे खत मैंने तुम्हें लिखे थे। 

मुझे बुरी तरह चौंक गई वह कब क्यों फिर आपने मुझे भेजें क्यों नहीं ? 

भेजने का मौका ही नहीं मिला। जानती हो जब भी मैं मामा के यहां आता था और तुम्हारी सौतेली माँ को तुम पर अत्याचार करते देखता था तो मुझे बहुत गुस्सा आता था।

 अपने जीवन के उन दुख मय दिनों को याद कर नीता की आंखें भर आई। सोलह बरस की थी वह जब उसके जीवन में सौतेली मां रूपी अभिशाप आया था। घर के सभी काम करना आधे पेट खाना फटे पुराने कपड़े पहनना और दिनभर जली कटी सुनना। उन्हीं दिनों प्रदीप को कई बार अपने को देखता पाया था लेकिन सौतेली माँ का खौफ इस कदर हावी रहता था कि कभी कोई और विचार दिल में आता ही नहीं था। लेकिन प्रदीप ने खत क्यों लिखें ? 

जानती हो तभी मेरा मन होता था कि तुम्हें वहाँ से भगा ले जाऊं। तुम्हारी सौतेली माँ और सभी दुखों से दूर। मामा के यहाँ रहते तुम से बात करने की बड़ी इच्छा रहती लेकिन कभी हिम्मत ही नहीं हुई। वहाँ से लौटकर तुम्हें खत लिखता था तुम्हें हिम्मत दिलाते तुम्हें अच्छे भविष्य के सपने दिखाते खत। ऐसी दुनिया में ले जाने की आशा जगाना चाहता था जहाँ कोई दुख ना हो। लेकिन डरता था कहीं यह खत किसी के हाथ पड़ गए तो मेरा तो कुछ नहीं होगा लेकिन तुम्हारी नर्क सी जिंदगी में और जहर घुल जाएगा। मीता डबडबाई आंखों से प्रदीप को देखती रही शब्द उसके आंसुओं में घुल गए थे। होंठ कंपकंपा कर रह गए। उसे याद आया जिस दिन प्रदीप का रिश्ता आया था सौतेली माँ ने कितना हंगामा मचाया था। उसके चरित्र को लेकर कितना कीचड़ उछाला था। पाँच साल से सौतेली मां के हर अत्याचार को चुपचाप सहने वाली मीता उस दिन फूट फूट कर रोई थी। उसे समझ ही नहीं आया था कि साधारण परिस्थिति की बिना माँ की बेटी के लिए प्रदीप जैसे संपन्न सुदर्शन युवक का रिश्ता कैसे आ सकता है ? 

तो आपने मुझ पर तरस खाकर यह रिश्ता किया था ? डबडबाई आंखों में संशय उभर आया। 

प्रदीप ने एक बार उन में डूब कर देखा और उन खतों में से ढूंढ कर एक खत उसकी तरफ बढ़ा दिया। मीता ने कांपते हाथों से उसे थाम कर पढ़ना शुरू किया। 

प्रिय मीता 

हैप्पी बर्थडे। कितना अच्छा इत्तेफाक है ना कि आज तुम्हारे जन्मदिन के दिन मेरा गांव आना हुआ। आज सुबह जब तुम मौसी के साथ मंदिर से लौट रही थी तुमने सफेद चूड़ीदार कुर्ते पर सतरंगी लहरिया चुन्नी पहनी थी जो हवा में लहराते तुम्हारे बालों के साथ उड़ रही थी तभी तुमने मेरे दिल में घर बना लिया था। मौसी के साथ हंसती खिलखिलाती कानों में झुमके और हाथों में चूड़ियां खनकाती तुम मेरी नजरों में बस गई हो। मीता मेरा वादा है तुमसे एक दिन खुद को इस लायक बनाऊंगा कि तुम्हें मेरी जिंदगी में शामिल करने के लिए मौसी से तुम्हें मांग सकूँ। तुम यूँ ही खिलखिलाते रहो। 

तुम्हारा प्रदीप

पहली बार तुम्हें खत लिखा था और आखरी बार था जब मैंने तुम्हें हंसते हुए देखा था। इन खतों में वे सभी वादे हैं जो मैंने खुद से किए थे तुम्हें खुश रखने के लिए। लेकिन इन्हें बक्से में इसलिए बंद कर दिया था ताकि तुम उन दुखी दिनों को कभी याद न करो। इन खतों के बहाने भी नहीं। 

मीता की आंखों से प्रेम छलक आया। उसने उन खतों को ठीक से जमा कर बक्से को बंद कर दिया। मैं तुम्हारा साथ पाकर उन दिनों को कब से भूल चुकी हूँ। अब इन्हें कभी बाहर मत निकालना लेकिन यह पहला खत तुम्हारे प्रेम की पहली निशानी मेरी मां की आखिरी याद मैं अपने पास रखना चाहती हूं अगर तुम्हें एतराज ना हो तो। 

खत तो तुम्हारा ही है मेरी इजाजत की क्या जरूरत कहते हुए प्रदीप ने बक्सा बंद कर वापस अलमारी के ऊपर के खाने में रख दिया।

बुधवार, 22 जून 2022

आवाज

 

आवाज 
कॉलोनी के अभिजात्य सन्नाटे को चीरती वह आवाज सूनी सड़कों पर दौड़ रही थी। सभी  घरों के दरवाजे खिड़की किसी आवारा हवा धूल इंसान और आवाज को घर में घुसने से रोकने के लिए कसकर बंद थे। न जाने क्यों और कैसे उस घर के ऊपरी कमरे की एक खिड़की खुली थी और वह आवाज उसमें बेधड़क घुस गई। जिसे सुनते ही वह किताब छोड़कर खिड़की पर आ गई ताकि बिना किसी टूट-फूट के उस आवाज को पकड़ सके। सबसे पहले उसने आवाज पहचानने की कोशिश की यह वही आवाज है इसका यकीन होते ही उसमें से शब्दों को चुनने लगी। शब्द भी लगभग जाने पहचाने थे नालायक, मक्कार, आलसी, कोशिश, कमी, जमाना, उसने गहरी सांस ली। हर बार वही शब्द वही बातें। वह खिड़की से हटकर कमरे में चहलकदमी करने लगी। पढ़ने से मन हट गया बीच-बीच में वह खिड़की से झांक लेती। उसकी नजर सामने के मकान की छत पर जाकर अटक जाती वहाँ कोई नहीं था। उसने एक बार झांक कर नीचे सड़क पर देखा वह भी सुनसान पड़ी थी। वह हाथ में पकड़ी पेंसिल को उंगलियों के बीच घुमाने लगी। खिड़की से बाहर झांकना जारी था तभी सामने छत पर एक परछाई सी दिखी। वह पेंसिल बिस्तर पर फेंक तेजी से छत की ओर भागी। परछत्ती का दरवाजा खोल उसने देखा वह अपनी छत पर परछत्ती की दीवार से टिका उदास खड़ा था। न जाने उसने आहट सुनी या उसे आभास हुआ उसने मुड़कर डबडबाई आंखों से उसकी तरफ देखा वह करुणा से भर उठी। उसी क्षण उसे उस आवाज़ के मालिक पर बेहतर  क्रोध भी आया। उन डबडबाई आंखों के आंसू पोंछने को वह तत्पर हो उठी लेकिन लोक लिहाज ने उसकी आवाज को रोक लिया। उसने हाथ के इशारे से पूछा क्या हुआ? सामने से एक इशारा प्रत्युत्तर में आया जो अस्पष्ट था लेकिन वह समझ गई थी। उसके चेहरे पर करुणा के भाव सघन हो गए जिसने डबडबाई आंखों के आंसुओं को जज्ब कर लिया। 
दोनों करीब पंद्रह मिनट तक छत पर खड़े एक दूसरे को देखते रहे। शब्द इस छत से उस छत पर नहीं जा सकते थे। उनके बीच में सड़क पर गिर जाने या किसी और से टकरा जाने का डर था लेकिन संवेदना बिना किसी डर के वहाँ पहुंच रही थी और उसके चेहरे से दुख अपमान उपेक्षा को पोंछकर उसे सामान्य कर रही थीं। तभी इस या उस घर से एक आवाज आई और एक दूसरे को हाथ हिलाकर होठों में बाय कहते दोनों नीचे उतर गए। 
पिछले डेढ़ महीने से जब से तनु हॉस्टल से अपने घर आई है यह सिलसिला यूं ही चल रहा है। वह एम ए का इम्तिहान दे चुकी है। अधिकतर हॉस्टल में रहते वह अड़ोस पड़ोस की ज्यादा जानकारी नहीं रखती लेकिन इतना जान गई है कि सामने वाले घर में रहने वाला अंकुर बी काॅम करने के बाद बेरोजगार है और उसके पापा का उसे आईएएस फिर सीए बनाने का सपना पूरा नहीं कर सकता क्योंकि उसे वह नहीं करना और इसलिए उनकी हताशा यूँ शब्द रूप में सारे बंध तोड़ निकल जाती है। उन्हें अंकुर का किसी से मेलजोल भी पसंद नहीं है इसलिए कोई चाह कर भी उनकी मदद नहीं कर सकता या शायद किसी को पता ही नहीं है कि उन्हें किसी मदद की जरूरत है। 
उस दिन असंयमित शब्दों ने सारी सीमा लांघ दी। तनु छत पर आई उसने इशारा किया और गाड़ी निकालकर गेट के बाहर निकल गई। न जाने कैसा विश्वास कायम हो गया था दोनों के बीच कि पीछे से आती आवाजों को अनसुना कर अंकुर भी उस दिन घर से निकल गया। सड़क के मोड़ पर खड़ी तनु ने साइड मिरर में उसे आते देख गाड़ी बढ़ा दी और उसका पीछा करते-करते वह उस कॉफी हाउस के सामने पहुंच गया। टेबल पर बैठते ही तनु ने पूछा क्या खाओगे? 
कुछ नहीं उसने झिझकते हुए जवाब दिया। दो कॉफी ऑर्डर करके तनु ने पूछा तुम क्या करना चाहते हो? 
बेहद अप्रत्याशित प्रश्न था यह। अभी तक कभी किसी ने उससे कभी नहीं पूछा था कि वह क्या करना चाहता है? उसे तो हमेशा यह बताया गया कि उसे क्या करना है, उससे क्या अपेक्षाएं हैं, क्या आशाएं हैं? वह आंसुओं में डूबता उसके पहले ही काफी की तेज मीठी महकती भाप ने उसे रोक लिया। एक बड़े अधिकारी का सामान्य बेटा जो कभी एवरेज नंबर से ऊपर नहीं उठ सका घरवालों के विरोध के बावजूद कॉमर्स ले बैठा और पहले उनके आईएएस बनने के सपने को तोड़ा फिर सीए बनने की आशा पर तुषारा पात किया। एक साधारण नौकरी मखमल से उनके स्टेटस पर टाट के पैबंद सी होगी इसलिए रोज शब्दों के गंगाजल से उस पैबंद को धोकर मखमल में बदलने की कोशिश की जाती है।
तनु ने अपनी स्नेह और सांत्वना भरी हथेली उसके ठंडे निराश हाथ पर रख दी। अंकुर को ऐसा लगा मानो डूबते हुए किसी मजबूत हाथ ने उसे थाम लिया। ढेर सारी बातें हुई वह क्या कर सकता है कैसे करना है कैसे सामना करेगा वगैरा-वगैरा? कॉफी खत्म होने के बाद डोसा, कोल्ड ड्रिंक, और फिर कॉफी ऑर्डर हो गई और अंकुर में नए आत्मविश्वास का संचार होता गया। उसकी आंखों में चमक आ गई, चेहरे पर खुशी छा गई, दिल में हौसला बढ़ता गया। आपने मेरे लिए... शब्द बीच में ही रुक गए तनु का हाथ रुकने का इशारा करता खड़ा था वह धीरे से मुस्कुरा दिया। 

अगले दस दिन रोज वही आवाज आवारा सड़कों पर घूमती ऊपरी कमरे की खुली खिड़की से अंदर जाती लेकिन अब तनु किताब पढ़ते हुए बस मुस्कुरा देती। अब वह परछत्ती के उस कमरे की तरफ न दौड़ती न ही बेचैनी से खिड़की पर खड़ी होकर किसी परछाई का इंतजार करती। सामने वाले घर की छत का दरवाजा भी अब बंद ही रहता। परछत्ती की दीवार के सहारे की अब किसी को जरूरत न रही। आवारा आवाज गलियों में भटकती गुम हो जाती। उस दिन अलसुबह वह आवाज अपनी ताकत भर चीखी। आज वह हर घर में दाखिल हो सबको बाहर बुला लाई। अंकुर घर छोड़कर चला गया यह खबर फुसफुसाहटों में गलियों में दौड़ी। सब कयास लगाने लगे चर्चा सांत्वना जोर पकड़ने लगी। तनु इत्मीनान से कमरे में किताब लेकर बैठी थी वह जानती थी अंकुर अपने आत्मविश्वास के साथ सुरक्षित है। और रोज गलियों में भटकती वह आवाज अब दम तोड़ चुकी है।
कविता वर्मा