तीखी धूप की तपिश ने तन मन झुलसा दिया। कहीं एक पेड़ की छाँव भी नहीं कैसी दशा हो गई है मेरी ? क्या करूँ सिसक पड़ी थी मैं यह सोचकर। मैं कान्ह नदी मेरे विशाल विस्तार पर कचरे मल मूत्र के ढेर इतनी गंदगी कैसे छोड़ सकता है कोई किसी के दामन पर ? कैसे अपनी गंदगी दूसरों के घर आंगन में बहा सकता है इंसान ? इतनी बदबू कि सांस लेना मुश्किल। क्या करूँ कैसे समझाऊं इस मनुष्य को ?
किस तरह इठलाती थी खिलखिलाती थी मैं अपने बचपन में। ऊंचे नीचे रास्ते पत्थरों पर उछलती थिरकती मैं अपने आसपास लगे पेड़ों की झुकी हुई डालियों को उछलकर भिगोती उन पर बैठे पंछियों के मधुर गीत सुनती मंद मंद हवा में लहराती। तब यह पूरा अंचल मेरा घर आंगन था जिसमें मैं खेलती थी और अब इसे संकुचित करते-करते बस एक पतली धार बना दिया। कहीं-कहीं तो वह धार भी नहीं मेरे प्रवाह को रोक दिया गया है। कुछ दिन पहले मेरे किनारे इसे किनारे भी कैसे कहूँ यह प्लास्टिक काँच कचरा सड़े गले खाने का भी ढेर मात्र है लेकिन ना जाने क्यों वह युवती इस गंदगी को पार कर मेरे आंचल के बीच उस ऊंची चट्टान तक चली आई। बहुत आश्चर्य हुआ था मुझे सच कहो तो कांप गई थी मैं कि यह यहां क्या करने वाली है ?
लोग तो यहाँ तक हवन पूजन की राख फूल मुड़ी तुडी भगवान की फोटो टूटी-फूटी मूर्तियाँ डालने आते हैं लेकिन वह तो खाली हाथ थी फिर क्या अपनी विष्ठा ? छी जी घिना गया मेरा लेकिन वह आकर उस चट्टान पर बैठी रही।
उस समय सूरज अस्ताचल को था उसकी पीली किरणों में वह युवती मुरझाई सी लगी। बहुत कौतूहल था मुझे कि आखिर वह क्या करती है ? वह देर तक खामोश बैठी रही फिर खुद से ही बातें करने लगी। सब मुझे रोकते हैं हमेशा टोकते हैं क्या हुआ जो मैं बड़ी हो गई तो ? अभी कुछ साल पहले तक भी तो मैं वही लड़की थी घर आंगन में नाचती थी मोहल्ले के हर घर में जाती थी ओटलों और गलियों पर दौड़ती भागती थी। अचानक ऐसा क्या हो गया ? सब डाँटते हैं अगर मैं उछलूं कूदूँ। कहते हैं बाहर बहुत गंदगी है उससे बचने के लिए संयम से रहो। कौन सी गंदगी ? गुस्से के कारण उसका स्वर टूट रहा था।
असमंजस में थी मैं लेकिन देर तक उसकी बातें सुनने के बाद मुझे उसकी और खुद की व्यथा एक सी लगी। मैं भी तो तमाम गंदगी के बीच खुद में सिमट सिकुड़ गई हूँ। क्या कहूँ कैसे सांत्वना दूँ उसे ? कैसे समझाऊँ कि एक नदी और स्त्री का जीवन एक समान होता है ?
याद आते हैं मुझे वह दिन जब मेरी कल कल छल छल करती लहरों से गाँव की लड़कियाँ बहुएँ पानी भरने आती थीं। उनकी पीतल काँसी की गगरियों की आवाज उनकी चूड़ियों पायल की झंकार उनकी मीठी उन्मुक्त हंसी की फुहार मेरे अंतस को आल्हादित करती थी। उनकी ठिठोली भरी बातें और गीत घर परिवार के उनके दुख उनकी खुशी पीहर न जा पाने की कसक तो बहन के दुख से भरा आया मन और पति के प्यार व्यवहार की खट्टी मीठी बातें सभी तो मेरे किनारे इस घाट पर बैठकर करती थीं। मैं भी उनके सुख-दुख से भीगी कभी थमती कभी ठहरती और कभी हंसती हुई आगे बढ़ जाती।
उस दिन मेरे किनारे पर बहुत सारे लोगों की आवाजाही होने लगी।
बहुत सारी गाड़ियाँ आईं कई आदमी थे जो देर तक मुझे देखकर जाने क्या क्या कहते रहे। डर गई थी मैं और एक दिन मेरे पानी में बड़े-बड़े पाइप डाले गये किनारे पर बड़े बड़े बक्से लगे। मैं तो कुछ नहीं समझी थी नारियल फूटा तो इठलाई थी कि एक और देव स्थान मेरे किनारे बन गया। अहा कितनी खुशनसीब हूँ मैं कि देवता के चरण पखारूँगी। तभी घर्र घर्र की तेज आवाज से मेरे आंचल में पलने वाले जल जंतु घबराकर भागे। मुझे तो लगा मानो मेरे पास प्राण ही खींच लिए जा रहे हैं। किस से पूछती किससे समझती सब जा चुके थे। उस दिन से मेरे किनारे की रौनक खत्म हो गई। रुनझुन खिलखिलाहटें खत्म हो गईं। मैं रीतती जा रही थी लेकिन किस से कहती।
उस दिन लगभग अंधेरा ढले आया था वह। अकेला थका हुआ उदास। वह किनारे की उन सीढ़ियों पर बैठा था तब वहाँ इतनी गंदगी कहाँ थी लेकिन किनारे मुझसे दूर हो गए थे। अंधेरे में देर तक बड़बड़ाता रहा था वह और मैंने भी साँस रोक ली थी उसे सुनने को। कहाँ से लाऊं कैसे लाऊँ पैसा ? इनकी तो हवस ही खत्म नहीं होती जितना देते जाओ उतना कम होता है। पहले हजार कमाता था हजार में खर्च चलता था आज हलक में हाथ डालकर प्राण खींच डाल रहे हैं। अरे मुझ में मेरा कुछ बचने दोगे भी या नहीं ? मशीन समझा है क्या मुझे वह जोर से चिल्लाया था।
डर गई थी मैं यह मेरी व्यथा क्यों कह सुना रहा है ? यही तो किया तुमने मेरे साथ। पहले दो चार घड़े पानी में जाते थे अब तो मेरे प्राण ही खींच ले रहे हैं इन बड़े-बड़े पाइप से। घर्र घर्र करती यह मोटर है शायद किसी ने बताया था।
उस दिन समझी कि आदमी भी तो मुझ जैसे ही हैं। उनसे उनकी क्षमता से ज्यादा खींचने वाला परिवार धीरे-धीरे उन्हें खोखला कर देता है यह लोग समझते क्यों नहीं है ? इससे यही समझ पा रही हूँ कि हर व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष उसके अंदर एक नदी बहती है। उस नदी को बहने देना चाहिए उसका ध्यान रखना चाहिए। उस नदी को समाज की गंदगी और लालच से दूर रखा जाए तो वह बहती रहेगी निर्झर।
यह इंसान इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझता ? क्यों अपने और दूसरों के अंदर की नदी को बहने से रोकता है ? क्यों मुझे बहने से रोकता है ? क्यों नहीं बना रहने देता है प्रवाह जिसमें जीवन बहता है ? यह इंसान क्यों नहीं समझता है।
कविता वर्मा