शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

अंतस की नदी

 तीखी धूप की तपिश ने तन मन झुलसा दिया। कहीं एक पेड़ की छाँव भी नहीं कैसी दशा हो गई है मेरी ? क्या करूँ सिसक पड़ी थी मैं यह सोचकर। मैं कान्ह नदी मेरे विशाल विस्तार पर कचरे मल मूत्र के ढेर इतनी गंदगी कैसे छोड़ सकता है कोई किसी के दामन पर ? कैसे अपनी गंदगी दूसरों के घर आंगन में बहा सकता है इंसान ? इतनी बदबू कि सांस लेना मुश्किल। क्या करूँ कैसे समझाऊं इस मनुष्य को ? 

किस तरह इठलाती थी खिलखिलाती थी मैं अपने बचपन में। ऊंचे नीचे रास्ते पत्थरों पर उछलती थिरकती मैं अपने आसपास लगे पेड़ों की झुकी हुई डालियों को उछलकर भिगोती उन पर बैठे पंछियों के मधुर गीत सुनती मंद मंद हवा में लहराती। तब यह पूरा अंचल मेरा घर आंगन था जिसमें मैं खेलती थी और अब इसे संकुचित करते-करते बस एक पतली धार बना दिया। कहीं-कहीं तो वह धार भी नहीं मेरे प्रवाह को रोक दिया गया है। कुछ दिन पहले मेरे किनारे इसे किनारे भी कैसे कहूँ यह प्लास्टिक काँच कचरा सड़े गले खाने का भी ढेर मात्र है लेकिन ना जाने क्यों वह युवती इस गंदगी को पार कर मेरे आंचल के बीच उस ऊंची चट्टान तक चली आई। बहुत आश्चर्य हुआ था मुझे सच कहो तो कांप गई थी मैं कि यह यहां क्या करने वाली है ?

लोग तो यहाँ तक हवन पूजन की राख फूल मुड़ी तुडी भगवान की फोटो टूटी-फूटी मूर्तियाँ डालने आते हैं लेकिन वह तो खाली हाथ थी फिर क्या अपनी विष्ठा ? छी जी घिना गया मेरा लेकिन वह आकर उस चट्टान पर बैठी रही। 

उस समय सूरज अस्ताचल को था उसकी पीली किरणों में वह युवती मुरझाई सी लगी। बहुत कौतूहल था मुझे कि आखिर वह क्या करती है ? वह देर तक खामोश बैठी रही फिर खुद से ही बातें करने लगी। सब मुझे रोकते हैं हमेशा टोकते हैं क्या हुआ जो मैं बड़ी हो गई तो ? अभी कुछ साल पहले तक भी तो मैं वही लड़की थी घर आंगन में नाचती थी मोहल्ले के हर घर में जाती थी ओटलों और गलियों पर दौड़ती भागती थी। अचानक ऐसा क्या हो गया ? सब डाँटते हैं अगर मैं उछलूं कूदूँ। कहते हैं बाहर बहुत गंदगी है उससे बचने के लिए संयम से रहो। कौन सी गंदगी ? गुस्से के कारण उसका स्वर टूट रहा था। 

असमंजस में थी मैं लेकिन देर तक उसकी बातें सुनने के बाद मुझे उसकी और खुद की व्यथा एक सी लगी। मैं भी तो तमाम गंदगी के बीच खुद में सिमट सिकुड़ गई हूँ। क्या कहूँ कैसे सांत्वना दूँ उसे ? कैसे समझाऊँ कि एक नदी और स्त्री का जीवन एक समान होता है ? 

याद आते हैं मुझे वह दिन जब मेरी कल कल छल छल करती लहरों से गाँव की लड़कियाँ बहुएँ पानी भरने आती थीं। उनकी पीतल काँसी की गगरियों की आवाज उनकी चूड़ियों पायल की झंकार उनकी मीठी उन्मुक्त हंसी की फुहार मेरे अंतस को आल्हादित करती थी। उनकी ठिठोली भरी बातें और गीत घर परिवार के उनके दुख उनकी खुशी पीहर न जा पाने की कसक तो बहन के दुख से भरा आया मन और पति के प्यार व्यवहार की खट्टी मीठी बातें सभी तो मेरे किनारे इस घाट पर बैठकर करती थीं। मैं भी उनके सुख-दुख से भीगी कभी थमती कभी ठहरती और कभी हंसती हुई आगे बढ़ जाती। 

उस दिन मेरे किनारे पर बहुत सारे लोगों की आवाजाही होने लगी।

बहुत सारी गाड़ियाँ आईं कई आदमी थे जो देर तक मुझे देखकर जाने क्या क्या कहते रहे। डर गई थी मैं और एक दिन मेरे पानी में बड़े-बड़े पाइप डाले गये किनारे पर बड़े बड़े बक्से लगे। मैं तो कुछ नहीं समझी थी नारियल फूटा तो इठलाई थी कि एक और देव स्थान मेरे किनारे बन गया। अहा कितनी खुशनसीब हूँ मैं कि देवता के चरण पखारूँगी। तभी घर्र घर्र की तेज आवाज से मेरे आंचल में पलने वाले जल जंतु घबराकर भागे। मुझे तो लगा मानो मेरे पास प्राण ही खींच लिए जा रहे हैं। किस से पूछती किससे समझती सब जा चुके थे। उस दिन से मेरे किनारे की रौनक खत्म हो गई। रुनझुन खिलखिलाहटें खत्म हो गईं। मैं रीतती जा रही थी लेकिन किस से कहती। 

उस दिन लगभग अंधेरा ढले आया था वह। अकेला थका हुआ उदास। वह किनारे की उन सीढ़ियों पर बैठा था तब वहाँ इतनी गंदगी कहाँ थी लेकिन किनारे मुझसे दूर हो गए थे। अंधेरे में देर तक बड़बड़ाता रहा था वह और मैंने भी साँस रोक ली थी उसे सुनने को। कहाँ से लाऊं कैसे लाऊँ पैसा ? इनकी तो हवस ही खत्म नहीं होती जितना देते जाओ उतना कम होता है। पहले हजार कमाता था हजार में खर्च चलता था आज हलक में हाथ डालकर प्राण खींच डाल रहे हैं। अरे मुझ में मेरा कुछ बचने दोगे भी या नहीं ? मशीन समझा है क्या मुझे वह जोर से चिल्लाया था।

डर गई थी मैं यह मेरी व्यथा क्यों कह सुना रहा है ? यही तो किया तुमने मेरे साथ। पहले दो चार घड़े पानी में जाते थे अब तो मेरे प्राण ही खींच ले रहे हैं इन बड़े-बड़े पाइप से। घर्र घर्र करती यह मोटर है शायद किसी ने बताया था। 

उस दिन समझी कि आदमी भी तो मुझ जैसे ही हैं। उनसे उनकी क्षमता से ज्यादा खींचने वाला परिवार धीरे-धीरे उन्हें खोखला कर देता है यह लोग समझते क्यों नहीं है ? इससे यही समझ पा रही हूँ कि हर व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष उसके अंदर एक नदी बहती है। उस नदी को बहने देना चाहिए उसका ध्यान रखना चाहिए। उस नदी को समाज की गंदगी और लालच से दूर रखा जाए तो वह बहती रहेगी निर्झर। 

यह इंसान इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझता ? क्यों अपने और दूसरों के अंदर की नदी को बहने से रोकता है ? क्यों मुझे बहने से रोकता है ? क्यों नहीं बना रहने देता है प्रवाह जिसमें जीवन बहता है ? यह इंसान क्यों नहीं समझता है।

कविता वर्मा 

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

अब करी अबहुँ न करूँगी

  (मालवा निमाड में माँ और दादी को बाई कहते हैं और कामवाली के लिए बाई संबोधन सम्मान जनक संबोधन होता है।)


दरवाजा खटखटाने की आवाज पर रुचि ने दरवाजा खोला । सामने टखने तक की मटमैली साड़ी पहने, बिखरे बाल, धंसी आंखें. बाहर निकले दांत वाली एक बाई खड़ी थी। देखते ही रुचि में वितृष्णा का भाव जागा जिसे उसने किसी तरह भीतर गटक लिया और चेहरे पर सहजता लाते हुए पूछा "क्या बात है?" 

"आपको घर के काम के लिए बाई चाहिए । वह दवाई वाले काका जी ने बोला था।" 

दवाई वाले काका जी कौन रुचि के दिमाग में यह प्रश्न कौंधा जिसे परे खिसका कर वह झट से कामवाली बाई पर आ गई। "हाँ चाहिए तो " । उसकी मटमैली, दयनीय हालत देख उसने एक बार खुद से पूछा कि क्या वाकई उसे यह बाई चाहिए? चार दिन से घर के सामान की अनपैकिंग करते, खाना- कपड़े- बर्तन- झाड़ू- पोंछा करते रुचि इतनी पस्त हो गई थी कि उसने उस अनचाहे प्रश्न को परे झटक दिया।" क्या-क्या काम कर लेती हो?" 

"जो भी तुम कहो। तुम को क्या करवाना है?" 

रुचि को तुम संबोधन खटका । सिर्फ मैली कुचली ही नहीं है, अनकल्चरड भी है। एक मन हुआ मना कर दे कि कुछ नहीं करवाना । फिर बीच कमरे में पड़ी झाड़ू और कचरा देख सिहर गई। "मुझे तो झाड़ू- पोंछा- बर्तन करवाना है।"

" कपड़े नहीं करवाओगी?"

" नहीं, कपड़ों की मशीन है। अच्छा सुबह कितने बजे आओगी?" 

"तुम कितने बजे बुलाओगे?" 

फिर तुम रुचि का दिमाग भन्ना गया। ग्यारह बजे। 

"ग्यारह बजे?" उसने आश्चर्य से कहा।  रुचि समझ नहीं पाई उसने समय जल्दी का बता दिया या देर का। उसने थोड़ी देर उस बाई को देखा । वह अपने खुले मुँह पर तीन उंगलियां रखे खड़ी थी जिनके बीच से उसके सफेद पीले दांत झांक रहे थे। 

"रात के बर्तन खुद करोगे?" 

"खुद क्यों?" रुचि को समझ आया यह छोटा सा कस्बा है जहाँ रात के बर्तन सुबह जल्दी करने के बाद खाना बनता है। उसे तो शहर की आदत है जहाँ काम वाली एक ही बार आती है । लेकिन वह तो सुबह जल्दी उठती ही नहीं फिर? रुचि असमंजस में थी क्या करें । उसका हस्बैंड साढ़े दस बजे ऑफिस जाएगा इसलिए उसने ग्यारह बजे का समय बोला था। यहां पता नहीं क्या सिस्टम है? महानगर में पली-बढ़ी रुचि के लिए बड़ी दुविधा खड़ी हो गई। 

"सुबह जल्दी आओगी तो झाड़ू पोंछा करने कब आओगी?" थोड़ी मगजपच्ची करके कुछ खुद हैरान होते, कुछ बाई को हैरान करते तय हुआ कि वह नौ बजे आकर बर्तन कर जाएगी।  फिर बारह बजे आकर झाड़ू पोंछा और फिर से बर्तन करेगी। काम आज, अभी से शुरू करने की और पैसों की बात तय हो गई। रुचि आराम से सोफे पर पसर गई। उसके पति का इस ग्रामीण बैंक में ट्रांसफर ना हुआ होता तो शायद कभी इतने छोटे कस्बे में आती ही नहीं। बाई को काम करते देख रुचि के दिमाग में कीड़ा कौंधा। कितनी गरीब है यह, इसे तो ठीक से खाना भी नहीं मिलता होगा जैसे विचार आने लगे। 

"बाई कौन-कौन है तुम्हारे घर में?" 

"सब हैं सास, ससुर, देवर, मेरा घर वाला और तीन बच्चे।" "घरवाला क्या करता है?" 

"मजदूरी करता है। देवर और ससुर भी मजदूरी करते हैं।" "सास नहीं करती?" 

"नहीं वह घर पर गाय ढोर और बच्चे देखती है।" 

"घर का काम तुम करती हो या सास?" 

"सास क्यों करेगी? मैं सुबह रोटी करके आती हूँ। सब टिप्पन लेकर जाते हैं ना काम पर।"

इतनी सूचना रुचि के द्रवित होने के लिए काफी थी। वह रसोईघर में अपने और बाई के लिए चाय बनाने चली गई। चाय के साथ एक प्लेट में चार बिस्किट देकर उसे पकड़ाया तो उसके चेहरे पर आश्चर्य की लहरें देख रुचि को अपनी दरियादिली पर गर्व हो आया। अगले दिन रुचि ने उसके लिए अपनी एक साड़ी निकाल कर रखी। काम के बाद उसे देते हुए कहा कि कल से नहा धोकर, कंघी चोटी करके अच्छे से आना जैसे शहरों में औरतें तैयार होकर काम पर जाती हैं। यह तुम्हारा भी काम है तुम इससे पैसा कमाती हो। बाई देर तक रुचि को देखती रही तो आनंदतिरेक रुचि के चेहरे पर हंसी फैल गई। अगले तीन-चार दिन भी वह साड़ी पहनकर नहीं आई अलबत्ता अब वह कंघी करके साफ सुथरी आने लगी। 

रुचि रोज ही उसको खाने के लिए कभी रोटी, पराठा ,ब्रेड आदि देने लगी ।यह सब वह ताजा बना कर देती। बाई भी आखिर इंसान है, फिर इतनी मेहनत करती है। 

उस दिन वह देर तक रास्ता देखते रही बाई नहीं आई। आखिर शाम को उसने बर्तन धोकर झाड़ू लगाई। रुचि को उस पर खूब गुस्सा आया । कुछ भी करो इन लोगों के लिए यह लोग कोई एहसान नहीं मानते। बता कर नहीं जा सकती थी बस जब मन किया छुट्टी करके बैठ गई। आने दो अच्छी खबर लेती हूँ। झाड़ू लगाते पलंग के नीचे से झाड़ू लगाई तो ढेर सारी धूल और कचरा नीचे से निकला। अलमारी फ्रिज के नीचे भी वही हाल था। अब उसका ध्यान बर्तनों पर गया कढ़ाई पीछे से काली हो चुकी थी। स्टील के बर्तनों की चमक गायब थी। 

तीन दिन रुचि भुनभुनाती रही ।   पूरे दिन रास्ता देखते शाम को काम करते रही। चौथे दिन आते ही बाई सिर पकड़ कर बैठ गई। 

"जीजी एक कप चाय पिला दो न सिर बहुत जोर से दुख रहा है ।कुछ खाने को भी दे दो भूखे पेट तो मुझसे काम नहीं होगा।" 

रुचि गुस्से में भरी बैठी थी । तीन दिन काम कर करके कमर टूट गई। उस पर लापरवाही से काम की पोल खुल गई और यह महारानी आते ही चाय- खाने की फरमाइश लेकर बैठ गई है । 

अपने गुस्से को जज्ब करते उसने पूछा" तीन दिन कहाँ थीं?"

"जीजी बुखार आ गया था, उठते ही नहीं बना। मुँह इतना कड़वा था कि रोटी भी नहीं खाई गई। घर पर थी तो सास बुखार में भी गोबर सानी करवाती थी।" 

रुचि फिर द्रवित हो गई लेकिन गुस्सा अभी खत्म नहीं हुआ था। उसने रात की पड़ी एक रोटी अचार के साथ उसे दी जिसे बाई ने परे खिसका दिया।" दीदी मैं बासी रोटी नहीं खाती, आप तो देसी घी का एक कड़क पराठा सेंक दो।"

रुचि कुछ कहने को हुई कि ख्याल आया तीन दिन में तो हालत खराब हो गई, अगर यह काम छोड़ गई तो? रुचि डब्बे में से आटा निकाल गूंधने लगी। 

उस महीने बाई ने आठ छुट्टी की। गरीब का दुख बीमारी में पैसा काटकर कितना बचा लोगी की सोच ने उसे पूरे पैसे दिलवाए। अब तो बाई ठसके से हफ्ते में एक दिन छुट्टी करती। कुछ कहने पर कहती जीजी शहर में औरतों को भी तो आपिस से एक दिन छुट्टी मिलती है। रोज गरम नाश्ता करती। अलमारी पलंग के नीचे सफाई के नाम पर खड़ी हो जाती। "जीजी इतना झुकने पर मेरी कमर दर्द होने लगती है।" इसलिए पलंग के नीचे से कचरा रुचि निकालती। बातों बातों में उसे पता चल गया कि शहरों में बाईयाँ एक बार आती हैं अब वह आए दिन एक टाइम छुट्टी कर लेती। 

उस दिन काका जी की मेडिकल स्टोर पर रुचि कमर दर्द के लिए मूव लेने गई। उन्होंने पूछा" बाई ठीक से काम कर रही है?" 

रुचि ने बताया "वह तो आठ दिन से नहीं आई।" 

काका जी बोले "हमारे यहाँ तो रोज आ रही है।" 

लौटते हुए रुचि ने मन ही मन हिसाब लगाया कि उसने कितने दिन काम किया और उसे कितने पैसे देना है। वह काका जी से दूसरी किसी बाई को भेजने का कह आई थी।

कविता वर्मा 

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मंगलवार, 12 जुलाई 2022

खिल गई कुमुदिनी

 सारा दिन भागदौड़ टेस्ट एक्स-रे एम आर आई और इस काउंटर से उस काउंटर इस मंजिल से उस मंजिल तक भागते दौड़ते नेहा पस्त हो गई थी तन से भी और मन से भी। उसके पति परेश को अभी वार्ड में शिफ्ट किया। सेमी प्राइवेट रूम का कोने वाला बेड उसके बगल में दो फीट की एक गद्देदार बेंच है और दीवार पर एक खिड़की जिस पर हरा पर्दा डला है। परेश हाथ में पट्टियों के सहारे स्थिर की सुई में बोतल की सीरीज लगाए अध बेहोशी अधनींद की हालत में है। नर्स कुछ दवाइयां इंजेक्शन कॉटन ट्रे में रखकर पलंग के पैताने लगे चार्ट पर कुछ नोट करके जा चुकी है। उस कमरे के बीच का एक बेड खाली है और दूसरे कोने में दरवाजे की तरफ एक बुजुर्ग पेशेंट है। 

परेश पर एक नजर डालकर नेहा बगल में पड़ी उस बैंच पर बैठ गई। उसके पैरों में गहरी टीस सी उठी जो उसकी कमर से होते हुए रीढ़ तक फैल गई। उसके मुँह से एक सिसकारी निकली सूखे होंठों पर जीभ फेरते उसे याद आया कि उसने बहुत देर से पानी नहीं पिया है। उसके पास पानी था भी नहीं और न पानी पीने जाने की हिम्मत ही उसमें बची थी। 

उसने खिड़की का पर्दा हटा कर बाहर झांका बाहर एक छोटे सूखे मैदान के पार एक छोटा सा पोखर था। डूबते सूरज की सिंदूरी किरणें हवा से बनी पानी की छोटी-छोटी लहरों को सिंदूरी आभा दे रही थी तो आसमान का स्लेटी सियाह रंग पानी को अपने रंग में रंगने के लिए उसमें समाता जा रहा था। पोखर में कुछ कुमुदिनी दिनभर अपनी खुशबू और छटा बिखेर कर अपनी पंखुड़ियों को समेटकर गहन उदासी में डूबी हुई थी। इस दृश्य ने नेहा को और अधिक हताश कर दिया उसने पर्दा छोड़ दिया और सोच में डूब गई। 

परिवार की छोटी बेटी माता-पिता की लाडली नेहा जिसे माता-पिता पलकों पर बैठा कर रखते थे तो उसका बड़ा भाई राहुल सिर पर। उसके मुँह से निकली बात निकलने से पहले पूरी हो जाती। नेहा को रसगुल्ला खाना है पापा रात नौ बजे स्कूटर लेकर निकल जाते। नेहा को सहेली के यहाँ जाना है राहुल बाइक से छोड़ने लेने चला जाता। नेहा के कॉलेज की फीस भरना है पापा ऑफिस जाते भर देंगे मूवी जाना है भाई टिकट लाकर दे देगा। नेहा सहेलियों के बीच अपने परी जैसे स्टेटस की तारीफ करते नहीं थकती। घर के कामों में मम्मी का हाथ जरूर बंटाती लड़की को सब कुछ आना चाहिए लेकिन ऊपर टांड पर से कनस्तर उतारने के लिए भाई को बुलाया जाता तो गैस की टंकी लगाने पापा को। नेहा को न कभी किसी ने ऐसे काम करने को कहा और न उसने कभी ऐसी कोई इच्छा जताई। सुंदर पढ़ने-लिखने में होशियार खाना बनाने में दक्ष बोल चाल में निपुण नेहा को परेश और उसके माता-पिता ने देखते ही पसंद कर लिया था।

बी ए फाइनल किया ही था उसने कि चट मंगनी पट ब्याह कर वह खूबसूरत लाल जोड़े में लिपटी परेश की जिंदगी में आ गई। 

परेश के शरीर में हुई हरकत ने नेहा को चैतन्य कर दिया। प्यास के मारे उसका गला ही नहीं आंतें भी सूखने लगी थीं। वह उठ खड़ी हुई बाजू वाले पेशेंट के अटेंडेंट से ध्यान रखने और वाटर कूलर का पता पूछ कर वह पानी पीने चली गई। अस्पताल के गलियारे लोगों और उनके कोलाहल से भरे हुए थे इनके बीच नेहा का अकेलापन और मुखर हो उठा। मम्मी पापा का फोन भी नहीं आया फोन की याद आते ही वह तेजी से वार्ड की तरफ भागी। फोन दिनभर से पर्स में पड़ा था। दोपहर में जब परेश को एम आर आई के लिए ले गए थे तब उसने घबराते हुए मम्मी-पापा और सास-ससुर को फोन किया था। उसके बाद न उसे समय मिला न मोबाइल का होश ही रहा। नेहा ने देखा छह-सात मिस कॉल थे। वह मोबाइल उठा कर फिर बाहर आ गई। पहले सासू जी को फोन लगाया वह बहुत परेशान थी। परेश के हाल चाल बता कर वह पूछने ही वाली थी कि आप कब आओगे तभी सासु माँ ने राहत की साँस लेते हुए कहा बेटा अब तुम वहाँ सब संभाल ले रही हो और परेश भी अब ठीक है तो बेटा हम अब जरा निरात से आएंगे। तुम्हारे पापा जी के ऑफिस में ऑडिट चल रहा है। मम्मी पापा ने भी आने में असमर्थता जताई। भाई राहुल विदेश गया था पापा को टाइफाइड हुआ है मम्मी भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकतीं। नेहा थके कदमों से वापस आकर बैठ गई। 

आज सुबह भी रोज की तरह परेश खाने का डब्बा टाँग हेलमेट सिर में फँसा कर आफिस जाने के लिए निकला था। उसे विदा कर वह अंदर आकर बैठी ही थी कि उसका मोबाइल बजा परेश का फोन था। एक शरारती हंसी उसके होठों पर तैर गई। उसने फोन उठाकर लो को लंबा खींचते हुए हेलो कहा लेकिन दूसरी तरफ से अजनबी आवाज ने उसे चौंका दिया। किसी राह चलते व्यक्ति ने उसे बताया कि परेश की बाइक चौराहे से पहले ही स्लिप हो गई है और डिवाइडर से टकराने से वह बेहोश हो गया है। बदहवास नेहा ने पर्स मोबाइल लिया किसी तरह ताला लगाया और दौड़ती हुई वहाँ तक पहुंची। परेश बेसुध पड़ा था किसी ने उसकी बाइक खड़ी कर दी थी और मोबाइल से स्वीटहार्ट के नंबर पर उसे फोन कर दिया। शुक्र था भीड़ में उसे कॉलोनी के एक अंकल दिख गये और उसने उनसे बाइक का ध्यान रखने और घर पहुंचाने का अनुरोध किया। वह परेश को हॉस्पिटल लेकर आई। 

नर्स ने आकर ड्रिप बदल दी सिस्टर कब तक होश आयेगा उसने पूछा। 

जल्दी ही आ जाएगा थोड़ा बीपी बढ़ा था इसलिए दवा में नींद का डोज है। आप नीचे कैंटीन में जाकर कुछ खा लीजिए हम यहाँ ध्यान रखेंगे नर्स उसके भूखे प्यासे क्लांत चेहरे को देखकर स्नेह भरे स्वर में बोली। 

इन्होंने भी तो कुछ नहीं खाया। 

उनको बॉटल से सब मिल रहा है तुम खा कर आओ तुम्हें भागदौड़ करना है सिस्टर ने समझाया। 

कभी-कभी परेश कितना चिढ़ जाता था जब नेहा उसे गैस का सिलेंडर बदलने बिल भरने सब्जी लाने का कहती। वह उसे समझाता था कि छोटे-मोटे काम करना आना चाहिए। कभी जरूरत पड़ी तो यहाँ इस अजनबी शहर में हम दोनों अकेले हैं कैसे संभालोगी तुम ? 

वह अपनी हथेली उसके होंठों पर रख देती मुझे कभी कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। 

परेश झुंझलाता ऐसा भी क्या लाड प्यार कि एक अच्छी भली लड़की को परजीवी बना दें और नेहा नाराज हो जाती। आज दिनभर हर बार किसी काउंटर पर खड़े उसकी टांगें कांपती रहीं कुछ पूछने में जबान लड़खड़ाते रही। आज उसे परेश की कही हर बात की गंभीरता समझ आई। क्या सच में लाड प्यार में उसे पूरी तरह विकसित नहीं होने दिया गया ? उसका मन आक्रोश से भरने लगा। 

परेश गहरी नींद में था वह पास की बेंच पर लेट गई। मम्मी पापा भाई के लाड प्यार और उसके व्यक्तित्व के एक हिस्से के कमजोर रह जाने के बारे में सोचते सोचते उसकी आँख लग गई। सुबह कमरे में फैली रोशनी से उसकी आँख खुली उसने देखा परेश भी जाग गया है। उसने राहत की सांस ली। परेश के चेहरे पर चिंता झलकी जिसे उसने पलक झपका कर आश्वस्त किया। फिर पर्दा हटाकर देखा पोखर में गुलाबी कुमुदिनी खिली थी। उसके चेहरे पर अपने व्यक्तित्व को निखारने के प्रण की खुशबू बिखर गई।

बुधवार, 6 जुलाई 2022

धागा प्रेम का

 अच्छा चलता हूं अपना ख्याल रखना ध्यान से रहना और  कोई भी बात हो मुझे तुरंत फोन करना। मयंक ने निशी के माथे पर प्यार से चुंबन अंकित करते हुए कहा। 

आप भी अपना ख्याल रखिएगा और यहां की चिंता मत करिए यहां मैं सब संभाल लूंगी।

मयंक ने तीन साल की बिटिया चीनू को गोद में उठाकर प्यार किया उसे ताकीद दी मम्मी को तंग नहीं करना तभी बाहर खड़ी टैक्सी में हॉर्न दिया और मयंक ने चीनू को निशी की गोद में देकर टैक्सी का रुख किया। मयंक को उसकी कंपनी तीन महीने की विशेष ट्रेनिंग पर जापान भेज रही थी। यह उसके लिए विशेष खुशी और गर्व का विषय था कि कंपनी के पैंतालीस इंजीनियर्स में से उसे चुना गया था। बहुत खुश था वह लेकिन पत्नी और बेटी को अकेला छोड़कर जाने पर खासा चिंतित भी था। निशि टैक्सी के ओझल हो जाने तक गेट पर खड़ी रही फ़िर थके कदमों से चीनू को लेकर अंदर आ गई। अंदर आते ही उसने दरवाजा बंद किया और सामने की खिड़कियों पर पर्दा खींच दिया। अचानक एक असुरक्षा के एहसास ने उसे घेर लिया। अब वे माँ बेटी इस घर में इस शहर में एकदम अकेले हैं। इस एहसास ने गले में अटकी सिसकी को बाहर धकेल दिया। आवाज सुन चीनू ने अपनी बड़ी बड़ी आंखों से निशि को देखा तो उसने झट मुंह फेर कर आंखें पोंछ लीं और अगली सिसकी को गटक लिया। वह घर जिसमें मयंक कभी दिन में नहीं रहता था आज दिन में सांय सांय कर रहा था। चीनू की दोपहर की नींद का समय था निशि उसे लेकर लेट गई। उसकी आंखें भर आई अकेलेपन का अहसास उसे तोड़ रहा था। अभी तो मयंक की फ्लाइट ने टेक आॅफ भी नहीं किया कैसे गुजरेंगे यह तीन महीने अकेले ? माता-पिता भी अब नहीं रहे। भाई भाभी की गृहस्थी में इतने लंबे समय के लिए मेहमान बनकर रहना ठीक नहीं लगता। वह भी कहां पास में हैं दो हजार किलोमीटर दूर कोलकाता के पास एक छोटे से कस्बे में हैं। उसका बचपन भले वहाँ बीता लेकिन अब इतनी छोटी जगह रहने की आदत छूट गई। चीनू का स्कूल भी इसी साल शुरू हुआ उसे भी तो नहीं छोड़ा जा सकता।

शहर में कुछ पुराने परिचित हैं लेकिन वे सभी शहर के पुराने हिस्से में हैं जहाँ मयंक के पिता का पुश्तैनी घर है। वहाँ मयंक के बड़े भाई मुकेश भाई साहब अपने परिवार के साथ रहते हैं। मयंक और निशि ने छह माह पहले ही इस सुदूर कॉलोनी में मकान बनवाया है। शादी के बाद तीन साल तक सब साथ रहे फिर मयंक ने उसे तोड़कर नए सिरे से आधुनिक तरीके से बनाने को कहा जो भाई साहब को मंजूर नहीं था। उनका कहना था कि अभी मकान मजबूत है इसे गिरा कर अनावश्यक पैसा लगाने का क्या औचित्य ? मयंक चाहता था कि अभी कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं है इसलिए अभी दोनों भाई लोन लेकर बढ़िया मकान बनवा लें जब तक बड़ी जिम्मेदारियां आएंगी लोन चुक जाएगा। भाई साहब का अपना बिजनेस था पक्के व्यापारी थे वे उन्होंने इसे पैसे की बर्बादी बताया उनका कहना था कि बेकार का कर्जा करना ठीक नहीं है। करीब दो-तीन महीने चले इस विचार विमर्श का अंत तनातनी में हुआ बातचीत इतनी बढ़ी कि मयंक ने अलग होने का फैसला कर लिया। भाई साहब मकान के हिस्से करने को तैयार न हुए उन्होंने कहा कि मयंक को तो मकान तुड़वाकर नया ही बनवाना है इसलिए सिर्फ जमीन का वैल्यूएशन (जमीन की कीमत) करवा लेते हैं और जो भी कीमत होगी उसका आधा पैसा मैं मयंक को दे दूंगा। इस तरह भाई साहब ने मयंक को तीस लाख रुपये दिए। इतने में मयंक जमीन खरीद कर मकान नहीं बनवा सकता था इसलिए उसने बैंक से लोन लिया और दो बेडरूम का यह मकान बनवाया। मकान का बंटवारा होने के बाद मयंक बहुत ठगा सा महसूस कर रहा था। कुछ कसर जान पहचान वालों और रिश्तेदारों ने पूरी कर दी उन्होंने मयंक को मुकेश भाई साहब की चालाकी और ठगी का अहसास करवाया। मुकेश भाई साहब जितना समझाते ठगे जाने का एहसास उतना ही गहरा होता जाता। निशि को भी यही लगता था और फिर मुकेश भाई साहब को लेकर कटुता इतनी बढ़ी कि उन दोनों ने उनसे सारे संबंध तोड़ लिए। यहाँ तक कि अपने मकान की वास्तुशांति में भी उन्हें नहीं बुलाया और न ही अपनी कंपनी से जापान भेजे जाने की कोई सूचना उन्हें दी। 

निशी ने सो रही चीनू के सिर पर हाथ फेरा उसे सीधा सुलाया और पीठ सीधी करके आंखें बंद कर लीं। दोनों आंखों में भरे आंसू बाहर निकलकर तकिए में समा गए। मयंक के बिना दिन रात बेहद सूने हो गए थे चीनू भी हरदम उसे याद करती। जितना वह याद करती निशि को अपने दिल पर काबू करना उतना ही मुश्किल लगने लगता। फोन पर रोज बात होती थीं लेकिन ट्रेनिंग के दबाव से थका मयंक बहुत देर बात करने की स्थिति में नहीं होता था। देर रात कभी बात करने का मन होता तो होटल के रूम में एक और साथी की उपस्थिति बाधा बनती। दिन यूँ ही गुजर रहे थे दीपावली आने वाली थी मयंक का आना संभव न था इसलिए निशी में भी त्योहार का कोई उत्साह न था। 

तभी अचानक उस दिन खेलते खेलते चीनू गिर पड़ी उसका मुँह सीढ़ियों से टकराया और उसका सामने का दाँत अंदर मसूड़े में धंस गया। कुछ ही सेकंड में उसका चेहरा खून से लथपथ हो गया। निशि यह देखकर एकदम घबरा गयी उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। आसपास ज्यादा मकान भी नहीं थे न कोई दिख रहा था जिन से मदद मांग सके। बदहवास सी चप्पल पैरों में डाले पर्स लेकर ताला लगा चीनू को गोद में उठाकर वह कॉलोनी के बाहर तरफ भागी। शुक्र है एक खाली ऑटो मिल गया। हॉस्पिटल जाने का कहकर उसने चीनू को गोद में लिटाया उसका मुँह खून से भरा था जो उसने निशि के ऊपर उलट दिया। निशि भैया जल्दी करो प्लीज जल्दी चलाओ कहती खून और आंसुओं में लथपथ कभी चीनू को कभी रास्ते को देखती। चीनू की आंखें मुंदी जा रही थीं। 

अस्पताल पहुँचते ही चीनू को ओटी में ले लिया गया। निशि लोगों से भरे अस्पताल के गलियारे में अकेली असहाय खड़ी थी। न वह रो रही थी न कुछ समझ पा रही थी। नर्स ने उसे काउंटर पर पैसे जमा करने को कहे उसने कार्ड से पेमेंट किया और वापस मुड़ी। तभी डॉक्टर ने कहा बच्ची का दाँत मसूड़े में धंस गया है ऑपरेशन करके चीरा लगाकर निकालना होगा। वह पथराई सी डॉ को देख रही थी तभी एक आवाज आई इसमें कोई रिस्क तो नहीं है डॉक्टर ? क्या हम एक बार चीनू को देख सकते हैं ? वह होश में तो है ? 

जी हाँ वह होश में हैं ब्लीडिंग कम हो गई है। आप कौन ? 

मैं बच्ची का ताऊ उसका बड़ा पापा। 

निशि ने चौंककर सामने देखा। तभी दो हाथों ने उसे कंधों से थाम लिया यह भाभी जी थीं। निशि भरभरा कर गिरने को हुई उन्होंने सहारा देकर उसे बेंच पर बैठाया। इसके बाद किस डॉक्टर से क्या बात हुई कब ऑपरेशन हुआ निशि को कुछ नहीं पता। भाई साहब ने ही सब से बात की मयंक को फोन कर सभी स्थिति बताई ऑपरेशन के लिए खून दिया दवाई मंगवाई। 

चार दिन अस्पताल में रहकर चीनू की छुट्टी हो गई। धनतेरस का दिन था ऑटो भाई साहब के घर के सामने रुका। चीनू को गोद में लेकर भाई साहब अंदर चले गए। निशी के कदम थम गए क्या करें ? भाई साहब भाभी जी से कुछ कहने की स्थिति में वह नहीं थी चुपचाप अंदर चली गई। उसे याद आया जब वे दोनों घर छोड़कर जा रहे थे तब भाई साहब ने मयंक से कहा था मयंक घर मकान भले अलग हो जाएं लेकिन मुसीबत के समय एक और एक ग्यारह होते हैं इस प्रेम के धागे को मत तोड़ो लेकिन तब वे इस बात को नहीं समझे। 

जापान से वापस आकर मयंक निशि और चीनू को लेकर भाईसाहब से मिलने गया तब एक ही उत्सुकता थी कि भाईसाहब को कैसे पता चला ? 

भाईसाहब ने बताया कि मयंक के जापान जाने की खबर उन्हें मिल गई थी। उन्होंने दुकान के एक पुराने मुलाजिम को सुबह शाम मयंक के घर के आसपास चक्कर लगाकर सब ठीक है या नहीं देखने की जिम्मेदारी दे दी थी। जब निशी चीनू को लेकर ऑटो में बैठी उसने देख लिया और भाई साहब को खबर दे दी थी।

मयंक बहुत शर्मिंदा था उसने भाईसाहब के पैरों में झुकते हुए माफी मांगी और भाईसाहब ने कहा कि जापान रिटर्न की मिठाई खिलाएगा तो माफी मिलेगी और सबके समवेत ठहाके से वह पुश्तैनी घर गूँज गया।