सुबह गहरी धुंध में लिपटी थी उसमें भीगे पेड़ ठिठुरे से खड़े थे। सूरज भी कोहरे की चादर में लिपटा मानों उजाला होने और धूप निकलने का इंतजार कर रहा था। सुबह के 8:00 बज रहे थे लेकिन लोग अभी भी घरों में दुबके थे। कच्ची सड़क पर इक्का-दुक्का साइकिल या बाइक सवार कोहरे की चादर से इस निस्तब्धता को चीर के गुजर जाते और उनके गुजरते ही सब कुछ मानों फिर जम जाता। मेघना रोज की तरह सुबह 6:00 बजे उठ गई थी। उस समय हवा में जमी धुंध अंधेरे को उजला दिखा रही थी। पक्षी भी पेड़ों के कोटर और घोंसलों में दुबके थे। मेघना ने खिड़की से पर्दा हटा कर उस चंपई अंधेरे को देखा और एक बार फिर बिस्तर में दुबकने का मन बना लिया । लेकिन बरसों की सुबह की सैर की आदत ने उसे उठने को मजबूर कर दिया। उसने केतली में पानी गर्म करके चाय बनाई फ्रेश होकर ट्रैक सूट पहना जूते मफलर टोपी जैकेट पहन कमरे से बाहर आ गई।
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सोमवार, 19 सितंबर 2022
दौड़
गुरुवार, 8 सितंबर 2022
पौने तीन मिनट
पौने तीन मिनट
बुधवार, 7 सितंबर 2022
कड़वी सच्चाई
अनिल ऑफिस से घर आया तो देखा गली में लोगों की भीड़ लगी थी। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लोग झुंड बनाकर खड़े थे। धीमे धीमे स्वर में होने वाली बातचीत संयुक्त रूप से पर्याप्त ऊंची थी जिसे शोर तो नहीं पर आवाजें कहा जा सके। इन आवाजों में एक खौफ एक अफसोस था और था तनिक सा दुख जिसे महसूस कर अनिल सिहर गया। लोगों के झुंड लगभग हर घर के सामने थे जिससे यह तो पता चल रहा था कि कोई अनहोनी हुई है लेकिन किसके साथ किसके घर हुई है वह यह नहीं जान पा रहा था। वह धीरे-धीरे लोगों के चेहरे पढ़ने की कोशिश करते आगे बढ़ रहा था लेकिन गली में कई बार देखे उन अजनबी चेहरों से कुछ पढ़ नहीं पा रहा था। गली के मुहाने से अब वह काफी अंदर आ चुका था उसकी चाल आसपास खड़े लोगों को देखते काफी धीमी और अटपटी थी लेकिन वह अभी तक वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ था।
रविवार, 4 सितंबर 2022
उल्टी गंगा
विभा ने इधर-उधर देखा कमरे से बाहर झांका। सासू माँ बाहर के कमरे में रामनामी ओढ़े तखत पर बैठी माला जप रही थीं। कामवाली रसोई के पीछे आंगन में बर्तन धो रही थी। बड़ी बेटी स्कूल जा चुकी थी और छोटा बेटा यूनिफार्म पहनकर टीवी पर कार्टून देखते नाश्ता कर रहा था। इस समय उसके मनपसंद कार्टून के सामने से उसे भगवान भी नहीं उठा सकते थे। सासु माँ की कमर वैसे ही अकड़ी रहती उन्हें एक स्थिति से दूसरी में आने में कम से कम 5 मिनट लगते और साथ ही उस में हुए दर्द के कारण निकली कराहें सड़क तक सुनाई देती। पतिदेव बाथरूम में थे विभा ने एक बार फिर कान लगाकर सुना पानी गिरने की आवाज आ रही थी मतलब अभी कम से कम पांच सात मिनट तो वे बाथरूम से नहीं निकलने वाले थे । फिर भी उसने ऐतिहातन दरवाजा थोड़ा अटका दिया और दरवाजे के पीछे खूंटी पर टंगी दिनेश की पेंट की जेब में रखा बटुआ निकाला। उसने जल्दी से बटुआ खोला यह उसका प्रिय काम था कि सबकी नजर बचाकर दिनेश के बटुए में से पैसे निकाल लेना। हालांकि यह काम जितना आसान लगता था उतना था नहीं। पहले तो ऐसी घड़ी तलाश करना जब कि सब अपने काम में खासे व्यस्त हो जिससे कि कोई उसे ऐसा करते न देखे। बच्चे तो बिल्कुल ही नहीं जिन्हें वह बचपन से चोरी करना पाप है का पाठ सिखा चुकी है और कभी चोरी से चवन्नी चुराने या लड्डू निकाल कर खा लेने पर कान उमेठकर उठक बैठक करवा चुकी है। सासु माँ को भी नहीं जिनकी रामायण मंडली के आए दिन आ धमकने पर वह खर्च का रोना रो चुकी है या ननंद के लिए 500 की जगह 400 की साड़ी लेने के लिए रोनी सूरत बना कर अपनी मजबूरी बता चुकी है। दिनेश तो कतई नहीं जो कम खर्च में घर चलाने के उसके कौशल की तारीफ करते नहीं अघाता और शादी के इतने साल बाद भी उसके लिए एक अदद मंगलसूत्र न दिला पाने के अपराध बोध में उसकी हर हां में हां मिलाता है। यह अलग बात है कि विभा अब तक बटुए से चुपके से निकाले रुपए से एक मंगलसूत्र और एक जोड़ी झुमके बनवा चुकी है।
शनिवार, 27 अगस्त 2022
पगड़ी
घर में मेहमानों की आवाजाही बढ़ गई है। कार्यक्रम की रूपरेखा बन रही है कौन जाएगा कैसे जाएगा क्या करना है कैसे करना है जैसी चर्चाएं जोरों पर हैं । चाचा ससुर उनके बेटे देवर दोनों बेटे दामाद सभी समूह में बैठकर जोरदार तरीके से शानदार कार्यक्रम की योजना बनाते और फिर एक एक से अकेले अलग-अलग खर्च पानी की चिंता में दूसरे के दिये सुझाव की खिल्ली उड़ा कर उसे खारिज करते। समूह में दमदारी से सब करेंगे अच्छे से करेंगे के दावे खुद की जेब में हाथ डालने के नाम पर फुस्स हो जाते ।
सुनीति कभी उसी कमरे के कोने में कभी दूसरे कमरे में बैठी सब सुन रही थी लेकिन बोल कुछ नहीं रही थी। जैसे वह भी जानती थी कि सबके सामने शान दिखाने के लिए किए जा रहे दावे कितने खोखले हैं ।
आज सात दिन हो गए सुनीति के पति मनोहर की मृत्यु हुए। ढाई साल कैंसर से जूझते लड़ते आखिर वो जिंदगी की लड़ाई हार गए। बड़ा बेटा भोपाल में नौकरी करता है। शादी के बाद तो उसने मानो घर से संपर्क ही खत्म कर लिया । महीने में एक बार फोन पर हाल-चाल पूछ लेता छह महीने में एकाध दिन के लिए आता। वह ऊपरी बातचीत के अलावा कभी खर्चे पैसे कौड़ी की व्यवस्था के बारे में बात ही नहीं करता। कभी कभी सुनीति को बड़ा गुस्सा आता और वह मनोहर के चुप रहने के इशारे के बावजूद भी बोल पड़ती कि बीमारी के इलाज में आने जाने में बहुत खर्च हो रहा है। वह बड़ी बेजारी से जवाब देता हारी बीमारी में तो खर्च होता ही है इंसान को इन सब के मद में पैसा बचा कर रखना चाहिए। फिर तुरंत बात बदल देता।
छोटा बेटा अपनी प्राइवेट नौकरी से छुट्टी लेकर हर बार पिता को कभी बस से कभी टैक्सी से इंदौर ले जाता। यूँ तो उनके गाँव से इंदौर की दूरी 80 किलोमीटर है लेकिन बाइक पर इतनी दूर बैठकर जाने की मनोहर की हालत नहीं रही थी।
बाहर छोटे और बड़े बेटे की बहस की आवाजें आ रही थीं। सुनीति ने अपने विचारों से बाहर निकल उस पर ध्यान लगाया। दोनों दसवें दिन घाट और तेरहवीं के आयोजन में होने वाले खर्च को लेकर बहस कर रहे थे। बड़े का कहना था पापा ने सारी जिंदगी जो कमाया वह कहाँ गया? छोटा डॉक्टर की फीस दवाई आने-जाने के खर्च का हिसाब बता रहा था जिस पर बड़े को कतई विश्वास न था। तूने बीमारी के नाम पर पापा को खूब चुना लगाया है खूब पैसा बनाया है। यह बड़े का स्वर था।
भैया गुस्से में कहा संबोधन अपनी बात कहते कहते रुआँसा हो गया। बात और बढ़ती तब तक सुनीति कमरे से बाहर आ गई। बड़ा कुछ कहने को हुआ सुनीति ने हाथ उठाकर उसे चुप रहने का इशारा किया।
दसवीं का घाट घर कुटुंब का कार्यक्रम था जो जैसे तैसे निपट गया। शायद बहू ने समझाया या चाचा जी ने बड़े ने सब खर्च किया।
तेरहवीं के कार्यक्रम की रूपरेखा के लिए सुनीति खुद सबके बीच आ बैठी। पति की बीमारी में अकेले जूझते और रिश्तेदारों के दिखावे को समझते अब वह अंदर से मजबूत हो गई थी। इस अकेलेपन से अकेले जूझने की हिम्मत उसमें आ गई थी। उसे याद है जब मनोहर को लेकर इंदौर के अस्पताल गई थी और डॉक्टरों की हड़ताल हो गई थी। उसने बेटे से देवर को फोन लगवाया था। देवर का ससुराल इंदौर में ही है वह चाहती थी कि एक-दो दिन इंदौर में रहने की व्यवस्था हो जाए ताकि इस जर्जर हालत में मनोहर को बार-बार सफर न करना पड़े। देवर ने कहा कि मैं उनसे बात करके आपको बताता हूँ और फिर दिन भर न उनका फोन आया न लगा। वही देवर आज तेरहवीं में दो मिठाई पूरी कचोरी दाल चावल कढ़ी दो सब्जी का ब्यौरा तैयार कर बनवाने पर जोर दे रहे थे।
भैया मेरे पास तो अब पैसा बचा नहीं जो था सब इनके पापा की बीमारी में लग गया। आपके भी सगे भाई थे वह आपकी पढ़ाई लिखाई शादी ब्याह में खर्च किया है उन्होंने। आप कितना खर्च कर सकते हो उसके अनुसार ही भोज तैयार करवाना। बड़े ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए हैं। उसकी इस बात से पल भर को सब सनाका खा गए। बड़े बेटे ने आंखें तरेर कर उन्हें देखा। चाचा ससुर के लड़के ने बात संभाली देखो अब सभी समाज में मृत्यु भोज बंद हो रहा है। हमें भी मिसाल कायम करना चाहिए। समाज के पांच पंच बुला कर 11 ब्राह्मणों को भोजन करवा दें और बाहर समधियाने के जो मेहमान आएंगे उनके खाने की व्यवस्था कर देंगे। उनके लिए सब्जी पूरी कढी चावल और एक मीठा बहुत है। क्यों भैया ठीक है न? ज्यादा वजन भी नहीं पड़ेगा। समाज के लोग पगड़ी में शामिल होंगे पंजीरी का प्रसाद लेकर विदा होंगे। कमरे में जाते उनके होंठ वितृष्णा से टेढ़े हो गए।
आज सुबह से गहमागहमी थी। बेटे देवर चाचा ससुर उनके बेटों के ससुराल वाले दूर पास की ननदें बेटियाँ सभी आ चुकी थीं। सब तैयार होकर बैठे पगड़ी रस्म में दिए जाने वाले टाॅवेल शॉल एक दूसरे को दिखा रहीं थीं। पंडित आ गए पगड़ी की रस्म के लिए सिर मुंडाए चाचा ससुर देवर उनके बेटे और मनोहर के दोनों बेटे बैठे थे। समाज के पंच पगड़ी पहनाने खड़े हुए तभी सुनीति उठ खड़ी हुई।
ठहरिये सबकी नजरें उसकी तरफ उठीं। उनमें आश्चर्य था विद्रूप था और उत्सुकता थी। सुनीति हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। आज मैं पंचों के सामने समाज से कुछ कहना चाहती हूँ।
सबसे बुजुर्ग पंच ने कहा कहो बहू क्या कहना चाहती हो? सुनीति ने कहना शुरू किया समाज में रीति रिवाज नेग दस्तूर इसलिए बनाए गए हैं ताकि लोगों में आस्था हर्ष उल्लास और जिम्मेदारी का भाव बना रहे। पगड़ी की रस्म भी इसी जिम्मेदारी का एहसास कराने के लिए की जाती है। लेकिन दुखद है कि जीते जी रिश्ते की कोई जिम्मेदारी न निभाने वाले किसी के मरने के बाद पगड़ी पहनने बैठते हैं। वे भी जानते हैं कि पगड़ी सिर्फ पहनने के लिए दिखावे के लिए पहनना है जबकि मृतक परिवार की कोई जिम्मेदारी वे कभी नहीं उठाने वाले हैं। मैं आज यहाँ पगड़ी पहनने बैठे सभी लोगों से पूछना चाहती हूँ आप में से कौन भविष्य में मेरी दुख बीमारी बेटे की शादी की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है? मैं अनुरोध करूंगी कि जो इस जिम्मेदारी को उठाना नहीं चाहते मेरे पति के नाम की पगड़ी ना पहने। फिर अपने बड़े बेटे को संबोधित करते सुनीति ने पूछा बेटा क्या तुम मेरी जिम्मेदारी उठा पाओगे अगर नहीं तो तुम भी उठ सकते हो। इतना सुनना था कि बड़ा बेटा सिर पर रखी टोपी पटक कर खड़ा हो गया और पैर पटकता वहाँ से चला गया। उसके पीछे पीछे धीरे से बाकी लोग भी खिसक गए। अंत में बचा रहा सिर्फ छोटा बेटा। सुनीति ने कहा अब आप पगड़ी की रस्म शुरू करें।
सबके उठ जाने से उनके रिश्तेदारों में खुसरूपुर शुरू हो गई बुजुर्ग पंच ने कहा कि आज समाज में नई नीति शुरू हुई है अब से पगड़ी सिर्फ जिम्मेदारी लेने वाले को पहनाई जाएगी। आप सभी से अनुरोध है कि पगड़ी के बाद भोजन करके जाएंँ। सुनीति की आंखों में आँसू झिलमिला गए।
कविता वर्मा
शनिवार, 13 अगस्त 2022
बड़ा नहीं हुआ गोलू
सुनंदा ने खिड़की से झांक कर देखा गोलू पार्क में अकेला उदास बैठा था। यह रोज का क्रम बन गया था गोलू रोज ही स्कूल से आकर पार्क में बैठा रहता। वह न पार्क के फूलों पेड़ों को देखता और न ही चहचहाते पंछी उसे आकर्षित कर पाते। न ही तीखी धूप की चुभन उसे विचलित करती और न ही कठोर बेंच की रुक्षता उसे डिगाती। स्कूल की थकावट कभी-कभी उसे वहीं बेंच पर लेट जाने को मजबूर करती और गर्म हवा के थपेड़ों से झुलसा उसका क्लांत चेहरा सुनंदा को द्रवित करता।
अभी खेलने का समय नहीं हुआ था इसलिए पार्क में और कोई छोटे बच्चे नहीं थे। शायद सभी अपने स्कूल का होमवर्क कर रहे हों या शायद खाना खा कर आराम कर रहे हों। आजकल गोलू स्कूल से आकर बैग पटकता है कपड़े बदलकर यहां वहां फेंकता है और पार्क में आ जाता है। उसकी मम्मी उससे खाने का कहती है तब वह थोड़ी देर देखता रहता और कभी कुछ खाता कभी बिना कुछ खाए ही बाहर निकल जाता।
सुनंदा भी कभी-कभी तब तक खिड़की पर उसके साथ रहती जब तक कि उसके दोस्त खेलने नहीं आ जाते। आठ साल के उस नन्हे बच्चे का इस तरह अकेले पार्क में बैठे रहना उसकी सुरक्षा के लिए चिंता पैदा करता इसलिए भी सुनंदा वहाँ खड़ी रहती। कभी-कभी गोलू की मम्मी उसे आवाज देती घर बुलाती और गोलू वहीं से जवाब देता आ रहा हूँ और वहीं बैठा रहता। सुनंदा का मन करता गोलू को वह अपने पास बुला ले। उसकी उदासी का कारण पूछे उसके साथ खूब बातें करें हँसे खिलखिलाए।
पांच साल हो गए सुनंदा की शादी को। बहुत मन होने के बाद भी उसकी गोद सूनी है और एक गोलू की माँ है कीर्ति। ईश्वर ने दो-दो बच्चों से झोली भरी है तो एक बच्चे गोलू की तरफ से उदासीन बनी हुई है। गोलू का छोटा भाई गप्पू अभी छह महीने का हुआ है और कीर्ति पूरे समय उसमें उलझी रहती है। सुनंदा कई बार कीर्ति की आवाज सुनती है जब वह गोलू को डांटते रहती है। कितनी जिद करते हो? इतने बड़े हो गए हो लेकिन जरा भी अक्ल नहीं है न जाने कब अक्ल आएगी? कभी-कभी गोलू के रोने चीखने की आवाज आती जिसे जोर की डांट या थप्पड़ से दबा दिया जाता। सुनंदा का दिल तड़प उठता। उसका मन होता कि वह गोलू को गले से लगा ले लेकिन मन मसोस कर रह जाती। कॉलोनी की महिलाएँ अपने बच्चों को सुनंदा से दूर ही रखती थीं। एक दो बार उसने अपने लिए बांझ शब्द का प्रयोग करते सुना तो उसका हौसला टूट गया।
उस दिन सुनंदा ने गोलू को पार्क में अकेले बैठे रोते देखा तो खुद को रोक नहीं पाई। मन तो उसका था कि गोलू को घर में बुला ले लेकिन लोगों का डर उसे यह करने नहीं दे रहा था। उसने एक पानी की बोतल बिस्किट के पैकेट और चॉकलेट लीं और एक डलिया में रखकर पार्क में आ गई। वह डलिया दोनों के बीच में रखकर गोलू के बगल में बेंच पर बैठ गई। गोलू कुछ देर बिना उसकी तरफ देखे बैठा रहा। आंसू उसके गालों पर बहते रहे। थोड़े इंतजार के बाद सुनंदा ने पानी की बोतल उसकी तरफ बढ़ाई। गोलू ने इनकार में सिर हिला दिया। थोड़ी देर बाद सुनंदा ने फिर बॉटल उसकी तरफ बढ़ाई। इस बार गोलू ने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरी एक बार सुनंदा की तरफ देखा और अपने नन्हें हाथों से बोतल थाम ली।
हम उधर पेड़ की छांव में बैठे? सुनंदा ने एक घने पेड़ की ओर इशारा करते हुए गोलू से पूछा। दरअसल धूप की गर्मी से बचने के साथ ही सुनंदा लोगों की नजरों से भी बचना चाहती थी। गोलू ने धीरे से सिर हिला दिया और उठ खड़ा हुआ। पेड़ के नीचे बैठते ही सुनंदा ने बिस्किट का पैकेट खोलकर गोलू की तरफ बढ़ा दिया उसने धीरे से एक बिस्किट ले लिया।
क्या हुआ था? गोलू ने सिर नीचा कर कुछ नहीं में हिला दिया।
कुछ तो हुआ है तुम रो क्यों रहे थे? सुनंदा ने मुलायमियत से पूछा।
गोलू चुप रहा सुनंदा ने दूसरा बिस्किट का पैकेट खोलकर उसे थमा दिया । मम्मी ने मारा? पूछा तो उसने अंदाज से था लेकिन गोलू का सिर हाँ में हिलते देख सिहर गई।
क्यों?
क्योंकि मैं बड़ा हो गया हूँ। अजीब सी रिक्तता थी गोलू के स्वर में।
यह क्या व्यवहार हो रहा है इसके साथ। क्या आठ साल का बच्चा बड़ा हो जाता है? सिर्फ इसलिए कि उसका छोटा भाई या बहन आ गया है। तुमने कुछ किया था?
गोलू ने सिर झुका लिया वह चुप ही रहा।
बोलो ना कुछ तो किया होगा? गोलू की माँ कीर्ति को दोष न देने की मंशा से सुनंदा ने पूछा तो गोलू मानो खुद में सिमट गया।
मैंने मम्मी से कहा था कि आपके हाथ से खाना खाना है। अपराध बोध सा था उसके स्वर में।
इसमें क्या गलत है हर छोटा बच्चा अपनी मम्मी के हाथ से खाना खाता है।
लेकिन मैं तो बड़ा हो गया हूँ। अब मम्मी मुझे नहीं नहलातीं न कपड़े पहनाती हैं। खाना भी नहीं खिलाती। अगर मैं कहता हूँ तो कहती हैं कि तुम बड़े हो गए हो। क्या मैं इतना बड़ा हो गया हूँ कि अब मम्मी मेरा कोई काम नहीं करेंगी? वह मुझे प्यार भी नहीं करेंगी? गोद में भी नहीं बिठाएंगी? गोलू का स्वर रुआँसा हो गया।
सुनंदा ने खींचकर उसे अपनी गोद में बिठा लिया और उसके चेहरे को चुंबनों से भर दिया। उसकी ममता द्रवित हो गई। कैसे समझाए वह इतने छोटे बच्चे को कि वह अभी भी इतना छोटा है कि उसे पूरा हक है अपनी मांँ की गोद में बैठने उसके हाथ से खाने पीने तैयार होने का। उस से बाल हठ करके मनवाने का। छोटा भाई आ जाने से वह बड़ा भाई बन गया है लेकिन बड़ा नहीं हो गया। सुनंदा देर तक उससे बतियाते रही उसे बहलाती रही उसकी उदास आंखों के साथ चेहरे पर हँसी निहारती रही और उसे समझाती रही कि मम्मी व्यस्त रहती हैं छोटा भाई बहुत छोटा है खुद से कुछ नहीं कर सकता इसलिए उसके सभी काम करते थक जाती हैं। सुनंदा सोचती रही कि इस बच्चे को तो मैं बहला दूंगी लेकिन इसकी मम्मी कीर्ति को कैसे समझाऊं कि बच्चे छोटे भाई बहन के पैदा हो जाने से बड़े नहीं हो जाते। बड़े होने के लिए उन्हें अपनी बाल्यावस्था पूरी जी कर आगे बढ़ना होता है। सुनंदा अभी भी सोच में है और गोलू समझ नहीं पा रहा है।
कविता वर्मा
शुक्रवार, 29 जुलाई 2022
अंतस की नदी
तीखी धूप की तपिश ने तन मन झुलसा दिया। कहीं एक पेड़ की छाँव भी नहीं कैसी दशा हो गई है मेरी ? क्या करूँ सिसक पड़ी थी मैं यह सोचकर। मैं कान्ह नदी मेरे विशाल विस्तार पर कचरे मल मूत्र के ढेर इतनी गंदगी कैसे छोड़ सकता है कोई किसी के दामन पर ? कैसे अपनी गंदगी दूसरों के घर आंगन में बहा सकता है इंसान ? इतनी बदबू कि सांस लेना मुश्किल। क्या करूँ कैसे समझाऊं इस मनुष्य को ?
किस तरह इठलाती थी खिलखिलाती थी मैं अपने बचपन में। ऊंचे नीचे रास्ते पत्थरों पर उछलती थिरकती मैं अपने आसपास लगे पेड़ों की झुकी हुई डालियों को उछलकर भिगोती उन पर बैठे पंछियों के मधुर गीत सुनती मंद मंद हवा में लहराती। तब यह पूरा अंचल मेरा घर आंगन था जिसमें मैं खेलती थी और अब इसे संकुचित करते-करते बस एक पतली धार बना दिया। कहीं-कहीं तो वह धार भी नहीं मेरे प्रवाह को रोक दिया गया है। कुछ दिन पहले मेरे किनारे इसे किनारे भी कैसे कहूँ यह प्लास्टिक काँच कचरा सड़े गले खाने का भी ढेर मात्र है लेकिन ना जाने क्यों वह युवती इस गंदगी को पार कर मेरे आंचल के बीच उस ऊंची चट्टान तक चली आई। बहुत आश्चर्य हुआ था मुझे सच कहो तो कांप गई थी मैं कि यह यहां क्या करने वाली है ?
लोग तो यहाँ तक हवन पूजन की राख फूल मुड़ी तुडी भगवान की फोटो टूटी-फूटी मूर्तियाँ डालने आते हैं लेकिन वह तो खाली हाथ थी फिर क्या अपनी विष्ठा ? छी जी घिना गया मेरा लेकिन वह आकर उस चट्टान पर बैठी रही।
उस समय सूरज अस्ताचल को था उसकी पीली किरणों में वह युवती मुरझाई सी लगी। बहुत कौतूहल था मुझे कि आखिर वह क्या करती है ? वह देर तक खामोश बैठी रही फिर खुद से ही बातें करने लगी। सब मुझे रोकते हैं हमेशा टोकते हैं क्या हुआ जो मैं बड़ी हो गई तो ? अभी कुछ साल पहले तक भी तो मैं वही लड़की थी घर आंगन में नाचती थी मोहल्ले के हर घर में जाती थी ओटलों और गलियों पर दौड़ती भागती थी। अचानक ऐसा क्या हो गया ? सब डाँटते हैं अगर मैं उछलूं कूदूँ। कहते हैं बाहर बहुत गंदगी है उससे बचने के लिए संयम से रहो। कौन सी गंदगी ? गुस्से के कारण उसका स्वर टूट रहा था।
असमंजस में थी मैं लेकिन देर तक उसकी बातें सुनने के बाद मुझे उसकी और खुद की व्यथा एक सी लगी। मैं भी तो तमाम गंदगी के बीच खुद में सिमट सिकुड़ गई हूँ। क्या कहूँ कैसे सांत्वना दूँ उसे ? कैसे समझाऊँ कि एक नदी और स्त्री का जीवन एक समान होता है ?
याद आते हैं मुझे वह दिन जब मेरी कल कल छल छल करती लहरों से गाँव की लड़कियाँ बहुएँ पानी भरने आती थीं। उनकी पीतल काँसी की गगरियों की आवाज उनकी चूड़ियों पायल की झंकार उनकी मीठी उन्मुक्त हंसी की फुहार मेरे अंतस को आल्हादित करती थी। उनकी ठिठोली भरी बातें और गीत घर परिवार के उनके दुख उनकी खुशी पीहर न जा पाने की कसक तो बहन के दुख से भरा आया मन और पति के प्यार व्यवहार की खट्टी मीठी बातें सभी तो मेरे किनारे इस घाट पर बैठकर करती थीं। मैं भी उनके सुख-दुख से भीगी कभी थमती कभी ठहरती और कभी हंसती हुई आगे बढ़ जाती।
उस दिन मेरे किनारे पर बहुत सारे लोगों की आवाजाही होने लगी।
बहुत सारी गाड़ियाँ आईं कई आदमी थे जो देर तक मुझे देखकर जाने क्या क्या कहते रहे। डर गई थी मैं और एक दिन मेरे पानी में बड़े-बड़े पाइप डाले गये किनारे पर बड़े बड़े बक्से लगे। मैं तो कुछ नहीं समझी थी नारियल फूटा तो इठलाई थी कि एक और देव स्थान मेरे किनारे बन गया। अहा कितनी खुशनसीब हूँ मैं कि देवता के चरण पखारूँगी। तभी घर्र घर्र की तेज आवाज से मेरे आंचल में पलने वाले जल जंतु घबराकर भागे। मुझे तो लगा मानो मेरे पास प्राण ही खींच लिए जा रहे हैं। किस से पूछती किससे समझती सब जा चुके थे। उस दिन से मेरे किनारे की रौनक खत्म हो गई। रुनझुन खिलखिलाहटें खत्म हो गईं। मैं रीतती जा रही थी लेकिन किस से कहती।
उस दिन लगभग अंधेरा ढले आया था वह। अकेला थका हुआ उदास। वह किनारे की उन सीढ़ियों पर बैठा था तब वहाँ इतनी गंदगी कहाँ थी लेकिन किनारे मुझसे दूर हो गए थे। अंधेरे में देर तक बड़बड़ाता रहा था वह और मैंने भी साँस रोक ली थी उसे सुनने को। कहाँ से लाऊं कैसे लाऊँ पैसा ? इनकी तो हवस ही खत्म नहीं होती जितना देते जाओ उतना कम होता है। पहले हजार कमाता था हजार में खर्च चलता था आज हलक में हाथ डालकर प्राण खींच डाल रहे हैं। अरे मुझ में मेरा कुछ बचने दोगे भी या नहीं ? मशीन समझा है क्या मुझे वह जोर से चिल्लाया था।
डर गई थी मैं यह मेरी व्यथा क्यों कह सुना रहा है ? यही तो किया तुमने मेरे साथ। पहले दो चार घड़े पानी में जाते थे अब तो मेरे प्राण ही खींच ले रहे हैं इन बड़े-बड़े पाइप से। घर्र घर्र करती यह मोटर है शायद किसी ने बताया था।
उस दिन समझी कि आदमी भी तो मुझ जैसे ही हैं। उनसे उनकी क्षमता से ज्यादा खींचने वाला परिवार धीरे-धीरे उन्हें खोखला कर देता है यह लोग समझते क्यों नहीं है ? इससे यही समझ पा रही हूँ कि हर व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष उसके अंदर एक नदी बहती है। उस नदी को बहने देना चाहिए उसका ध्यान रखना चाहिए। उस नदी को समाज की गंदगी और लालच से दूर रखा जाए तो वह बहती रहेगी निर्झर।
यह इंसान इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझता ? क्यों अपने और दूसरों के अंदर की नदी को बहने से रोकता है ? क्यों मुझे बहने से रोकता है ? क्यों नहीं बना रहने देता है प्रवाह जिसमें जीवन बहता है ? यह इंसान क्यों नहीं समझता है।
कविता वर्मा