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सोमवार, 19 सितंबर 2022

दौड़

 सुबह गहरी धुंध में लिपटी थी उसमें भीगे पेड़ ठिठुरे से खड़े थे। सूरज भी कोहरे की चादर में लिपटा मानों उजाला होने और धूप निकलने का इंतजार कर रहा था। सुबह के 8:00 बज रहे थे लेकिन लोग अभी भी घरों में दुबके थे। कच्ची सड़क पर इक्का-दुक्का साइकिल या बाइक सवार कोहरे की चादर से इस निस्तब्धता को चीर के गुजर जाते और उनके गुजरते ही सब कुछ मानों फिर जम जाता। मेघना रोज की तरह सुबह 6:00 बजे उठ गई थी। उस समय हवा में जमी धुंध अंधेरे को उजला दिखा रही थी। पक्षी भी पेड़ों के कोटर और घोंसलों में दुबके थे। मेघना ने खिड़की से पर्दा हटा कर उस चंपई अंधेरे को देखा और एक बार फिर बिस्तर में दुबकने का मन बना लिया । लेकिन बरसों की सुबह की सैर की आदत ने उसे उठने को मजबूर कर दिया। उसने केतली में पानी गर्म करके चाय बनाई फ्रेश होकर ट्रैक सूट पहना जूते मफलर टोपी जैकेट पहन कमरे से बाहर आ गई। 

बड़ा भयावह सा अनुभव था कोहरे के उजास को चीरती तो आगे अंधेरा मिलता। वह उस अंधेरे में आंखें गड़ाए दौड़ने की कोशिश कर रही थी लेकिन नहीं जानती थी कि पैर कहाँ पड रहे हैं। आगे सड़क पर गड्ढा है या पत्थर? उसका चेहरा टोपी मफलर कोहरे की पानी की बूंदों से भीगते जा रहे थे।चढ़ाई पर चलने के बावजूद वह शरीर में गर्मी के बजाय ठंड महसूस कर रही थी। ज्यादा देर नहीं दौड़ पाई मेघना और जल्दी ही वापस लौट आई। 
घर आकर गीले कपड़े कुर्सी पर फैला कर कुछ देर एक्सरसाइज की और फिर एक कप चाय बना कर खिड़की के पास कुर्सी लेकर बैठ गई। सुनसान सड़क पर एक जोड़ा हाथ में हाथ डाले लगभग एक दूसरे से लिपटे हुए धीमी चाल से चला जा रहा था। कुहासे के कारण सड़क का सुनसान होना दोनों को अतिरिक्त सुकून दे रहा था। मेघना के होठों पर मीठी मुस्कान तैर गई जो शीघ्र ही एक कड़वाहट में बदल गई। 
ऐसी सुबह प्रेम करने के लिए होती है शेखर का प्यार शुरू शुरू में कितना मधुर लगता था। निहाल हो जाती थी वह कोई इतना प्यार करता है उसे। इसी रास्ते पर मुलाकात हुई थी शेखर से वह अपनी कंपनी की तरफ से एक सर्वे के लिए आया था। छोटे हाइड्रोलिक प्रोजेक्ट लगाने के लिए  संभावना और उपयुक्त स्थान तलाशने। नीचे की ओर जाती इस सड़क के मुहाने के गेस्ट हाउस में ठहरा था। वह एक चमकीली सुबह थी मेघना अपनी पूरी दौड़ पूरी करके लौट रही थी और वह दौड़ शुरू ही कर रहा था। मुस्कान सी आई थी मेघना की चेहरे पर उसे देखकर जिसे उसने छुपाना चाहा पर छूप न सकी। लौटते समय उसे खिड़की पर देखकर शेखर ने हाथ हिलाया तो वह भी जवाब दिए बिना न रह सकी। साथ में सैर कॉफी बातों का सिलसिला कुछ ही दिनों में बेडरूम तक आ गया था। कितना चमत्कारिक लगता था शेखर बात-बात पर ठहाका लगा था उसे हँसाता उसे गुदगुदा ता। 
कम ही उम्र में मेघना से जिंदगी ने क्रूर मजाक किया था। 2 साल की त्रासदी शादी से छुटकारा पाकर वह वापस अपने घर लौट आई थी। साल भर के अंदर ही माता-पिता दोनों चले गए थे। बहुत सूनापन था उसकी जिंदगी में जिसमें शेखर बयार बनकर आया और उसे अपने साथ ले जाने की जिद पकड़ बैठा। इतनी आसानी से भरोसा नहीं करना चाहती थी वह। कुछ जानती ही कहाँ थी वह शेखर के बारे में। जो भी था सिर्फ ऊपरी था घर परिवार माता-पिता उसने तो यही कहा था कि अकेला है यायावर है वह मिल गई ठिकाना मिल गया। पूछा था उसने मोहन चाचा से जिंदगी का इतना बड़ा फैसला अकेले लेने से डरती थी। और उन्होंने आगाह भी किया था लेकिन वही नहीं समझ पाई। शेखर की बातों ने जादू कर दिया था उस पर। सोच ही नहीं पाई कि इन मीठी बातों के भीतर तल्ख सच्चाई भी हो सकती है। 
शेखर के साथ हो ली थी वह सुबह की पहली किरण के साथ उतरे थे वह बस से। उस सुबह पहली बार बरसों का दौड़ने का नियम टूटा था और फिर टूटता ही चला गया। जहाँ रुके थे वह घर नहीं था रेस्ट हाउस था। अकेले इंसान का क्या घर फिर आए दिन टूर पर रहता हूँ इसलिए रेस्ट हाउस में ही डेरा रहता है।  बहलाया था उसने और वह बहल गई कुछ आशंकित सी। कुछ दिनों साथ रहने के बाद दूसरा गेस्ट हाउस फिर शेखर का 8 दिन टूर पर जाना फोन पर छोटी सी बात। दबी आवाज जिसमें औपचारिकता ही ज्यादा थी। मेघना के मन में शक का कीड़ा कुल बुलाने लगा था बहुत झंझावातों से गुजरी थी वह। बहुत मजबूत थी शेखर के प्यार ने उसकी मजबूती को जिस तरह बढ़ाया था मन के शक में उसे कमजोर कर दिया। 
 गेस्ट हाउस की सुनसान अकेली रातों में मोहन चाचा की कही बातें याद आती बेटा मैदानों से भेड़िये पहाड़ों पर आते हैं और हमारे यहां की सुंदर सलोनी भोली भाली लड़कियों को उठा ले जाते हैं। इतनी जल्दी उन पर भरोसा मत करो। माता-पिता न सही कोई तो रिश्तेदार होगा उनकी फोटो नाम पता फोन नंबर कुछ तो होगा। कोई इतनी जल्दी इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकता है? लेकिन मेघना फैसला कर चुकी थी। वह चली आई थी घर बसाने लेकिन गेस्ट हाउस की  अजनबियत उसे मुंह चिढ़ा रही थी। 
उस दिन अचानक उसने शहर घूमने का फैसला कर लिया। वॉचमैन को कहकर टैक्सी बुलाई। वह कहता रहा साहब ने मना किया है वह नाराज होंगे मेरी नौकरी चली जाएगी। मेघना इस कैद से उकता चुकी थी। उसने पर्स उठा लिया  कि वह पैदल चली जाएगी। पांच सात किलोमीटर पहाड़ी लड़की के लिए ज्यादा नहीं होते।  शाम ढलने को थी सड़क और दुकानें रोशनी से जगमगा उठी थीं। वह उस मॉल में चली गई इसकी सजावट ने उसे आकर्षित किया था। दुकानें शोकेस में सजे कपड़े जूते रोशनी लोगों की चहल-पहल आवाजें  उसे जिंदा होने का एहसास करवा रहे थे। तभी एक आवाज ने उसका ध्यान खींचा। तमाम आवाजों को धता बताकर वह आवाज उस तक पहुंची थी। वह जानी पहचानी आवाज जिसे सुनकर वह सुध बुध खो देती थी। उसने पलटकर उस दिशा में देखा। आवाज़ का मालिक अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ सेल्फी लेने में मशगूल था। उसकी आंखों में प्यार था बेशुमार प्यार उनके लिए जिन्हें पता ही नहीं था कि वह उनसे धोखा कर रहा है। पागल सी हो गई वह तेजी से आगे बढ़ी लेकिन ठिठक गई। इस अनजान शहर में अजनबियों के बीच बच्चों के सामने उनके पिता को जलील करने की हिम्मत न जुटा सकी। उस औरत को धोखा देने का धिक्कार खुद को हुआ। उसने धीरे से मोबाइल निकाला उनकी फोटो खींची और टैक्सी कर वहाँ से चल दी। वापसी की टिकट लेकर सामान बांधा और अगली सुबह मोहन चाचा के घर चाबी लेने खड़ी थी। घर पहुंचते ही सबसे पहले उसने ट्रैक सूट पहना और इसी सड़क पर लंबी दौड़ लगाने चली गई । शेखर को फोटो भेज कर उसने नंबर ब्लॉक कर दिया। 
सुबह की दौड़ फिर शुरू कर दी इस प्रण के साथ कि इस क्रम को टूटने ना दूंगी।
कविता वर्मा

गुरुवार, 8 सितंबर 2022

पौने तीन मिनट

 पौने तीन मिनट 

चौराहे के समीप आते-आते वैभव ने सामने सिग्नल पर नज़र डाली मात्र पाँच सेकंड बचे थे उसे लाल होने में उसने बाइक की गति बढ़ा दी लेकिन जब वह स्टॉप लाइन से 50 मीटर दूर ही था सिग्नल लाल हो गया। वैभव ने गति कम करते हुए ब्रेक लगा दिए बाइक जोर से चीं की आवाज करते हुए रुक गई। एक खीज सी वैभव के दिमाग में उभरी फिर वह हेलमेट का ग्लास खोलकर आसपास देखने लगा। 
सुबह के 10:00 बजे थे चौराहा तीखी चमकीली धूप से सराबोर था। सिग्नल के तीन तरफ रुके ट्रैफिक की कतारें 50 से 100 मीटर तक फैली थीं। दोपहिया वाहन वाले धूप में रुकने से झुंझलाये हुए अपना हेलमेट उतार कर सिग्नल हरा होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कार सवार कार का एसी चलाये जहरीला धुआं अपने से कमतर हैसियत वाले बाइक और साइकिल सवारों पर छोड़कर मानों जता रहे थे कि तुम इसी लायक हो। कुछ पैदल चलने वाले आँख बंद कर इस पार से उस पार जा रहे थे उन्हें न लाल बत्ती की परवाह थी न हरी बत्ती की। उनके अचानक बीच में आने से गाड़ियों की गति कहीं धीमी होती कहीं थम जाती। बाइक वाले दाएं बाएं से निकल जाते और चार पहिया वाले मुँह बनाते भद्दी गाली देते और आगे बढ़ जाते। एक सिग्नल के खंबे के पास ट्रैफिक जवान निस्पृह सा खड़ा था वह न तो पैदल चलने वालों को रोक रहा था और न ही स्टॉप लाइन से आगे आकर खड़े या लेफ्ट टर्न रोक कर खड़े वाहन चालकों को। लेफ्ट मुड़ने वाले पीछे से तेज हॉर्न बजा रहे थे लेफ्ट टर्न रोक कर खड़े वाहन इंच दो इंच आगे बढ़ते और रुक जाते। आगे ट्रैफिक जवान का खौफ उन्हें सता रहा था न जाने उदासीन से दिखने वाले इस व्यक्ति का कर्तव्य बोध कब जाग जाए और कब वह गाड़ी साइड में लगवा कर टारगेट पूरा करने लगे। हालांकि गाड़ी साइड में लगवाने के लिए  साइड जैसी कोई जगह उस चौराहे पर नहीं थी। हर सिग्नल पर गाड़ियों के आसपास कुछ बच्चे भीख माँग रहे थे। वह अधिकतर कार के आसपास मंडराते उसके शीशे को थपथपाते उसमें से अंदर झांकते अपनी दयनीय सूरत दिखा कर कुछ पाने की उम्मीद कर रहे थे। बाइक और साइकिल वालों को उन्होंने भी कम हैसियत का समझ कर छोड़ दिया था। 
वैभव ने लगभग 40 सेकंड में चौराहे का यह जायजा ले लिया था। सिग्नल बदल गया था अब दूसरी सड़क से ट्रैफिक चालू हो गया था। अब गाड़ियाँ वैभव के सामने से गुजर रही थीं। चौराहा पार करने की हड़बड़ी उनमें साफ दिख रही थी। कुछ साइकिल वाले अब इस इंतजार से उकता कर थोड़े थोड़े आगे आते हुए स्टाॅप लाइन के तीन चार मीटर आगे तक आ चुके थे और सामने से आ रही गाड़ियों की गति को रोक रहे थे।  
तभी सामने की सड़क से एक बाईस पच्चीस साल की लड़की जिसने हरी पीली साड़ी पहनी थी दुबले पतले शरीर पर उसका बड़ा हुआ पेट बता रहा था कि वह माँ बनने वाली है सड़क पार करके वैभव की दिशा में बढ़ने लगी थी। तीखी धूप ने उसे बहुत परेशान कर दिया था या शायद वह बहुत दूर से बहुत देर से पैदल चल रही थी उसने साड़ी का पल्ला सिर पर लेकर सिर को धूप से बचाने का जतन किया। एक बार आंखें मिचमिचा कर आसमान की ओर ताका और फिर उसके कदम मानो सड़क से उखड़ गए। एक दो कदम आड़े तिरछे रखते वह आगे बढ़ी लेकिन तीसरे कदम पर खुद को न संभाल पाई और बेहोश होकर तपती सड़क पर गिर गई। वह वैभव से लगभग बीस पच्चीस मीटर दूर चौराहे के बीचो बीच सड़क पर गिरी थी। सड़क पार करने वाली गाड़ियाँ थोड़ी धीमी हुई और फिर उसके दाएं बाएं से गुजरने लगीं मानो अगर अभी सिग्नल पार न किया तो वह जिंदगी भर के लिए लाल होकर रह जाएगा और फिर वह कभी यह चौराहा पार करके अपने गंतव्य पर नहीं पहुंच पाएंगे। वैभव के सामने वाले सिग्नल के पास खड़े ट्रैफिक जवान ने अब तक उस औरत को सड़क पर गिरे हुए नहीं देखा था संभवतः वह अपने ही किन्हीं विचारों में खोया था शायद कोई पारिवारिक समस्या में या अपनी पोस्टिंग किसी और विभाग या चौराहे पर करवाने की योजना बनाने की जुगत में। 
अब वैभव के बाएँ तरफ से ट्रैफिक शुरू हो गया वह औरत सड़क के बीच बेसुध पड़ी हरी पीली घास का ढेर लग रही थी। उसकी साड़ी का रंग बिरंगापन गाड़ियों को उसे बचाकर उसके आसपास से निकलने का संकेत दे रहा था। ट्रैफिक जवान की नजर उस पर पड़ चुकी थी वह दौड़ कर उस तक आया और हाथ देकर सीटी बजाकर गाड़ियों को अगल-बगल से निकलने का इशारा करने लगा। वह किसी खाली ऑटो को देख रहा था लेकिन ऑटो वाले सड़क पर पड़ी उस औरत को देखते जवान को देखते तो कभी स्पीड कम करते कभी बढ़ाते किसी कार की आड़ लेते वहाँ से गुजर जाते। वैभव ने आसपास नजर दौड़ाई शायद कोई उस जवान या औरत की मदद करने आगे आए। उसने देखा आसपास बहुत सारे लोगों ने मोबाइल निकाल लिया था कोई फोटो ले रहा था तो कोई वीडियो बना रहा था। बाकी दो सिग्नल पर रुकी सड़कों पर भी कई लोग वीडियो बनाने में मशगूल थे। ट्रैफिक जवान ने झुककर उस औरत को हिलाया डुलाया वह सड़क पर पसर गई। ट्रैफिक अभी भी निर्बाध चल रहा था। सिग्नल पर रुके लोग उत्सुकता और चेहरे पर दया के भाव लाकर फोटो वीडियो लेने में मशगूल थे। कुछ बाइक सवार आपस में बात कर अपने समझदार होने का परिचय बगल में 30 सेकंड के लिए खड़े सवार को दे देने को बेताब थे। कुछ बंद कार में बैठे लोगों को घटना का ब्यौरा देकर पुण्य कमा रहे थे। कुछ गाड़ियों में महिलाएँ निर्लिप्त सी बैठी थीं उनके चेहरे पर एक संतुष्टि थी कि वे अकेले नहीं हैं उनके साथ कोई है जो मुसीबत में उनकी मदद कर सकता है और यह उनकी समझदारी है। उस पर पानी डालो गर्मी से बेहोश हो गई ऐसी हालत में अकेले नहीं निकलना चाहिए किसी को साथ लेकर आती जैसी फुसफुसाहटें हवा में तैर रही थीं। वैभव के पास पानी नहीं था लेकिन लगभग हर कार में पानी था कुछ बाइक सवार भी पानी रखे हुए थे लेकिन उतरकर जाने में सिग्नल हरा हो जाने और फिर लाल हो जाने पर अगले 2:45 मिनट के लिए फिर रुक जाने का डर उन्हें रोक रहा था। हर व्यक्ति दिल में चाह  रहा था कि कोई उस औरत को पानी पिला दे लेकिन वह कोई खुद न हो। 
सिपाही ने मोबाइल निकाला वह एंबुलेंस को फोन लगा रहा था। वह उस औरत को उठाने की कोशिश भी कर रहा था उसे डर था कि गर्म सड़क उसके शरीर पर फफोले ना बना दे। लेकिन उसे यह भी डर था कि न जाने किस एंगल से खींचे गए किसी फोटो या वीडियो में ऐसा कुछ आपत्तिजनक आ जाए कि वह मुसीबत में फँस जाए। वैभव उसकी बेबसी देख रहा था वह उस बेसुध पड़ी औरत के लिए भी चिंतित था। उसका उभरा पेट उसी के वजन से दब रहा था जो नुकसानदायक हो सकता था। उसने सामने देखा लाल सिग्नल बस हरा होने को था। वह सिग्नल लाल होते ही रुक गया था वह सबसे लंबे समय से सिग्नल पर रुका था अब उसे यहाँ और रुकना चाहिए या नहीं वह निश्चित नहीं कर पा रहा था। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ ही जाएगी वह रुक कर क्या करेगा? बाइक पर तो वह उसे ले जा नहीं सकता। उसके रुकने से कुछ नहीं होगा इतने लोग भी तो गुजरे कोई नहीं रुका फिर वही क्यों? कम से कम वह फोटो तो नहीं खींच रहा था उसने खुद को समझाया। वह इस इंतज़ार और उम्मीद में था कि कोई तो उसकी मदद करे  वह कितनी देर सिग्नल पर रुका रह सकता है। उसकी तरफ का लाल सिग्नल हरा हो गया था पीछे से कारों के कान फोडू हार्न उसमें बेचैनी पैदा करने लगे। उसे अब चौराहा पार कर लेना चाहिए। उसने हेलमेट का शीशा बंद किया बाइक में किक लगाया एक नजर अगल बगल से कट मारते चौराहा पार करती गाड़ियों को देखा ट्रैफिक जवान को देखा और बाइक आगे बढ़ाते हुए दाएं तरफ का टर्न सिग्नल दिया और बाइक उस जवान के पास ले जाकर ऐसे रोकी कि सड़क पर पड़ी वह औरत बाइक की छाँव में आ गई। उसने और जवान ने उस औरत को उठाकर सीधा किया और एंबुलेंस का इंतजार करने लगे। 
चौराहे पर सिग्नल बारी-बारी से लाल हरे हो रहे थे और वह अगले कई पौने तीन मिनट वहाँ रुकने का मन बना चुका था।
कविता वर्मा

बुधवार, 7 सितंबर 2022

कड़वी सच्चाई

 अनिल ऑफिस से घर आया तो देखा गली में लोगों की भीड़ लगी थी। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लोग झुंड बनाकर खड़े थे। धीमे धीमे स्वर में होने वाली बातचीत संयुक्त रूप से पर्याप्त ऊंची थी जिसे शोर तो नहीं पर आवाजें कहा जा सके। इन आवाजों में एक खौफ एक अफसोस था और था तनिक सा दुख जिसे महसूस कर अनिल सिहर गया। लोगों के झुंड लगभग हर घर के सामने थे जिससे यह तो पता चल रहा था कि कोई अनहोनी हुई है लेकिन किसके साथ किसके घर हुई है वह यह नहीं जान पा रहा था। वह धीरे-धीरे लोगों के चेहरे पढ़ने की कोशिश करते आगे बढ़ रहा था लेकिन गली में कई बार देखे उन अजनबी चेहरों से कुछ पढ़ नहीं पा रहा था। गली के मुहाने से अब वह काफी अंदर आ चुका था उसकी चाल आसपास खड़े लोगों को देखते काफी धीमी और अटपटी थी लेकिन वह अभी तक वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ था। 

उसके घर के बाहर ओटले पर चार पांच औरतों का जमावड़ा था जिनमें से एक उसकी पत्नी थी जो उसे देखकर तुरंत अंदर चली गई। बाकी औरतें भी थोड़ी देर चुप होकर उसके ओटले से थोड़ी दूर जाकर खड़ी हो गईं। अनिल अंदर पहुंचा जूते उतारकर पलंग पर बैठा कि पत्नी ने उसे पानी का गिलास थमाया। उसकी आंखों में उमड़ा प्रश्न मुखर था या पत्नी की उसे सब बताने की इच्छा ज्यादा प्रबल थी पता नहीं लेकिन वह गिलास का पानी खत्म होने का इंतजार न कर सकी। "मोहिनी भाभी के सुमित ने आत्महत्या कर ली"। यह खबर वज्रपात सी आई थी और पानी का आखरी घूंट उसके गले में अटक गया। जोर का ठसका लगा था उसे और मुँह से पानी खांसी के साथ फव्वारा बन बाहर आ गया। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गई जो यह जानकर भय से भर गईं कि 12वीं में फेल होने और कहीं कोई काम न मिलने के बाद से वह बहुत उदास था। घंटों कमरे में अकेला बैठा रहता था और आज सुबह वह कहीं बाहर गया था। वहाँ से आकर खुद को कमरे में बंद कर लिया और फंदा गले में डालकर पंखे से लटक गया। 
अनिल के भीतर बैचेनी फैल गई जिसे पत्नी से छुपाने और धोने के लिए वह बाथरूम में घुस गया। सुमित ने आत्महत्या कर ली वह फंदे से लटक गया शब्द उसके दिमाग पर हथौड़े से पड़ रहे थे। उसने चेहरे पर पानी के कई छपाके मारे उसकी सांस अभी भी संयत नहीं हुई थी। वह देर तक दोनों हथेलियों में तौलिया लिए गाल थामें खड़ा रहा। वह खुद को उस बात से परे होने का विश्वास दिलाना चाहता था जो खबर सुनते ही उसके दिमाग में कौंधी थी और जिस ने उसे भयभीत कर दिया था। 
बाथरूम के बाहर से पत्नी की आवाज आ रही थी जिसे शायद वह देर तक सुन नहीं पाया था इसलिए अब दरवाजा पीट कर वह उसे पुकार रही थी। उसने जल्दी से तौलिये से सिर मुँह पोंछा और खुद को संयत सा दिखाता बाहर आ गया। चाय का कप थामें भी वह सोच में गुम रहा और फिर एक घूंट में उसे खत्म कर पैरों में चप्पल डालकर अभी आया कहते वह घर के बाहर आ गया। पड़ोसी हरिहर भाई को देख कर कुछ देर उनके पास रुक कर उसने तफसील से पूरी जानकारी ली जिसमें मोहिनी भाभी द्वारा सबसे पहले लाश को देखने उसे नीचे उतारने में सब पड़ोसियों का सहयोग पुलिस को खबर देने और पोस्टमार्टम होने के बाद अंतिम संस्कार होने की खबर शामिल थी। हरिहर भाई से विदा लेकर अनिल गली के बाहर निकल गया। बाहर चाय की दुकान पर खासी भीड़ थी वह वहाँ से आगे बढ़ सड़क पार कर उजाड़ पार्क में जाकर बैठ गया। वह लगभग स्तब्ध था दिमाग में सिर्फ एक ही बात गूंज रही थी सुमित ने आत्महत्या कर ली आज सुबह वह बाहर गया था। आज सुबह वह बाहर गया था इस बात ने उसे आत्महत्या की खबर से ज्यादा विचलित किया था।
अनिल के दिमाग में पिछले दिन की स्मृति कौंध गई। फर्स्ट क्लास से एमकॉम पास प्राइवेट ऑफिस में क्लर्क अनिल काम की अधिकता मेहनत के अनुरूप तनख्वाह न मिलने और मालिक के अपमानित करने वाले रवैए से झुंझलाया हुआ था। कल फिर उसे एक छोटी सी बात पर बुरी तरह झिड़का गया था और उस अपमान को वह रात भर हजम करने की कोशिश में करवटें बदलता रहा था। आज सुबह उसका ऑफिस जाने का मन कतई नहीं था लेकिन यह नौकरी उसकी मजबूरी थी और दूसरी नौकरी मिलना आसान भी नहीं था। 
घर से निकलकर वह नुक्कड़ की चाय की दुकान पर रुक गया था। बस यूँ ही चाय पीकर ऑफिस जाने की हिम्मत बटोरने तभी सुमित वहाँ आया था और बेंच पर उसके बगल में बैठ गया था। अनिल ने उसकी अनदेखी कर उपेक्षा ही कर दी थी लेकिन सुमित ने उससे पूछा "अनिल भाई मुझे कहीं नौकरी मिल जाएगी क्या? कोई भी छोटी-मोटी नौकरी चलेगी कहीं पियून या ऑफिस बॉय या फिर कुछ और।" 
अनिल में घूर कर सुमित को देखा था कहांँ तक पढ़े हो तुम उस ने तल्खी से पूछा था। सकुचाया था सुमित जवाब देते फिर धीरे से बोला "भैया बारहवीं में फेल हो गया हूँ इस साल। पढ़ाई मेरे बस की नहीं है इसलिए सोच रहा हूँ कोई काम ही शुरु कर लूँ कोई छोटी-मोटी नौकरी।" उसकी बात पूरी होने से पहले ही अनिल ने लगभग चिढ़ते हुए कहा था "शहर में लाखों एम ए बी ए पास टल्ले खाते घूम रहे हैं उन्हें चपरासी की नौकरी भी नहीं मिल रही तुम्हें 12वीं फेल को कौन नौकरी देगा?" 
सुमित का चेहरा उतर गया उसे देखकर अनिल को अनोखा सा सुख मिला था। एक दिन पहले हुए अपमान की जलन सुमित का उतरा चेहरा देखकर कुछ कम सी होती महसूस हुई। शायद नौकरी लगने के बाद पहली बार उसने किसी से ऐसी तल्खी से बात की थी वरना तो वह हमेशा दूसरों की झिड़कियाँ ही सुनता रहा था। अनिल ने चाय की दुकान पर काम करते 12 साल के उस लड़के की ओर इशारा करके कहा था "इसे देख रहा है इसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा होगा इसलिए इसे यहाँ गिलास धोने का काम मिल गया। तू तो 11वीं तक पढ़ गया है अब तो तू इस काम के लायक भी नहीं रहा। पढ़ाई न करता तो शायद तसले ईट धोने के काम का रह पाता।" ज्यों-ज्यों अनिल बोलता गया त्यों त्यों सुमित का चेहरा निराशा और अपमान से काला पड़ता गया और अनिल एक सुकून सा महसूस करता रहा। 
इस देश में या तो अनपढ़ों के लिए काम है या खूब पढ़े लिखे अंग्रेजी में गिटपिट करने वालों के लिए।" तुझ जैसे" दरअसल अनिल कहना चाहता था हम जैसे लेकिन अपने अपमान की आग बुझाने के सुख में उसने आधा सच ही कहा। "तुझे जैसे अध पढे लोगों के लिए इस देश में न कोई काम है और न सम्मान। ऐसे लोग सिर्फ दुत्कारे जाते हैं घर में भी बाहर भी।" अनिल ने चाय का खाली गिलास रखा पैसे दिए और कनखियों से सुमित के उतरे चेहरे को देखते सुकून की साँस लेते ऑफिस के लिए चल पड़ा। 
उसके बाद ही सुमित ने घर जाकर आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या नहीं की मैंने उसे उकसाया मैंने उसकी हत्या की। बेचैनी से अनिल के माथे पर पसीना छलछला गया। वह उठ खड़ा हुआ उसका अपराध बोध उसे धिक्कारने लगा। वह फिर बेंच पर बैठ गया। नहीं नहीं मैंने सुमित से ऐसा कुछ नहीं कहा मैंने तो उसे सिर्फ सच्चाई बताई कड़वी सच्चाई। उसने खुद को समझाया। 
मोबाइल की घंटी ने उसकी तंद्रा भंग की। पत्नी का फोन था वह चिंतित थी अनिल को घर जाना था पर वह अभी भी निश्चित नहीं कर पाया था क्या वह हत्यारा है?
कविता वर्मा

रविवार, 4 सितंबर 2022

उल्टी गंगा

 विभा ने इधर-उधर देखा कमरे से बाहर झांका। सासू माँ बाहर के कमरे में रामनामी ओढ़े तखत पर बैठी माला जप रही थीं। कामवाली रसोई के पीछे आंगन में बर्तन धो रही थी। बड़ी बेटी स्कूल जा चुकी थी और छोटा बेटा यूनिफार्म पहनकर टीवी पर कार्टून देखते नाश्ता कर रहा था। इस समय उसके मनपसंद कार्टून के सामने से उसे भगवान भी नहीं उठा सकते थे। सासु माँ की कमर वैसे ही अकड़ी रहती उन्हें एक स्थिति से दूसरी में आने में कम से कम 5 मिनट लगते और साथ ही उस में हुए दर्द के कारण निकली कराहें सड़क तक सुनाई देती। पतिदेव बाथरूम में थे विभा ने एक बार फिर कान लगाकर सुना पानी गिरने की आवाज आ रही थी मतलब अभी कम से कम पांच सात मिनट तो वे बाथरूम से नहीं निकलने वाले थे । फिर भी उसने ऐतिहातन दरवाजा थोड़ा अटका दिया और दरवाजे के पीछे खूंटी पर टंगी दिनेश की पेंट की जेब में रखा बटुआ निकाला। उसने जल्दी से बटुआ खोला यह उसका प्रिय काम था कि सबकी नजर बचाकर दिनेश के बटुए में से पैसे निकाल लेना। हालांकि यह काम जितना आसान लगता था उतना था नहीं। पहले तो ऐसी घड़ी तलाश करना जब कि सब अपने काम में खासे व्यस्त हो जिससे कि कोई उसे ऐसा करते न देखे। बच्चे तो बिल्कुल ही नहीं जिन्हें वह बचपन से चोरी करना पाप है का पाठ सिखा चुकी है और कभी चोरी से चवन्नी चुराने या लड्डू निकाल कर खा लेने पर कान उमेठकर उठक बैठक करवा चुकी है। सासु माँ को भी नहीं जिनकी रामायण मंडली के आए दिन आ धमकने पर वह खर्च का रोना रो चुकी है या ननंद के लिए 500 की जगह 400 की साड़ी लेने के लिए रोनी सूरत बना कर अपनी मजबूरी बता चुकी है। दिनेश तो कतई नहीं जो कम खर्च में घर चलाने के उसके कौशल की तारीफ करते नहीं अघाता और शादी के इतने साल बाद भी उसके लिए एक अदद मंगलसूत्र न दिला पाने के अपराध बोध में उसकी हर हां में हां मिलाता है। यह अलग बात है कि विभा अब तक बटुए से चुपके से निकाले रुपए से एक मंगलसूत्र और एक जोड़ी झुमके बनवा चुकी है। 

दूसरी यह देखना कि बटुए में कितने रुपए हैं उनमें 500 के नोट कितने हैं सौ पचास दस और बीस के कितने। उसके अनुसार किस मूल्य के कितने नोट निकालना है जिससे दिनेश को रुपये निकाले जाने का आभास न हो। विभा ने बचपन में मुर्गी और नाई वाली कविता खूब रट डाली थी। एक बार उसने प्रतियोगिता में यही कविता खूब अभिनय के साथ सुनाकर पहला इनाम भी पाया था। इस तरह वह कविता उसकी रगों में बसी थी फिर वह मुर्गी को हलाल करने की भूल कैसे कर सकती थी? यूँ तो बटुआ निकाल कर रखना बस 30 सेकंड का काम था लेकिन उसके लिए अनुकूल माहौल देखना हिसाब किताब से ठीक ठीक नोट निकालना ही नहीं बटुए में छोड़ना भी खासा समय ले लेते थे । उसकी अगली योजना हाथ के कंगन उसे ज्यादा लेने को उकसा थी तो बेवजह का शक न होने देने की सावधानी आगाह करते हुए हाथ में आए एक दो नोट वापस रखने को समझाती। 
विभा ने बटुआ निकाला उसे खोला ही था कि उसमें से एक पर्चा सा गिरा उसे नजरअंदाज कर उसने देखा बटुए में 500  का एक सौ के चार पचास के दो और तीन चार दस बीस के नोट थे। उसकी अनुभवी बुद्धि ने तुरंत हिसाब लगाया और झट से एक एक सौ पचास दस और 20 का नोट निकालकर बटुआ बंद कर वापस जेब में रख दिया। उसने नोट मोड़ कर तुरंत ब्लाउज में रखें और बाहर निकलने को पलटी कि उसका पैर बटुए से गिरे पुर्जे पर पड़ा। धत्त तेरी की मैं तो भूल ही गई थी। उसने तुरंत नींबू पीले रंग का वह पुर्जा उठाया और उसे रखने ही जा रही थी कि हल्की सी खुशबू ने उसके नसों में प्रवेश कर उसके दिमाग के तंतुओं को झिंझोड़ दिया। एक साथ मानों शक की सैकड़ों चीटियां उस पर रेंग गईं। उसने जल्दी से उस पुर्जे को खोल कर देखा उसमें आड़े टेढ़े शब्दों में 4 लाइनें लिखी थीं। विभा का दिल धक से हो गया । 18 साल से उसके इर्द-गिर्द घूमने वाला उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाला ऑफिस से घर, घर से ऑफिस जाने वाला सीधे-साधे मिडिल क्लास आदमी की जेब से ऐसा कोई पुर्जा निकलना सोच से परे था। उसकी रगों में खून का दौरा बढ़ गया गाल दहकने लगे कान की लवें झुलसने लगीं। उसने अटकती सांसों के साथ उसे पढ़ना शुरू किया। 
दिनेश तुम्हें घर खर्च के लिए छोटे-छोटे उधार देते अब कर्जा 40000 हो गया है। अगर महीने भर में तुमने पैसे वापस ना लौटाए तो तुम्हारी खैर नहीं। अपनी मौत के जिम्मेदार तुम खुद होगे। 
नीचे उड़ती चिड़िया से दस्तखत थे जो पढ़ने समझने का वक्त नहीं था। विभा के हाथों में वह कागज थरथर कांपने लगा। आंखों के आगे किसी सड़क पर लहूलुहान पड़ा दिनेश का शरीर और उससे लिपट कर रोते बच्चे घूम गए। एक पल को बिना बिंदी सिंदूर सूना माथा और फर्श पर पड़ा वहीं मंगलसूत्र घूम गया जो उसने बड़ी समझदारी से पैसे इकट्ठे कर चोरी छिपे बनवाया था। दिनेश ने कभी बताया नहीं कि उसे घर खर्च के लिए उधार लेना पड़ता है। वह मुझे इतना प्यार करते हैं कि ऐसी कोई बात बता कर मुझे परेशान नहीं करना चाहते होंगे और एक वह है छी छी। अपने मंगलसूत्र झुमके कंगन के लिए दिनेश के बटुए से रुपया निकालती रही। विभा को खुद पर बेतरह गुस्सा और दिनेश पर प्यार आ गया जो जल्दी ही पलट गया अब उसे दिनेश पर गुस्सा आया कि वह उससे अपनी परेशानियां छुपाता क्यों है? अब वह क्या करें इस तरह दिनेश की जान खतरे में नहीं डाल सकती उसकी आंखें भर आईं। 
उसने ब्लाउज में से रुपए निकाले उन्हें सीधा किया और पुर्जे के साथ बटुए में रख दिया। बटुआ पैंट की जेब में रखकर पलटी ही थी कि एक विचार ने उसे ठिठका दिया। इस तरह तो दिनेश को इतनी बड़ी रकम चुकाने में साल भर से ज्यादा लग जाएगा। इस बीच अगर वह गुंडा... विभा की रीढ़ में ठंडी लहर दौड़ गई। वह झट से अलमारी की तरफ बढ़ी। कपड़ों की तह के बीच से एक बटुआ निकालकर खोला। उसका अभ्यस्त दिमाग फिर तेजी से हिसाब किताब में जुट गया। उसने एक एक सौ पचास 10 और 20 का नोट निकाला एक बार दरवाजे के बाहर झांका। बाहर यथास्थिति थी बाथरूम में पानी गिरने की आवाज अब भी आ रही थी। उसने रुपयों को ठीक से जमाया पीला पुर्जा रखा बटुआ जेब में रखकर राहत की सांस लेती गीली आंखों को झपक कर सुखाती रसोई की और बढ़ गई। अब विभा रोज ही सुबह सबकी टोह लेती है। सबको व्यस्त देख दिनेश की जेब से बटुआ निकालती है उसमें रखे नोट देखकर हिसाब लगाती है और अलमारी से नोट निकालकर उसमें मिला देती है। 
आजकल दिनेश ऑफिस जाने के पहले एक बार पर्स देखता है उसमे बढ़ गए रुपये देखता है होंठों के अंदर ही अंदर मुस्कुराता है और सीटी बजाते हुए लापरवाही से चलते विभा को फ्लाइंग किस देते स्कूटर स्टार्ट करता है। विभा भीगी आंखों से उसे जाते देख उसके सकुशल घर वापस आने की प्रार्थना करती है।
कविता वर्मा

शनिवार, 27 अगस्त 2022

पगड़ी

 घर में मेहमानों की आवाजाही बढ़ गई है। कार्यक्रम की रूपरेखा बन रही है कौन जाएगा कैसे जाएगा क्या करना है कैसे करना है जैसी चर्चाएं जोरों पर हैं । चाचा ससुर उनके बेटे देवर दोनों बेटे दामाद सभी समूह में बैठकर जोरदार तरीके से शानदार कार्यक्रम की योजना बनाते और फिर एक एक से अकेले अलग-अलग खर्च पानी की चिंता में दूसरे के दिये सुझाव की खिल्ली उड़ा कर उसे खारिज करते। समूह में दमदारी से सब करेंगे अच्छे से करेंगे के दावे खुद की जेब में हाथ डालने के नाम पर फुस्स हो जाते । 

सुनीति कभी उसी कमरे के कोने में कभी दूसरे कमरे में बैठी सब सुन रही थी लेकिन बोल कुछ नहीं रही थी। जैसे वह भी जानती थी कि सबके सामने शान दिखाने के लिए किए जा रहे दावे कितने खोखले हैं ।

आज सात दिन हो गए सुनीति के पति मनोहर की मृत्यु हुए। ढाई साल कैंसर से जूझते लड़ते आखिर वो जिंदगी की लड़ाई हार गए। बड़ा बेटा भोपाल में नौकरी करता है। शादी के बाद तो उसने मानो घर से संपर्क ही खत्म कर लिया । महीने में एक बार फोन पर हाल-चाल पूछ लेता छह महीने में एकाध दिन के लिए आता। वह ऊपरी बातचीत के अलावा कभी खर्चे पैसे कौड़ी की व्यवस्था के बारे में बात ही नहीं करता। कभी कभी सुनीति को बड़ा गुस्सा आता और वह मनोहर के चुप रहने के इशारे के बावजूद भी बोल पड़ती कि बीमारी के इलाज में आने जाने में बहुत खर्च हो रहा है। वह बड़ी बेजारी से जवाब देता हारी बीमारी में तो खर्च होता ही है इंसान को इन सब के मद में पैसा बचा कर रखना चाहिए। फिर तुरंत बात बदल देता। 

छोटा बेटा अपनी प्राइवेट नौकरी से छुट्टी लेकर हर बार पिता को कभी बस से कभी टैक्सी से इंदौर ले जाता। यूँ तो उनके गाँव से इंदौर की दूरी 80 किलोमीटर है लेकिन बाइक पर इतनी दूर बैठकर जाने की मनोहर की हालत नहीं रही थी।

 बाहर छोटे और बड़े बेटे की बहस की आवाजें आ रही थीं। सुनीति ने अपने विचारों से बाहर निकल उस पर ध्यान लगाया। दोनों दसवें दिन घाट और तेरहवीं के आयोजन में होने वाले खर्च को लेकर बहस कर रहे थे। बड़े का कहना था पापा ने सारी जिंदगी जो कमाया वह कहाँ गया? छोटा डॉक्टर की फीस दवाई आने-जाने के खर्च का हिसाब बता रहा था जिस पर बड़े को कतई विश्वास न था। तूने बीमारी के नाम पर पापा को खूब चुना लगाया है खूब पैसा बनाया है। यह बड़े का स्वर था। 

भैया गुस्से में कहा संबोधन अपनी बात कहते कहते रुआँसा हो गया। बात और बढ़ती तब तक सुनीति कमरे से बाहर आ गई। बड़ा कुछ कहने को हुआ सुनीति ने हाथ उठाकर उसे चुप रहने का इशारा किया। 

दसवीं का घाट घर कुटुंब का कार्यक्रम था जो जैसे तैसे निपट गया। शायद बहू ने समझाया या चाचा जी ने बड़े ने सब खर्च किया। 

तेरहवीं के कार्यक्रम की रूपरेखा के लिए सुनीति खुद सबके बीच आ बैठी। पति की बीमारी में अकेले जूझते और रिश्तेदारों के दिखावे को समझते अब वह अंदर से मजबूत हो गई थी। इस अकेलेपन से अकेले जूझने की हिम्मत उसमें आ गई थी। उसे याद है जब मनोहर को लेकर इंदौर के अस्पताल गई थी और डॉक्टरों की हड़ताल हो गई थी। उसने बेटे से देवर को फोन लगवाया था। देवर का ससुराल इंदौर में ही है वह चाहती थी कि एक-दो दिन इंदौर में रहने की व्यवस्था हो जाए ताकि इस जर्जर हालत में मनोहर को बार-बार सफर न करना पड़े। देवर ने कहा कि मैं उनसे बात करके आपको बताता हूँ और फिर दिन भर न उनका फोन आया न लगा। वही देवर आज तेरहवीं में दो मिठाई पूरी कचोरी दाल चावल कढ़ी दो सब्जी का ब्यौरा तैयार कर बनवाने पर जोर दे रहे थे। 

भैया मेरे पास तो अब पैसा बचा नहीं जो था सब इनके पापा की बीमारी में लग गया। आपके भी सगे भाई थे वह आपकी पढ़ाई लिखाई शादी ब्याह में खर्च किया है उन्होंने। आप कितना खर्च कर सकते हो उसके अनुसार ही भोज तैयार करवाना। बड़े ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए हैं। उसकी इस बात से पल भर को सब सनाका खा गए। बड़े बेटे ने आंखें तरेर कर उन्हें देखा। चाचा ससुर के लड़के ने बात संभाली देखो अब सभी समाज में मृत्यु भोज बंद हो रहा है। हमें भी मिसाल कायम करना चाहिए। समाज के पांच पंच बुला कर 11 ब्राह्मणों को भोजन करवा दें और बाहर समधियाने के जो मेहमान आएंगे उनके खाने की व्यवस्था कर देंगे। उनके लिए सब्जी पूरी कढी चावल और एक मीठा बहुत है। क्यों भैया ठीक है न? ज्यादा वजन भी नहीं पड़ेगा। समाज के लोग पगड़ी में शामिल होंगे पंजीरी का प्रसाद लेकर विदा होंगे। कमरे में जाते उनके होंठ वितृष्णा से टेढ़े हो गए। 

आज सुबह से गहमागहमी थी। बेटे देवर चाचा ससुर उनके बेटों के ससुराल वाले दूर पास की ननदें बेटियाँ सभी आ चुकी थीं। सब तैयार होकर बैठे पगड़ी रस्म में दिए जाने वाले टाॅवेल शॉल एक दूसरे को दिखा रहीं थीं। पंडित आ गए पगड़ी की रस्म के लिए सिर मुंडाए चाचा ससुर देवर उनके बेटे और मनोहर के दोनों बेटे बैठे थे। समाज के पंच पगड़ी पहनाने खड़े हुए तभी सुनीति उठ खड़ी हुई। 

ठहरिये सबकी नजरें उसकी तरफ उठीं। उनमें आश्चर्य था विद्रूप था और उत्सुकता थी। सुनीति हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। आज मैं पंचों के सामने समाज से कुछ कहना चाहती हूँ। 

सबसे बुजुर्ग पंच ने कहा कहो बहू क्या कहना चाहती हो? सुनीति ने कहना शुरू किया समाज में रीति रिवाज नेग दस्तूर इसलिए बनाए गए हैं ताकि लोगों में आस्था हर्ष उल्लास और जिम्मेदारी का भाव बना रहे। पगड़ी की रस्म भी इसी जिम्मेदारी का एहसास कराने के लिए की जाती है। लेकिन दुखद है कि जीते जी रिश्ते की कोई जिम्मेदारी न निभाने वाले किसी के मरने के बाद पगड़ी पहनने बैठते हैं। वे भी जानते हैं कि पगड़ी सिर्फ पहनने के लिए दिखावे के लिए पहनना है जबकि मृतक परिवार की कोई जिम्मेदारी वे कभी नहीं उठाने वाले हैं। मैं आज यहाँ पगड़ी पहनने बैठे सभी लोगों से पूछना चाहती हूँ आप में से कौन भविष्य में मेरी दुख बीमारी बेटे की शादी की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है? मैं अनुरोध करूंगी कि जो इस जिम्मेदारी को उठाना नहीं चाहते मेरे पति के नाम की पगड़ी ना पहने। फिर अपने बड़े बेटे को संबोधित करते सुनीति ने पूछा बेटा क्या तुम मेरी जिम्मेदारी उठा पाओगे अगर नहीं तो तुम भी उठ सकते हो। इतना सुनना था कि बड़ा बेटा सिर पर रखी टोपी पटक कर खड़ा हो गया और पैर पटकता वहाँ से चला गया। उसके पीछे पीछे धीरे से बाकी लोग भी खिसक गए। अंत में बचा रहा सिर्फ छोटा बेटा। सुनीति ने कहा अब आप पगड़ी की रस्म शुरू करें। 

सबके उठ जाने से उनके रिश्तेदारों में खुसरूपुर शुरू हो गई बुजुर्ग पंच ने कहा कि आज समाज में नई नीति शुरू हुई है अब से पगड़ी सिर्फ जिम्मेदारी लेने वाले को पहनाई जाएगी। आप सभी से अनुरोध है कि पगड़ी के बाद भोजन करके जाएंँ। सुनीति की आंखों में आँसू झिलमिला गए।

कविता वर्मा 

शनिवार, 13 अगस्त 2022

बड़ा नहीं हुआ गोलू

 सुनंदा ने खिड़की से झांक कर देखा गोलू पार्क में अकेला उदास बैठा था। यह रोज का क्रम बन गया था गोलू रोज ही स्कूल से आकर पार्क में बैठा रहता। वह न पार्क के फूलों पेड़ों को देखता और न ही चहचहाते पंछी उसे आकर्षित कर पाते। न ही तीखी धूप की चुभन उसे विचलित करती और न ही कठोर बेंच की रुक्षता उसे डिगाती। स्कूल की थकावट कभी-कभी उसे वहीं बेंच पर लेट जाने को मजबूर करती और गर्म हवा के थपेड़ों से झुलसा उसका क्लांत चेहरा सुनंदा को द्रवित करता।

 अभी खेलने का समय नहीं हुआ था इसलिए पार्क में और कोई छोटे बच्चे नहीं थे। शायद सभी अपने स्कूल का होमवर्क कर रहे हों या शायद खाना खा कर आराम कर रहे हों। आजकल गोलू स्कूल से आकर बैग पटकता है कपड़े बदलकर यहां वहां फेंकता है और पार्क में आ जाता है। उसकी मम्मी उससे खाने का कहती है तब वह थोड़ी देर देखता रहता और कभी कुछ खाता कभी बिना कुछ खाए ही बाहर निकल जाता। 

सुनंदा भी कभी-कभी तब तक खिड़की पर उसके साथ रहती जब तक कि उसके दोस्त खेलने नहीं आ जाते। आठ साल के उस नन्हे बच्चे का इस तरह अकेले पार्क में बैठे रहना उसकी सुरक्षा के लिए चिंता पैदा करता इसलिए भी सुनंदा वहाँ खड़ी रहती। कभी-कभी गोलू की मम्मी उसे आवाज देती घर बुलाती और गोलू वहीं से जवाब देता आ रहा हूँ और वहीं बैठा रहता। सुनंदा का मन करता गोलू को वह अपने पास बुला ले। उसकी उदासी का कारण पूछे उसके साथ खूब बातें करें हँसे खिलखिलाए। 

पांच साल हो गए सुनंदा की शादी को। बहुत मन होने के बाद भी उसकी गोद सूनी है और एक गोलू की माँ है कीर्ति। ईश्वर ने दो-दो बच्चों से झोली भरी है तो एक बच्चे गोलू की तरफ से उदासीन बनी हुई है। गोलू का छोटा भाई गप्पू अभी छह महीने का हुआ है और कीर्ति पूरे समय उसमें उलझी रहती है। सुनंदा कई बार कीर्ति की आवाज सुनती है जब वह गोलू को डांटते रहती है। कितनी जिद करते हो? इतने बड़े हो गए हो लेकिन जरा भी अक्ल नहीं है न जाने कब अक्ल आएगी? कभी-कभी गोलू के रोने चीखने की आवाज आती जिसे जोर की डांट या थप्पड़ से दबा दिया जाता। सुनंदा का दिल तड़प उठता। उसका मन होता कि वह गोलू को गले से लगा ले लेकिन मन मसोस कर रह जाती। कॉलोनी की महिलाएँ अपने बच्चों को सुनंदा से दूर ही रखती थीं। एक दो बार उसने अपने लिए बांझ शब्द का प्रयोग करते सुना तो उसका हौसला टूट गया। 

उस दिन सुनंदा ने गोलू को पार्क में अकेले बैठे रोते देखा तो खुद को रोक नहीं पाई। मन तो उसका था कि गोलू को घर में बुला ले लेकिन लोगों का डर उसे यह करने नहीं दे रहा था। उसने एक पानी की बोतल बिस्किट के पैकेट और चॉकलेट लीं और एक डलिया में रखकर पार्क में आ गई। वह डलिया दोनों के बीच में रखकर गोलू के बगल में बेंच पर बैठ गई। गोलू कुछ देर बिना उसकी तरफ देखे बैठा रहा। आंसू उसके गालों पर बहते रहे। थोड़े इंतजार के बाद सुनंदा ने पानी की बोतल उसकी तरफ बढ़ाई। गोलू ने इनकार में सिर हिला दिया। थोड़ी देर बाद सुनंदा ने फिर बॉटल उसकी तरफ बढ़ाई। इस बार गोलू ने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरी एक बार सुनंदा की तरफ देखा और अपने नन्हें हाथों से बोतल थाम ली। 

हम उधर पेड़ की छांव में बैठे? सुनंदा ने एक घने पेड़ की ओर इशारा करते हुए गोलू से पूछा। दरअसल धूप की गर्मी से बचने के साथ ही सुनंदा लोगों की नजरों से भी बचना चाहती थी। गोलू ने धीरे से सिर हिला दिया और उठ खड़ा हुआ। पेड़ के नीचे बैठते ही सुनंदा ने बिस्किट का पैकेट खोलकर गोलू की तरफ बढ़ा दिया उसने धीरे से एक बिस्किट ले लिया। 

क्या हुआ था? गोलू ने सिर नीचा कर कुछ नहीं में हिला दिया। 

कुछ तो हुआ है तुम रो क्यों रहे थे? सुनंदा ने मुलायमियत से पूछा। 

गोलू चुप रहा सुनंदा ने दूसरा बिस्किट का पैकेट खोलकर उसे थमा दिया । मम्मी ने मारा? पूछा तो उसने अंदाज से था लेकिन गोलू का सिर हाँ में हिलते देख सिहर गई। 

क्यों? 

क्योंकि मैं बड़ा हो गया हूँ। अजीब सी रिक्तता थी गोलू के स्वर में। 

यह क्या व्यवहार हो रहा है इसके साथ। क्या आठ साल का बच्चा बड़ा हो जाता है? सिर्फ इसलिए कि उसका छोटा भाई या बहन आ गया है। तुमने कुछ किया था? 

गोलू ने सिर झुका लिया वह चुप ही रहा। 

बोलो ना कुछ तो किया होगा? गोलू की माँ कीर्ति को दोष न देने की मंशा से सुनंदा ने पूछा तो गोलू मानो खुद में सिमट गया। 

मैंने मम्मी से कहा था कि आपके हाथ से खाना खाना है। अपराध बोध सा था उसके स्वर में। 

इसमें क्या गलत है हर छोटा बच्चा अपनी मम्मी के हाथ से खाना खाता है। 

लेकिन मैं तो बड़ा हो गया हूँ। अब मम्मी मुझे नहीं नहलातीं न कपड़े पहनाती हैं। खाना भी नहीं खिलाती। अगर मैं कहता हूँ तो कहती हैं कि तुम बड़े हो गए हो। क्या मैं इतना बड़ा हो गया हूँ कि अब मम्मी मेरा कोई काम नहीं करेंगी? वह मुझे प्यार भी नहीं करेंगी? गोद में भी नहीं बिठाएंगी? गोलू का स्वर रुआँसा हो गया। 

सुनंदा ने खींचकर उसे अपनी गोद में बिठा लिया और उसके चेहरे को चुंबनों से भर दिया। उसकी ममता द्रवित हो गई। कैसे समझाए वह इतने छोटे बच्चे को कि वह अभी भी इतना छोटा है कि उसे पूरा हक है अपनी मांँ की गोद में बैठने उसके हाथ से खाने पीने तैयार होने का। उस से बाल हठ करके मनवाने का। छोटा भाई आ जाने से वह बड़ा भाई बन गया है लेकिन बड़ा नहीं हो गया। सुनंदा देर तक उससे बतियाते रही उसे बहलाती रही उसकी उदास आंखों के साथ चेहरे पर हँसी निहारती रही और उसे समझाती रही कि मम्मी व्यस्त रहती हैं छोटा भाई बहुत छोटा है खुद से कुछ नहीं कर सकता इसलिए उसके सभी काम करते थक जाती हैं। सुनंदा सोचती रही कि इस बच्चे को तो मैं बहला दूंगी लेकिन इसकी मम्मी कीर्ति को कैसे समझाऊं कि बच्चे छोटे भाई बहन के पैदा हो जाने से बड़े नहीं हो जाते। बड़े होने के लिए उन्हें अपनी बाल्यावस्था पूरी जी कर आगे बढ़ना होता है। सुनंदा अभी भी सोच में है और गोलू समझ नहीं पा रहा है।

कविता वर्मा 

शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

अंतस की नदी

 तीखी धूप की तपिश ने तन मन झुलसा दिया। कहीं एक पेड़ की छाँव भी नहीं कैसी दशा हो गई है मेरी ? क्या करूँ सिसक पड़ी थी मैं यह सोचकर। मैं कान्ह नदी मेरे विशाल विस्तार पर कचरे मल मूत्र के ढेर इतनी गंदगी कैसे छोड़ सकता है कोई किसी के दामन पर ? कैसे अपनी गंदगी दूसरों के घर आंगन में बहा सकता है इंसान ? इतनी बदबू कि सांस लेना मुश्किल। क्या करूँ कैसे समझाऊं इस मनुष्य को ? 

किस तरह इठलाती थी खिलखिलाती थी मैं अपने बचपन में। ऊंचे नीचे रास्ते पत्थरों पर उछलती थिरकती मैं अपने आसपास लगे पेड़ों की झुकी हुई डालियों को उछलकर भिगोती उन पर बैठे पंछियों के मधुर गीत सुनती मंद मंद हवा में लहराती। तब यह पूरा अंचल मेरा घर आंगन था जिसमें मैं खेलती थी और अब इसे संकुचित करते-करते बस एक पतली धार बना दिया। कहीं-कहीं तो वह धार भी नहीं मेरे प्रवाह को रोक दिया गया है। कुछ दिन पहले मेरे किनारे इसे किनारे भी कैसे कहूँ यह प्लास्टिक काँच कचरा सड़े गले खाने का भी ढेर मात्र है लेकिन ना जाने क्यों वह युवती इस गंदगी को पार कर मेरे आंचल के बीच उस ऊंची चट्टान तक चली आई। बहुत आश्चर्य हुआ था मुझे सच कहो तो कांप गई थी मैं कि यह यहां क्या करने वाली है ?

लोग तो यहाँ तक हवन पूजन की राख फूल मुड़ी तुडी भगवान की फोटो टूटी-फूटी मूर्तियाँ डालने आते हैं लेकिन वह तो खाली हाथ थी फिर क्या अपनी विष्ठा ? छी जी घिना गया मेरा लेकिन वह आकर उस चट्टान पर बैठी रही। 

उस समय सूरज अस्ताचल को था उसकी पीली किरणों में वह युवती मुरझाई सी लगी। बहुत कौतूहल था मुझे कि आखिर वह क्या करती है ? वह देर तक खामोश बैठी रही फिर खुद से ही बातें करने लगी। सब मुझे रोकते हैं हमेशा टोकते हैं क्या हुआ जो मैं बड़ी हो गई तो ? अभी कुछ साल पहले तक भी तो मैं वही लड़की थी घर आंगन में नाचती थी मोहल्ले के हर घर में जाती थी ओटलों और गलियों पर दौड़ती भागती थी। अचानक ऐसा क्या हो गया ? सब डाँटते हैं अगर मैं उछलूं कूदूँ। कहते हैं बाहर बहुत गंदगी है उससे बचने के लिए संयम से रहो। कौन सी गंदगी ? गुस्से के कारण उसका स्वर टूट रहा था। 

असमंजस में थी मैं लेकिन देर तक उसकी बातें सुनने के बाद मुझे उसकी और खुद की व्यथा एक सी लगी। मैं भी तो तमाम गंदगी के बीच खुद में सिमट सिकुड़ गई हूँ। क्या कहूँ कैसे सांत्वना दूँ उसे ? कैसे समझाऊँ कि एक नदी और स्त्री का जीवन एक समान होता है ? 

याद आते हैं मुझे वह दिन जब मेरी कल कल छल छल करती लहरों से गाँव की लड़कियाँ बहुएँ पानी भरने आती थीं। उनकी पीतल काँसी की गगरियों की आवाज उनकी चूड़ियों पायल की झंकार उनकी मीठी उन्मुक्त हंसी की फुहार मेरे अंतस को आल्हादित करती थी। उनकी ठिठोली भरी बातें और गीत घर परिवार के उनके दुख उनकी खुशी पीहर न जा पाने की कसक तो बहन के दुख से भरा आया मन और पति के प्यार व्यवहार की खट्टी मीठी बातें सभी तो मेरे किनारे इस घाट पर बैठकर करती थीं। मैं भी उनके सुख-दुख से भीगी कभी थमती कभी ठहरती और कभी हंसती हुई आगे बढ़ जाती। 

उस दिन मेरे किनारे पर बहुत सारे लोगों की आवाजाही होने लगी।

बहुत सारी गाड़ियाँ आईं कई आदमी थे जो देर तक मुझे देखकर जाने क्या क्या कहते रहे। डर गई थी मैं और एक दिन मेरे पानी में बड़े-बड़े पाइप डाले गये किनारे पर बड़े बड़े बक्से लगे। मैं तो कुछ नहीं समझी थी नारियल फूटा तो इठलाई थी कि एक और देव स्थान मेरे किनारे बन गया। अहा कितनी खुशनसीब हूँ मैं कि देवता के चरण पखारूँगी। तभी घर्र घर्र की तेज आवाज से मेरे आंचल में पलने वाले जल जंतु घबराकर भागे। मुझे तो लगा मानो मेरे पास प्राण ही खींच लिए जा रहे हैं। किस से पूछती किससे समझती सब जा चुके थे। उस दिन से मेरे किनारे की रौनक खत्म हो गई। रुनझुन खिलखिलाहटें खत्म हो गईं। मैं रीतती जा रही थी लेकिन किस से कहती। 

उस दिन लगभग अंधेरा ढले आया था वह। अकेला थका हुआ उदास। वह किनारे की उन सीढ़ियों पर बैठा था तब वहाँ इतनी गंदगी कहाँ थी लेकिन किनारे मुझसे दूर हो गए थे। अंधेरे में देर तक बड़बड़ाता रहा था वह और मैंने भी साँस रोक ली थी उसे सुनने को। कहाँ से लाऊं कैसे लाऊँ पैसा ? इनकी तो हवस ही खत्म नहीं होती जितना देते जाओ उतना कम होता है। पहले हजार कमाता था हजार में खर्च चलता था आज हलक में हाथ डालकर प्राण खींच डाल रहे हैं। अरे मुझ में मेरा कुछ बचने दोगे भी या नहीं ? मशीन समझा है क्या मुझे वह जोर से चिल्लाया था।

डर गई थी मैं यह मेरी व्यथा क्यों कह सुना रहा है ? यही तो किया तुमने मेरे साथ। पहले दो चार घड़े पानी में जाते थे अब तो मेरे प्राण ही खींच ले रहे हैं इन बड़े-बड़े पाइप से। घर्र घर्र करती यह मोटर है शायद किसी ने बताया था। 

उस दिन समझी कि आदमी भी तो मुझ जैसे ही हैं। उनसे उनकी क्षमता से ज्यादा खींचने वाला परिवार धीरे-धीरे उन्हें खोखला कर देता है यह लोग समझते क्यों नहीं है ? इससे यही समझ पा रही हूँ कि हर व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष उसके अंदर एक नदी बहती है। उस नदी को बहने देना चाहिए उसका ध्यान रखना चाहिए। उस नदी को समाज की गंदगी और लालच से दूर रखा जाए तो वह बहती रहेगी निर्झर। 

यह इंसान इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझता ? क्यों अपने और दूसरों के अंदर की नदी को बहने से रोकता है ? क्यों मुझे बहने से रोकता है ? क्यों नहीं बना रहने देता है प्रवाह जिसमें जीवन बहता है ? यह इंसान क्यों नहीं समझता है।

कविता वर्मा