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सोमवार, 26 सितंबर 2022

दरख्त

 स्टेशन पर बेचैनी से चहल कदमी करते विनय ने 2 मिनट में न जाने कितनी बार घड़ी देख ली। वह बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहा था। इस इंतजार में बेचैनी थी तो एक डर भी था। डर था कि कहीं कोई जान पहचान वाला उसे देख न ले और देखकर घर पर बाबूजी को खबर न कर दे। वैसे तो आधी रात के 2:00 बजे इसकी उम्मीद कम ही थी लेकिन फिर भी डर तो था ही। विनय ने जानबूझकर यह समय और यह ट्रेन चुनी थी। दिन के समय स्टेशन की चहल-पहल में कोई न कोई जानने वाला मिल ही जाता और नहीं तो स्टेशन के स्टाफ में से कोई बाबूजी को खबर कर देता। सिग्नल हरा हो चुका था विनय ने जेब में टिकट चेक किया पर्स मोबाइल देखा और अपनी अटैची और लैपटॉप बैग को एक नजर देखा। ट्रेन का इंजन धड़ धड़ाता उसके सामने से गुजर गया। ट्रेन की स्पीड कम होते होती भी आधी से ज्यादा ट्रेन उसके सामने से गुजर गई। ए.सी कोच पीछे था उसने लगभग दौड़ लगा दी। डिब्बे में चढ़कर व्यवस्थित भी नहीं हो पाया था कि ट्रेन चल दी राहत की सांस ली विनय ने। ऊपर की बर्थ पर बिस्तर लगाकर लेट कर उसने आँखें बंद कर लीं। 

नींद की जगह विनय की पिछली जिंदगी रील की तरह चलने लगी। शहर के सबसे रसूखदार परिवार का छोटा बेटा विनय दादा ठाकुर विश्वेश्वर सिंह और पिता बशेश्वर सिंह का लाडला उनकी आशाओं का केंद्र बिंदु। परदादा बड़े जागीरदार रहे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक, दादा ने अपनी फैक्ट्रियाँ लगाई जिन्हें पिता ने संभाला और अब बड़ा भाई संभाल रहा है। 

बचपन में दोनों भाई बग्घी में बैठकर स्कूल जाते थे। एक सेवादार क्लास से उनका बैग लाकर बग्घी में रखता। विनय का बड़ा मन करता कि वह भी दूसरे बच्चों की तरह बैग झुलाते चीखते चिल्लाते बातें करते खेलते घर जाए लेकिन ठाकुर परिवार के बेटे ऐसा कैसे कर सकते हैं? बड़ा भाई विजय और विनय बड़ी हसरत से बच्चों को बग्घी में बैठे मुड़ मुड़कर देखते और मुँह लटका कर घर लौटते। घर पर नौकरों की जमात जूते मोजे कपड़े उतारने से लेकर मुँह हाथ धुलाने पोंछने को तैयार खड़ी रहती। दोनों भाई स्कूल के बाद कस्बे के एकमात्र क्लब में क्रिकेट सीखने जाते थे जहाँ उनकी ही तरह धनाढ्य परिवार के बच्चे होते थे। 

नीचे की बर्थ पर से कोई उठकर बाथरूम गया विनय ने करवट बदली। बाबूजी की इच्छा थी कि विनय इंजीनियर बने ताकि वह फैक्ट्रियाँ ठीक से संभाल सके। विजय का मन 11 वीं के बाद ही पढ़ाई से उचट गया था। वह तीन बार की कोशिश में भी इंजीनियरिंग में प्रवेश नहीं पा सका था। निराश दादाजी ने स्कूल के हेड मास्टर को घर बुलवाकर आगे की उसकी पढ़ाई की दिशा तय करने बाबत जानकारी ली और विजय को बीकॉम में एडमिशन दिलवाया। आखिर को फैक्ट्री का हिसाब किताब देखने समझने वाला भी तो कोई चाहिए। विजय कसमसा कर रह गया वह कह हीन हीं पाया कि वह पूरी दुनिया घूमना चाहता है पहाड़ों पर चढ़ना चाहता है समुद्र की लहरों पर सवारी करना चाहता है। परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते उस पर उम्मीदों का इतना दबाव था कि वह अपनी इच्छाओं को सम्मान से सिर उठाने देने की हिम्मत ही न कर पाया। 

गाड़ी धीमे होते होते रुक गई शायद कोई बड़ा स्टेशन था। बाहर से चाय कॉफी वालों की आवाजें आ रही थीं। सभी लोग गहरी नींद में थे। कुछ लोगों के खर्राटे डब्बे में गूंज रहे थे। विनय की आँखों में नींद नहीं थी। वह ठीक तो कर रहा है न? उसने खुद से पूछा जवाब सकारात्मक तो न था लेकिन इसके सिवाय चारा ही क्या था? उसने खुद से पूछा। ट्रेन चल दी थी विनय ने बैग से बोतल निकाल कर पानी पिया और लेट गया। 

जब वह दसवीं में था तब उसे शौक लगा था फोटोग्राफी का। बाबूजी शहर से कैमरा लेकर आए थे। सब की नजर बचाकर वह कैमरा ले जाकर जाता और कभी डूबते सूरज की तालाब की लहरों की अकेले उदास खड़े पेड़ की सिर पर लकड़ियाँ लेकर जाती आदिवासी औरतों की फोटो खींचता। दादाजी उससे बहुत प्यार से अपनी इच्छा बताते कि वह चाहते हैं घर में एक इंजीनियर हो और वह सुनकर उदास हो जाता। वह भी दादाजी से कम प्यार नहीं करता था उनके विराट व्यक्तित्व के सामने खुद की लघुता का एहसास होता था उसे। होता भी क्यों नहीं उसने तो बाबूजी को भी उनके सामने बौना ही देखा। सदैव उनकी आज्ञा को सिर माथे रखते। कभी-कभी विनय सोचता क्या कभी बाबूजी की अपनी कोई राय नहीं होती? कभी कभी उसे महसूस होता कि बाबूजी को दादाजी की बात पसंद नहीं आ रही है क्षणांश को उनके चेहरे पर एक हल्की सी लकीर उभरती और गुम हो जाती। कभी उनकी कोई बात नहीं टालते। ज्यों-ज्यों विनय बड़ा हो रहा था सम्मान के इस रवैए पर उसकी असंतुष्टि बढ़ती जाती और दादाजी की उम्र और रुतबे के अनुपात में 'जी दादा जी' कहकर बात समाप्त करने की आदत भी। 

दादाजी की इच्छा थी उसने गणित विषय लिया उनकी इच्छा थी उसने इंजीनियरिंग में दाख़िला लिया। उनको खुशी नहीं होती इसलिए उसने फोटोग्राफी का शौक छोड़ दिया। कॉलेज केंपस इंटरव्यू में उसे दिल्ली में नौकरी मिली थी। उसने खुशख़बरी देने के लिए घर पर फोन किया फोन बाबू जी ने उठाया। खबर सुनकर उनके मुँह से निकली बधाई बीच में ही अटक गई पीछे से दादाजी की भारी आवाज़ सुनाई दी "अब ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता दूसरों की चाकरी करेगा इतने बुरे दिन न आए हैं अभी। सात पुश्तें बैठकर खाएँ इतना जोड़ कर रखा है मैंने। उससे कहो डिग्री होते ही घर चला आए।" 

अपनी काबिलियत पर गर्व करने का मौका ही नहीं मिला उसे। अपनी कमाई से कुछ करने का ख़्वाब देखते ही चकनाचूर हो गया। उसकी आँखों में आँसू आ गए दोस्तों के साथ पार्टी करने को टाल कर वह एक सुनसान सड़क किनारे घंटों बैठा रहा आँसू बहाता रहा। 

घर आकर पहली बार उसने बाबूजी से मन की बात कही। बताया था उन्हें कि अव्वल तो उसे इंजीनियरिंग करना ही नहीं था, कर ली तो अपने दम पर कुछ करना है। जिंदगी भर ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता कहलाने के बजाय अपनी पहचान बनाना है। 

"वह परिवार के वटवृक्ष हैं उनके व्यक्तित्व और स्नेह की छाँव है इसलिए हम इतने सुकून से हैं। कोई चिंता नहीं कोई तकलीफ़ नहीं।" 

"मैं अपनी जिंदगी की तकलीफें खुद उठाना चाहता हूँ। अपनी चिंता खुद करना चाहता हूँ। मैं खुद एक मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ।" 

"तुम्हारे दादा जी की इच्छा का सम्मान करना हमारा फर्ज़ है। "

" और हमारी इच्छा का? उसका सम्मान हम कब करेंगे बाबूजी?" बाबूजी की आँखों में आँखें डाल कर पूछा था उसने और उन्होंने नज़रें झुका ली थीं। 

बरगद के नीचे घास भी नहीं पनपती बाबूजी और मैं तो मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ। उसने मन में सोच लिया था और बिना किसी को बताए बेंगलुरु की एक कंपनी में नौकरी का आवेदन करके वीडियो इंटरव्यू देकर आज वह चुपचाप घर छोड़ आया था। इस संकल्प के साथ कि एक दिन मजबूत दरख़्त बनकर लौटेगा।

कविता वर्मा 

सोमवार, 19 सितंबर 2022

दौड़

 सुबह गहरी धुंध में लिपटी थी उसमें भीगे पेड़ ठिठुरे से खड़े थे। सूरज भी कोहरे की चादर में लिपटा मानों उजाला होने और धूप निकलने का इंतजार कर रहा था। सुबह के 8:00 बज रहे थे लेकिन लोग अभी भी घरों में दुबके थे। कच्ची सड़क पर इक्का-दुक्का साइकिल या बाइक सवार कोहरे की चादर से इस निस्तब्धता को चीर के गुजर जाते और उनके गुजरते ही सब कुछ मानों फिर जम जाता। मेघना रोज की तरह सुबह 6:00 बजे उठ गई थी। उस समय हवा में जमी धुंध अंधेरे को उजला दिखा रही थी। पक्षी भी पेड़ों के कोटर और घोंसलों में दुबके थे। मेघना ने खिड़की से पर्दा हटा कर उस चंपई अंधेरे को देखा और एक बार फिर बिस्तर में दुबकने का मन बना लिया । लेकिन बरसों की सुबह की सैर की आदत ने उसे उठने को मजबूर कर दिया। उसने केतली में पानी गर्म करके चाय बनाई फ्रेश होकर ट्रैक सूट पहना जूते मफलर टोपी जैकेट पहन कमरे से बाहर आ गई। 

बड़ा भयावह सा अनुभव था कोहरे के उजास को चीरती तो आगे अंधेरा मिलता। वह उस अंधेरे में आंखें गड़ाए दौड़ने की कोशिश कर रही थी लेकिन नहीं जानती थी कि पैर कहाँ पड रहे हैं। आगे सड़क पर गड्ढा है या पत्थर? उसका चेहरा टोपी मफलर कोहरे की पानी की बूंदों से भीगते जा रहे थे।चढ़ाई पर चलने के बावजूद वह शरीर में गर्मी के बजाय ठंड महसूस कर रही थी। ज्यादा देर नहीं दौड़ पाई मेघना और जल्दी ही वापस लौट आई। 
घर आकर गीले कपड़े कुर्सी पर फैला कर कुछ देर एक्सरसाइज की और फिर एक कप चाय बना कर खिड़की के पास कुर्सी लेकर बैठ गई। सुनसान सड़क पर एक जोड़ा हाथ में हाथ डाले लगभग एक दूसरे से लिपटे हुए धीमी चाल से चला जा रहा था। कुहासे के कारण सड़क का सुनसान होना दोनों को अतिरिक्त सुकून दे रहा था। मेघना के होठों पर मीठी मुस्कान तैर गई जो शीघ्र ही एक कड़वाहट में बदल गई। 
ऐसी सुबह प्रेम करने के लिए होती है शेखर का प्यार शुरू शुरू में कितना मधुर लगता था। निहाल हो जाती थी वह कोई इतना प्यार करता है उसे। इसी रास्ते पर मुलाकात हुई थी शेखर से वह अपनी कंपनी की तरफ से एक सर्वे के लिए आया था। छोटे हाइड्रोलिक प्रोजेक्ट लगाने के लिए  संभावना और उपयुक्त स्थान तलाशने। नीचे की ओर जाती इस सड़क के मुहाने के गेस्ट हाउस में ठहरा था। वह एक चमकीली सुबह थी मेघना अपनी पूरी दौड़ पूरी करके लौट रही थी और वह दौड़ शुरू ही कर रहा था। मुस्कान सी आई थी मेघना की चेहरे पर उसे देखकर जिसे उसने छुपाना चाहा पर छूप न सकी। लौटते समय उसे खिड़की पर देखकर शेखर ने हाथ हिलाया तो वह भी जवाब दिए बिना न रह सकी। साथ में सैर कॉफी बातों का सिलसिला कुछ ही दिनों में बेडरूम तक आ गया था। कितना चमत्कारिक लगता था शेखर बात-बात पर ठहाका लगा था उसे हँसाता उसे गुदगुदा ता। 
कम ही उम्र में मेघना से जिंदगी ने क्रूर मजाक किया था। 2 साल की त्रासदी शादी से छुटकारा पाकर वह वापस अपने घर लौट आई थी। साल भर के अंदर ही माता-पिता दोनों चले गए थे। बहुत सूनापन था उसकी जिंदगी में जिसमें शेखर बयार बनकर आया और उसे अपने साथ ले जाने की जिद पकड़ बैठा। इतनी आसानी से भरोसा नहीं करना चाहती थी वह। कुछ जानती ही कहाँ थी वह शेखर के बारे में। जो भी था सिर्फ ऊपरी था घर परिवार माता-पिता उसने तो यही कहा था कि अकेला है यायावर है वह मिल गई ठिकाना मिल गया। पूछा था उसने मोहन चाचा से जिंदगी का इतना बड़ा फैसला अकेले लेने से डरती थी। और उन्होंने आगाह भी किया था लेकिन वही नहीं समझ पाई। शेखर की बातों ने जादू कर दिया था उस पर। सोच ही नहीं पाई कि इन मीठी बातों के भीतर तल्ख सच्चाई भी हो सकती है। 
शेखर के साथ हो ली थी वह सुबह की पहली किरण के साथ उतरे थे वह बस से। उस सुबह पहली बार बरसों का दौड़ने का नियम टूटा था और फिर टूटता ही चला गया। जहाँ रुके थे वह घर नहीं था रेस्ट हाउस था। अकेले इंसान का क्या घर फिर आए दिन टूर पर रहता हूँ इसलिए रेस्ट हाउस में ही डेरा रहता है।  बहलाया था उसने और वह बहल गई कुछ आशंकित सी। कुछ दिनों साथ रहने के बाद दूसरा गेस्ट हाउस फिर शेखर का 8 दिन टूर पर जाना फोन पर छोटी सी बात। दबी आवाज जिसमें औपचारिकता ही ज्यादा थी। मेघना के मन में शक का कीड़ा कुल बुलाने लगा था बहुत झंझावातों से गुजरी थी वह। बहुत मजबूत थी शेखर के प्यार ने उसकी मजबूती को जिस तरह बढ़ाया था मन के शक में उसे कमजोर कर दिया। 
 गेस्ट हाउस की सुनसान अकेली रातों में मोहन चाचा की कही बातें याद आती बेटा मैदानों से भेड़िये पहाड़ों पर आते हैं और हमारे यहां की सुंदर सलोनी भोली भाली लड़कियों को उठा ले जाते हैं। इतनी जल्दी उन पर भरोसा मत करो। माता-पिता न सही कोई तो रिश्तेदार होगा उनकी फोटो नाम पता फोन नंबर कुछ तो होगा। कोई इतनी जल्दी इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकता है? लेकिन मेघना फैसला कर चुकी थी। वह चली आई थी घर बसाने लेकिन गेस्ट हाउस की  अजनबियत उसे मुंह चिढ़ा रही थी। 
उस दिन अचानक उसने शहर घूमने का फैसला कर लिया। वॉचमैन को कहकर टैक्सी बुलाई। वह कहता रहा साहब ने मना किया है वह नाराज होंगे मेरी नौकरी चली जाएगी। मेघना इस कैद से उकता चुकी थी। उसने पर्स उठा लिया  कि वह पैदल चली जाएगी। पांच सात किलोमीटर पहाड़ी लड़की के लिए ज्यादा नहीं होते।  शाम ढलने को थी सड़क और दुकानें रोशनी से जगमगा उठी थीं। वह उस मॉल में चली गई इसकी सजावट ने उसे आकर्षित किया था। दुकानें शोकेस में सजे कपड़े जूते रोशनी लोगों की चहल-पहल आवाजें  उसे जिंदा होने का एहसास करवा रहे थे। तभी एक आवाज ने उसका ध्यान खींचा। तमाम आवाजों को धता बताकर वह आवाज उस तक पहुंची थी। वह जानी पहचानी आवाज जिसे सुनकर वह सुध बुध खो देती थी। उसने पलटकर उस दिशा में देखा। आवाज़ का मालिक अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ सेल्फी लेने में मशगूल था। उसकी आंखों में प्यार था बेशुमार प्यार उनके लिए जिन्हें पता ही नहीं था कि वह उनसे धोखा कर रहा है। पागल सी हो गई वह तेजी से आगे बढ़ी लेकिन ठिठक गई। इस अनजान शहर में अजनबियों के बीच बच्चों के सामने उनके पिता को जलील करने की हिम्मत न जुटा सकी। उस औरत को धोखा देने का धिक्कार खुद को हुआ। उसने धीरे से मोबाइल निकाला उनकी फोटो खींची और टैक्सी कर वहाँ से चल दी। वापसी की टिकट लेकर सामान बांधा और अगली सुबह मोहन चाचा के घर चाबी लेने खड़ी थी। घर पहुंचते ही सबसे पहले उसने ट्रैक सूट पहना और इसी सड़क पर लंबी दौड़ लगाने चली गई । शेखर को फोटो भेज कर उसने नंबर ब्लॉक कर दिया। 
सुबह की दौड़ फिर शुरू कर दी इस प्रण के साथ कि इस क्रम को टूटने ना दूंगी।
कविता वर्मा

गुरुवार, 8 सितंबर 2022

पौने तीन मिनट

 पौने तीन मिनट 

चौराहे के समीप आते-आते वैभव ने सामने सिग्नल पर नज़र डाली मात्र पाँच सेकंड बचे थे उसे लाल होने में उसने बाइक की गति बढ़ा दी लेकिन जब वह स्टॉप लाइन से 50 मीटर दूर ही था सिग्नल लाल हो गया। वैभव ने गति कम करते हुए ब्रेक लगा दिए बाइक जोर से चीं की आवाज करते हुए रुक गई। एक खीज सी वैभव के दिमाग में उभरी फिर वह हेलमेट का ग्लास खोलकर आसपास देखने लगा। 
सुबह के 10:00 बजे थे चौराहा तीखी चमकीली धूप से सराबोर था। सिग्नल के तीन तरफ रुके ट्रैफिक की कतारें 50 से 100 मीटर तक फैली थीं। दोपहिया वाहन वाले धूप में रुकने से झुंझलाये हुए अपना हेलमेट उतार कर सिग्नल हरा होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कार सवार कार का एसी चलाये जहरीला धुआं अपने से कमतर हैसियत वाले बाइक और साइकिल सवारों पर छोड़कर मानों जता रहे थे कि तुम इसी लायक हो। कुछ पैदल चलने वाले आँख बंद कर इस पार से उस पार जा रहे थे उन्हें न लाल बत्ती की परवाह थी न हरी बत्ती की। उनके अचानक बीच में आने से गाड़ियों की गति कहीं धीमी होती कहीं थम जाती। बाइक वाले दाएं बाएं से निकल जाते और चार पहिया वाले मुँह बनाते भद्दी गाली देते और आगे बढ़ जाते। एक सिग्नल के खंबे के पास ट्रैफिक जवान निस्पृह सा खड़ा था वह न तो पैदल चलने वालों को रोक रहा था और न ही स्टॉप लाइन से आगे आकर खड़े या लेफ्ट टर्न रोक कर खड़े वाहन चालकों को। लेफ्ट मुड़ने वाले पीछे से तेज हॉर्न बजा रहे थे लेफ्ट टर्न रोक कर खड़े वाहन इंच दो इंच आगे बढ़ते और रुक जाते। आगे ट्रैफिक जवान का खौफ उन्हें सता रहा था न जाने उदासीन से दिखने वाले इस व्यक्ति का कर्तव्य बोध कब जाग जाए और कब वह गाड़ी साइड में लगवा कर टारगेट पूरा करने लगे। हालांकि गाड़ी साइड में लगवाने के लिए  साइड जैसी कोई जगह उस चौराहे पर नहीं थी। हर सिग्नल पर गाड़ियों के आसपास कुछ बच्चे भीख माँग रहे थे। वह अधिकतर कार के आसपास मंडराते उसके शीशे को थपथपाते उसमें से अंदर झांकते अपनी दयनीय सूरत दिखा कर कुछ पाने की उम्मीद कर रहे थे। बाइक और साइकिल वालों को उन्होंने भी कम हैसियत का समझ कर छोड़ दिया था। 
वैभव ने लगभग 40 सेकंड में चौराहे का यह जायजा ले लिया था। सिग्नल बदल गया था अब दूसरी सड़क से ट्रैफिक चालू हो गया था। अब गाड़ियाँ वैभव के सामने से गुजर रही थीं। चौराहा पार करने की हड़बड़ी उनमें साफ दिख रही थी। कुछ साइकिल वाले अब इस इंतजार से उकता कर थोड़े थोड़े आगे आते हुए स्टाॅप लाइन के तीन चार मीटर आगे तक आ चुके थे और सामने से आ रही गाड़ियों की गति को रोक रहे थे।  
तभी सामने की सड़क से एक बाईस पच्चीस साल की लड़की जिसने हरी पीली साड़ी पहनी थी दुबले पतले शरीर पर उसका बड़ा हुआ पेट बता रहा था कि वह माँ बनने वाली है सड़क पार करके वैभव की दिशा में बढ़ने लगी थी। तीखी धूप ने उसे बहुत परेशान कर दिया था या शायद वह बहुत दूर से बहुत देर से पैदल चल रही थी उसने साड़ी का पल्ला सिर पर लेकर सिर को धूप से बचाने का जतन किया। एक बार आंखें मिचमिचा कर आसमान की ओर ताका और फिर उसके कदम मानो सड़क से उखड़ गए। एक दो कदम आड़े तिरछे रखते वह आगे बढ़ी लेकिन तीसरे कदम पर खुद को न संभाल पाई और बेहोश होकर तपती सड़क पर गिर गई। वह वैभव से लगभग बीस पच्चीस मीटर दूर चौराहे के बीचो बीच सड़क पर गिरी थी। सड़क पार करने वाली गाड़ियाँ थोड़ी धीमी हुई और फिर उसके दाएं बाएं से गुजरने लगीं मानो अगर अभी सिग्नल पार न किया तो वह जिंदगी भर के लिए लाल होकर रह जाएगा और फिर वह कभी यह चौराहा पार करके अपने गंतव्य पर नहीं पहुंच पाएंगे। वैभव के सामने वाले सिग्नल के पास खड़े ट्रैफिक जवान ने अब तक उस औरत को सड़क पर गिरे हुए नहीं देखा था संभवतः वह अपने ही किन्हीं विचारों में खोया था शायद कोई पारिवारिक समस्या में या अपनी पोस्टिंग किसी और विभाग या चौराहे पर करवाने की योजना बनाने की जुगत में। 
अब वैभव के बाएँ तरफ से ट्रैफिक शुरू हो गया वह औरत सड़क के बीच बेसुध पड़ी हरी पीली घास का ढेर लग रही थी। उसकी साड़ी का रंग बिरंगापन गाड़ियों को उसे बचाकर उसके आसपास से निकलने का संकेत दे रहा था। ट्रैफिक जवान की नजर उस पर पड़ चुकी थी वह दौड़ कर उस तक आया और हाथ देकर सीटी बजाकर गाड़ियों को अगल-बगल से निकलने का इशारा करने लगा। वह किसी खाली ऑटो को देख रहा था लेकिन ऑटो वाले सड़क पर पड़ी उस औरत को देखते जवान को देखते तो कभी स्पीड कम करते कभी बढ़ाते किसी कार की आड़ लेते वहाँ से गुजर जाते। वैभव ने आसपास नजर दौड़ाई शायद कोई उस जवान या औरत की मदद करने आगे आए। उसने देखा आसपास बहुत सारे लोगों ने मोबाइल निकाल लिया था कोई फोटो ले रहा था तो कोई वीडियो बना रहा था। बाकी दो सिग्नल पर रुकी सड़कों पर भी कई लोग वीडियो बनाने में मशगूल थे। ट्रैफिक जवान ने झुककर उस औरत को हिलाया डुलाया वह सड़क पर पसर गई। ट्रैफिक अभी भी निर्बाध चल रहा था। सिग्नल पर रुके लोग उत्सुकता और चेहरे पर दया के भाव लाकर फोटो वीडियो लेने में मशगूल थे। कुछ बाइक सवार आपस में बात कर अपने समझदार होने का परिचय बगल में 30 सेकंड के लिए खड़े सवार को दे देने को बेताब थे। कुछ बंद कार में बैठे लोगों को घटना का ब्यौरा देकर पुण्य कमा रहे थे। कुछ गाड़ियों में महिलाएँ निर्लिप्त सी बैठी थीं उनके चेहरे पर एक संतुष्टि थी कि वे अकेले नहीं हैं उनके साथ कोई है जो मुसीबत में उनकी मदद कर सकता है और यह उनकी समझदारी है। उस पर पानी डालो गर्मी से बेहोश हो गई ऐसी हालत में अकेले नहीं निकलना चाहिए किसी को साथ लेकर आती जैसी फुसफुसाहटें हवा में तैर रही थीं। वैभव के पास पानी नहीं था लेकिन लगभग हर कार में पानी था कुछ बाइक सवार भी पानी रखे हुए थे लेकिन उतरकर जाने में सिग्नल हरा हो जाने और फिर लाल हो जाने पर अगले 2:45 मिनट के लिए फिर रुक जाने का डर उन्हें रोक रहा था। हर व्यक्ति दिल में चाह  रहा था कि कोई उस औरत को पानी पिला दे लेकिन वह कोई खुद न हो। 
सिपाही ने मोबाइल निकाला वह एंबुलेंस को फोन लगा रहा था। वह उस औरत को उठाने की कोशिश भी कर रहा था उसे डर था कि गर्म सड़क उसके शरीर पर फफोले ना बना दे। लेकिन उसे यह भी डर था कि न जाने किस एंगल से खींचे गए किसी फोटो या वीडियो में ऐसा कुछ आपत्तिजनक आ जाए कि वह मुसीबत में फँस जाए। वैभव उसकी बेबसी देख रहा था वह उस बेसुध पड़ी औरत के लिए भी चिंतित था। उसका उभरा पेट उसी के वजन से दब रहा था जो नुकसानदायक हो सकता था। उसने सामने देखा लाल सिग्नल बस हरा होने को था। वह सिग्नल लाल होते ही रुक गया था वह सबसे लंबे समय से सिग्नल पर रुका था अब उसे यहाँ और रुकना चाहिए या नहीं वह निश्चित नहीं कर पा रहा था। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ ही जाएगी वह रुक कर क्या करेगा? बाइक पर तो वह उसे ले जा नहीं सकता। उसके रुकने से कुछ नहीं होगा इतने लोग भी तो गुजरे कोई नहीं रुका फिर वही क्यों? कम से कम वह फोटो तो नहीं खींच रहा था उसने खुद को समझाया। वह इस इंतज़ार और उम्मीद में था कि कोई तो उसकी मदद करे  वह कितनी देर सिग्नल पर रुका रह सकता है। उसकी तरफ का लाल सिग्नल हरा हो गया था पीछे से कारों के कान फोडू हार्न उसमें बेचैनी पैदा करने लगे। उसे अब चौराहा पार कर लेना चाहिए। उसने हेलमेट का शीशा बंद किया बाइक में किक लगाया एक नजर अगल बगल से कट मारते चौराहा पार करती गाड़ियों को देखा ट्रैफिक जवान को देखा और बाइक आगे बढ़ाते हुए दाएं तरफ का टर्न सिग्नल दिया और बाइक उस जवान के पास ले जाकर ऐसे रोकी कि सड़क पर पड़ी वह औरत बाइक की छाँव में आ गई। उसने और जवान ने उस औरत को उठाकर सीधा किया और एंबुलेंस का इंतजार करने लगे। 
चौराहे पर सिग्नल बारी-बारी से लाल हरे हो रहे थे और वह अगले कई पौने तीन मिनट वहाँ रुकने का मन बना चुका था।
कविता वर्मा

बुधवार, 7 सितंबर 2022

कड़वी सच्चाई

 अनिल ऑफिस से घर आया तो देखा गली में लोगों की भीड़ लगी थी। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लोग झुंड बनाकर खड़े थे। धीमे धीमे स्वर में होने वाली बातचीत संयुक्त रूप से पर्याप्त ऊंची थी जिसे शोर तो नहीं पर आवाजें कहा जा सके। इन आवाजों में एक खौफ एक अफसोस था और था तनिक सा दुख जिसे महसूस कर अनिल सिहर गया। लोगों के झुंड लगभग हर घर के सामने थे जिससे यह तो पता चल रहा था कि कोई अनहोनी हुई है लेकिन किसके साथ किसके घर हुई है वह यह नहीं जान पा रहा था। वह धीरे-धीरे लोगों के चेहरे पढ़ने की कोशिश करते आगे बढ़ रहा था लेकिन गली में कई बार देखे उन अजनबी चेहरों से कुछ पढ़ नहीं पा रहा था। गली के मुहाने से अब वह काफी अंदर आ चुका था उसकी चाल आसपास खड़े लोगों को देखते काफी धीमी और अटपटी थी लेकिन वह अभी तक वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ था। 

उसके घर के बाहर ओटले पर चार पांच औरतों का जमावड़ा था जिनमें से एक उसकी पत्नी थी जो उसे देखकर तुरंत अंदर चली गई। बाकी औरतें भी थोड़ी देर चुप होकर उसके ओटले से थोड़ी दूर जाकर खड़ी हो गईं। अनिल अंदर पहुंचा जूते उतारकर पलंग पर बैठा कि पत्नी ने उसे पानी का गिलास थमाया। उसकी आंखों में उमड़ा प्रश्न मुखर था या पत्नी की उसे सब बताने की इच्छा ज्यादा प्रबल थी पता नहीं लेकिन वह गिलास का पानी खत्म होने का इंतजार न कर सकी। "मोहिनी भाभी के सुमित ने आत्महत्या कर ली"। यह खबर वज्रपात सी आई थी और पानी का आखरी घूंट उसके गले में अटक गया। जोर का ठसका लगा था उसे और मुँह से पानी खांसी के साथ फव्वारा बन बाहर आ गया। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गई जो यह जानकर भय से भर गईं कि 12वीं में फेल होने और कहीं कोई काम न मिलने के बाद से वह बहुत उदास था। घंटों कमरे में अकेला बैठा रहता था और आज सुबह वह कहीं बाहर गया था। वहाँ से आकर खुद को कमरे में बंद कर लिया और फंदा गले में डालकर पंखे से लटक गया। 
अनिल के भीतर बैचेनी फैल गई जिसे पत्नी से छुपाने और धोने के लिए वह बाथरूम में घुस गया। सुमित ने आत्महत्या कर ली वह फंदे से लटक गया शब्द उसके दिमाग पर हथौड़े से पड़ रहे थे। उसने चेहरे पर पानी के कई छपाके मारे उसकी सांस अभी भी संयत नहीं हुई थी। वह देर तक दोनों हथेलियों में तौलिया लिए गाल थामें खड़ा रहा। वह खुद को उस बात से परे होने का विश्वास दिलाना चाहता था जो खबर सुनते ही उसके दिमाग में कौंधी थी और जिस ने उसे भयभीत कर दिया था। 
बाथरूम के बाहर से पत्नी की आवाज आ रही थी जिसे शायद वह देर तक सुन नहीं पाया था इसलिए अब दरवाजा पीट कर वह उसे पुकार रही थी। उसने जल्दी से तौलिये से सिर मुँह पोंछा और खुद को संयत सा दिखाता बाहर आ गया। चाय का कप थामें भी वह सोच में गुम रहा और फिर एक घूंट में उसे खत्म कर पैरों में चप्पल डालकर अभी आया कहते वह घर के बाहर आ गया। पड़ोसी हरिहर भाई को देख कर कुछ देर उनके पास रुक कर उसने तफसील से पूरी जानकारी ली जिसमें मोहिनी भाभी द्वारा सबसे पहले लाश को देखने उसे नीचे उतारने में सब पड़ोसियों का सहयोग पुलिस को खबर देने और पोस्टमार्टम होने के बाद अंतिम संस्कार होने की खबर शामिल थी। हरिहर भाई से विदा लेकर अनिल गली के बाहर निकल गया। बाहर चाय की दुकान पर खासी भीड़ थी वह वहाँ से आगे बढ़ सड़क पार कर उजाड़ पार्क में जाकर बैठ गया। वह लगभग स्तब्ध था दिमाग में सिर्फ एक ही बात गूंज रही थी सुमित ने आत्महत्या कर ली आज सुबह वह बाहर गया था। आज सुबह वह बाहर गया था इस बात ने उसे आत्महत्या की खबर से ज्यादा विचलित किया था।
अनिल के दिमाग में पिछले दिन की स्मृति कौंध गई। फर्स्ट क्लास से एमकॉम पास प्राइवेट ऑफिस में क्लर्क अनिल काम की अधिकता मेहनत के अनुरूप तनख्वाह न मिलने और मालिक के अपमानित करने वाले रवैए से झुंझलाया हुआ था। कल फिर उसे एक छोटी सी बात पर बुरी तरह झिड़का गया था और उस अपमान को वह रात भर हजम करने की कोशिश में करवटें बदलता रहा था। आज सुबह उसका ऑफिस जाने का मन कतई नहीं था लेकिन यह नौकरी उसकी मजबूरी थी और दूसरी नौकरी मिलना आसान भी नहीं था। 
घर से निकलकर वह नुक्कड़ की चाय की दुकान पर रुक गया था। बस यूँ ही चाय पीकर ऑफिस जाने की हिम्मत बटोरने तभी सुमित वहाँ आया था और बेंच पर उसके बगल में बैठ गया था। अनिल ने उसकी अनदेखी कर उपेक्षा ही कर दी थी लेकिन सुमित ने उससे पूछा "अनिल भाई मुझे कहीं नौकरी मिल जाएगी क्या? कोई भी छोटी-मोटी नौकरी चलेगी कहीं पियून या ऑफिस बॉय या फिर कुछ और।" 
अनिल में घूर कर सुमित को देखा था कहांँ तक पढ़े हो तुम उस ने तल्खी से पूछा था। सकुचाया था सुमित जवाब देते फिर धीरे से बोला "भैया बारहवीं में फेल हो गया हूँ इस साल। पढ़ाई मेरे बस की नहीं है इसलिए सोच रहा हूँ कोई काम ही शुरु कर लूँ कोई छोटी-मोटी नौकरी।" उसकी बात पूरी होने से पहले ही अनिल ने लगभग चिढ़ते हुए कहा था "शहर में लाखों एम ए बी ए पास टल्ले खाते घूम रहे हैं उन्हें चपरासी की नौकरी भी नहीं मिल रही तुम्हें 12वीं फेल को कौन नौकरी देगा?" 
सुमित का चेहरा उतर गया उसे देखकर अनिल को अनोखा सा सुख मिला था। एक दिन पहले हुए अपमान की जलन सुमित का उतरा चेहरा देखकर कुछ कम सी होती महसूस हुई। शायद नौकरी लगने के बाद पहली बार उसने किसी से ऐसी तल्खी से बात की थी वरना तो वह हमेशा दूसरों की झिड़कियाँ ही सुनता रहा था। अनिल ने चाय की दुकान पर काम करते 12 साल के उस लड़के की ओर इशारा करके कहा था "इसे देख रहा है इसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा होगा इसलिए इसे यहाँ गिलास धोने का काम मिल गया। तू तो 11वीं तक पढ़ गया है अब तो तू इस काम के लायक भी नहीं रहा। पढ़ाई न करता तो शायद तसले ईट धोने के काम का रह पाता।" ज्यों-ज्यों अनिल बोलता गया त्यों त्यों सुमित का चेहरा निराशा और अपमान से काला पड़ता गया और अनिल एक सुकून सा महसूस करता रहा। 
इस देश में या तो अनपढ़ों के लिए काम है या खूब पढ़े लिखे अंग्रेजी में गिटपिट करने वालों के लिए।" तुझ जैसे" दरअसल अनिल कहना चाहता था हम जैसे लेकिन अपने अपमान की आग बुझाने के सुख में उसने आधा सच ही कहा। "तुझे जैसे अध पढे लोगों के लिए इस देश में न कोई काम है और न सम्मान। ऐसे लोग सिर्फ दुत्कारे जाते हैं घर में भी बाहर भी।" अनिल ने चाय का खाली गिलास रखा पैसे दिए और कनखियों से सुमित के उतरे चेहरे को देखते सुकून की साँस लेते ऑफिस के लिए चल पड़ा। 
उसके बाद ही सुमित ने घर जाकर आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या नहीं की मैंने उसे उकसाया मैंने उसकी हत्या की। बेचैनी से अनिल के माथे पर पसीना छलछला गया। वह उठ खड़ा हुआ उसका अपराध बोध उसे धिक्कारने लगा। वह फिर बेंच पर बैठ गया। नहीं नहीं मैंने सुमित से ऐसा कुछ नहीं कहा मैंने तो उसे सिर्फ सच्चाई बताई कड़वी सच्चाई। उसने खुद को समझाया। 
मोबाइल की घंटी ने उसकी तंद्रा भंग की। पत्नी का फोन था वह चिंतित थी अनिल को घर जाना था पर वह अभी भी निश्चित नहीं कर पाया था क्या वह हत्यारा है?
कविता वर्मा

रविवार, 4 सितंबर 2022

उल्टी गंगा

 विभा ने इधर-उधर देखा कमरे से बाहर झांका। सासू माँ बाहर के कमरे में रामनामी ओढ़े तखत पर बैठी माला जप रही थीं। कामवाली रसोई के पीछे आंगन में बर्तन धो रही थी। बड़ी बेटी स्कूल जा चुकी थी और छोटा बेटा यूनिफार्म पहनकर टीवी पर कार्टून देखते नाश्ता कर रहा था। इस समय उसके मनपसंद कार्टून के सामने से उसे भगवान भी नहीं उठा सकते थे। सासु माँ की कमर वैसे ही अकड़ी रहती उन्हें एक स्थिति से दूसरी में आने में कम से कम 5 मिनट लगते और साथ ही उस में हुए दर्द के कारण निकली कराहें सड़क तक सुनाई देती। पतिदेव बाथरूम में थे विभा ने एक बार फिर कान लगाकर सुना पानी गिरने की आवाज आ रही थी मतलब अभी कम से कम पांच सात मिनट तो वे बाथरूम से नहीं निकलने वाले थे । फिर भी उसने ऐतिहातन दरवाजा थोड़ा अटका दिया और दरवाजे के पीछे खूंटी पर टंगी दिनेश की पेंट की जेब में रखा बटुआ निकाला। उसने जल्दी से बटुआ खोला यह उसका प्रिय काम था कि सबकी नजर बचाकर दिनेश के बटुए में से पैसे निकाल लेना। हालांकि यह काम जितना आसान लगता था उतना था नहीं। पहले तो ऐसी घड़ी तलाश करना जब कि सब अपने काम में खासे व्यस्त हो जिससे कि कोई उसे ऐसा करते न देखे। बच्चे तो बिल्कुल ही नहीं जिन्हें वह बचपन से चोरी करना पाप है का पाठ सिखा चुकी है और कभी चोरी से चवन्नी चुराने या लड्डू निकाल कर खा लेने पर कान उमेठकर उठक बैठक करवा चुकी है। सासु माँ को भी नहीं जिनकी रामायण मंडली के आए दिन आ धमकने पर वह खर्च का रोना रो चुकी है या ननंद के लिए 500 की जगह 400 की साड़ी लेने के लिए रोनी सूरत बना कर अपनी मजबूरी बता चुकी है। दिनेश तो कतई नहीं जो कम खर्च में घर चलाने के उसके कौशल की तारीफ करते नहीं अघाता और शादी के इतने साल बाद भी उसके लिए एक अदद मंगलसूत्र न दिला पाने के अपराध बोध में उसकी हर हां में हां मिलाता है। यह अलग बात है कि विभा अब तक बटुए से चुपके से निकाले रुपए से एक मंगलसूत्र और एक जोड़ी झुमके बनवा चुकी है। 

दूसरी यह देखना कि बटुए में कितने रुपए हैं उनमें 500 के नोट कितने हैं सौ पचास दस और बीस के कितने। उसके अनुसार किस मूल्य के कितने नोट निकालना है जिससे दिनेश को रुपये निकाले जाने का आभास न हो। विभा ने बचपन में मुर्गी और नाई वाली कविता खूब रट डाली थी। एक बार उसने प्रतियोगिता में यही कविता खूब अभिनय के साथ सुनाकर पहला इनाम भी पाया था। इस तरह वह कविता उसकी रगों में बसी थी फिर वह मुर्गी को हलाल करने की भूल कैसे कर सकती थी? यूँ तो बटुआ निकाल कर रखना बस 30 सेकंड का काम था लेकिन उसके लिए अनुकूल माहौल देखना हिसाब किताब से ठीक ठीक नोट निकालना ही नहीं बटुए में छोड़ना भी खासा समय ले लेते थे । उसकी अगली योजना हाथ के कंगन उसे ज्यादा लेने को उकसा थी तो बेवजह का शक न होने देने की सावधानी आगाह करते हुए हाथ में आए एक दो नोट वापस रखने को समझाती। 
विभा ने बटुआ निकाला उसे खोला ही था कि उसमें से एक पर्चा सा गिरा उसे नजरअंदाज कर उसने देखा बटुए में 500  का एक सौ के चार पचास के दो और तीन चार दस बीस के नोट थे। उसकी अनुभवी बुद्धि ने तुरंत हिसाब लगाया और झट से एक एक सौ पचास दस और 20 का नोट निकालकर बटुआ बंद कर वापस जेब में रख दिया। उसने नोट मोड़ कर तुरंत ब्लाउज में रखें और बाहर निकलने को पलटी कि उसका पैर बटुए से गिरे पुर्जे पर पड़ा। धत्त तेरी की मैं तो भूल ही गई थी। उसने तुरंत नींबू पीले रंग का वह पुर्जा उठाया और उसे रखने ही जा रही थी कि हल्की सी खुशबू ने उसके नसों में प्रवेश कर उसके दिमाग के तंतुओं को झिंझोड़ दिया। एक साथ मानों शक की सैकड़ों चीटियां उस पर रेंग गईं। उसने जल्दी से उस पुर्जे को खोल कर देखा उसमें आड़े टेढ़े शब्दों में 4 लाइनें लिखी थीं। विभा का दिल धक से हो गया । 18 साल से उसके इर्द-गिर्द घूमने वाला उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाला ऑफिस से घर, घर से ऑफिस जाने वाला सीधे-साधे मिडिल क्लास आदमी की जेब से ऐसा कोई पुर्जा निकलना सोच से परे था। उसकी रगों में खून का दौरा बढ़ गया गाल दहकने लगे कान की लवें झुलसने लगीं। उसने अटकती सांसों के साथ उसे पढ़ना शुरू किया। 
दिनेश तुम्हें घर खर्च के लिए छोटे-छोटे उधार देते अब कर्जा 40000 हो गया है। अगर महीने भर में तुमने पैसे वापस ना लौटाए तो तुम्हारी खैर नहीं। अपनी मौत के जिम्मेदार तुम खुद होगे। 
नीचे उड़ती चिड़िया से दस्तखत थे जो पढ़ने समझने का वक्त नहीं था। विभा के हाथों में वह कागज थरथर कांपने लगा। आंखों के आगे किसी सड़क पर लहूलुहान पड़ा दिनेश का शरीर और उससे लिपट कर रोते बच्चे घूम गए। एक पल को बिना बिंदी सिंदूर सूना माथा और फर्श पर पड़ा वहीं मंगलसूत्र घूम गया जो उसने बड़ी समझदारी से पैसे इकट्ठे कर चोरी छिपे बनवाया था। दिनेश ने कभी बताया नहीं कि उसे घर खर्च के लिए उधार लेना पड़ता है। वह मुझे इतना प्यार करते हैं कि ऐसी कोई बात बता कर मुझे परेशान नहीं करना चाहते होंगे और एक वह है छी छी। अपने मंगलसूत्र झुमके कंगन के लिए दिनेश के बटुए से रुपया निकालती रही। विभा को खुद पर बेतरह गुस्सा और दिनेश पर प्यार आ गया जो जल्दी ही पलट गया अब उसे दिनेश पर गुस्सा आया कि वह उससे अपनी परेशानियां छुपाता क्यों है? अब वह क्या करें इस तरह दिनेश की जान खतरे में नहीं डाल सकती उसकी आंखें भर आईं। 
उसने ब्लाउज में से रुपए निकाले उन्हें सीधा किया और पुर्जे के साथ बटुए में रख दिया। बटुआ पैंट की जेब में रखकर पलटी ही थी कि एक विचार ने उसे ठिठका दिया। इस तरह तो दिनेश को इतनी बड़ी रकम चुकाने में साल भर से ज्यादा लग जाएगा। इस बीच अगर वह गुंडा... विभा की रीढ़ में ठंडी लहर दौड़ गई। वह झट से अलमारी की तरफ बढ़ी। कपड़ों की तह के बीच से एक बटुआ निकालकर खोला। उसका अभ्यस्त दिमाग फिर तेजी से हिसाब किताब में जुट गया। उसने एक एक सौ पचास 10 और 20 का नोट निकाला एक बार दरवाजे के बाहर झांका। बाहर यथास्थिति थी बाथरूम में पानी गिरने की आवाज अब भी आ रही थी। उसने रुपयों को ठीक से जमाया पीला पुर्जा रखा बटुआ जेब में रखकर राहत की सांस लेती गीली आंखों को झपक कर सुखाती रसोई की और बढ़ गई। अब विभा रोज ही सुबह सबकी टोह लेती है। सबको व्यस्त देख दिनेश की जेब से बटुआ निकालती है उसमें रखे नोट देखकर हिसाब लगाती है और अलमारी से नोट निकालकर उसमें मिला देती है। 
आजकल दिनेश ऑफिस जाने के पहले एक बार पर्स देखता है उसमे बढ़ गए रुपये देखता है होंठों के अंदर ही अंदर मुस्कुराता है और सीटी बजाते हुए लापरवाही से चलते विभा को फ्लाइंग किस देते स्कूटर स्टार्ट करता है। विभा भीगी आंखों से उसे जाते देख उसके सकुशल घर वापस आने की प्रार्थना करती है।
कविता वर्मा