घर में मेहमानों की आवाजाही बढ़ गई है। कार्यक्रम की रूपरेखा बन रही है कौन जाएगा कैसे जाएगा क्या करना है कैसे करना है जैसी चर्चाएं जोरों पर हैं । चाचा ससुर उनके बेटे देवर दोनों बेटे दामाद सभी समूह में बैठकर जोरदार तरीके से शानदार कार्यक्रम की योजना बनाते और फिर एक एक से अकेले अलग-अलग खर्च पानी की चिंता में दूसरे के दिये सुझाव की खिल्ली उड़ा कर उसे खारिज करते। समूह में दमदारी से सब करेंगे अच्छे से करेंगे के दावे खुद की जेब में हाथ डालने के नाम पर फुस्स हो जाते ।
सुनीति कभी उसी कमरे के कोने में कभी दूसरे कमरे में बैठी सब सुन रही थी लेकिन बोल कुछ नहीं रही थी। जैसे वह भी जानती थी कि सबके सामने शान दिखाने के लिए किए जा रहे दावे कितने खोखले हैं ।
आज सात दिन हो गए सुनीति के पति मनोहर की मृत्यु हुए। ढाई साल कैंसर से जूझते लड़ते आखिर वो जिंदगी की लड़ाई हार गए। बड़ा बेटा भोपाल में नौकरी करता है। शादी के बाद तो उसने मानो घर से संपर्क ही खत्म कर लिया । महीने में एक बार फोन पर हाल-चाल पूछ लेता छह महीने में एकाध दिन के लिए आता। वह ऊपरी बातचीत के अलावा कभी खर्चे पैसे कौड़ी की व्यवस्था के बारे में बात ही नहीं करता। कभी कभी सुनीति को बड़ा गुस्सा आता और वह मनोहर के चुप रहने के इशारे के बावजूद भी बोल पड़ती कि बीमारी के इलाज में आने जाने में बहुत खर्च हो रहा है। वह बड़ी बेजारी से जवाब देता हारी बीमारी में तो खर्च होता ही है इंसान को इन सब के मद में पैसा बचा कर रखना चाहिए। फिर तुरंत बात बदल देता।
छोटा बेटा अपनी प्राइवेट नौकरी से छुट्टी लेकर हर बार पिता को कभी बस से कभी टैक्सी से इंदौर ले जाता। यूँ तो उनके गाँव से इंदौर की दूरी 80 किलोमीटर है लेकिन बाइक पर इतनी दूर बैठकर जाने की मनोहर की हालत नहीं रही थी।
बाहर छोटे और बड़े बेटे की बहस की आवाजें आ रही थीं। सुनीति ने अपने विचारों से बाहर निकल उस पर ध्यान लगाया। दोनों दसवें दिन घाट और तेरहवीं के आयोजन में होने वाले खर्च को लेकर बहस कर रहे थे। बड़े का कहना था पापा ने सारी जिंदगी जो कमाया वह कहाँ गया? छोटा डॉक्टर की फीस दवाई आने-जाने के खर्च का हिसाब बता रहा था जिस पर बड़े को कतई विश्वास न था। तूने बीमारी के नाम पर पापा को खूब चुना लगाया है खूब पैसा बनाया है। यह बड़े का स्वर था।
भैया गुस्से में कहा संबोधन अपनी बात कहते कहते रुआँसा हो गया। बात और बढ़ती तब तक सुनीति कमरे से बाहर आ गई। बड़ा कुछ कहने को हुआ सुनीति ने हाथ उठाकर उसे चुप रहने का इशारा किया।
दसवीं का घाट घर कुटुंब का कार्यक्रम था जो जैसे तैसे निपट गया। शायद बहू ने समझाया या चाचा जी ने बड़े ने सब खर्च किया।
तेरहवीं के कार्यक्रम की रूपरेखा के लिए सुनीति खुद सबके बीच आ बैठी। पति की बीमारी में अकेले जूझते और रिश्तेदारों के दिखावे को समझते अब वह अंदर से मजबूत हो गई थी। इस अकेलेपन से अकेले जूझने की हिम्मत उसमें आ गई थी। उसे याद है जब मनोहर को लेकर इंदौर के अस्पताल गई थी और डॉक्टरों की हड़ताल हो गई थी। उसने बेटे से देवर को फोन लगवाया था। देवर का ससुराल इंदौर में ही है वह चाहती थी कि एक-दो दिन इंदौर में रहने की व्यवस्था हो जाए ताकि इस जर्जर हालत में मनोहर को बार-बार सफर न करना पड़े। देवर ने कहा कि मैं उनसे बात करके आपको बताता हूँ और फिर दिन भर न उनका फोन आया न लगा। वही देवर आज तेरहवीं में दो मिठाई पूरी कचोरी दाल चावल कढ़ी दो सब्जी का ब्यौरा तैयार कर बनवाने पर जोर दे रहे थे।
भैया मेरे पास तो अब पैसा बचा नहीं जो था सब इनके पापा की बीमारी में लग गया। आपके भी सगे भाई थे वह आपकी पढ़ाई लिखाई शादी ब्याह में खर्च किया है उन्होंने। आप कितना खर्च कर सकते हो उसके अनुसार ही भोज तैयार करवाना। बड़े ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए हैं। उसकी इस बात से पल भर को सब सनाका खा गए। बड़े बेटे ने आंखें तरेर कर उन्हें देखा। चाचा ससुर के लड़के ने बात संभाली देखो अब सभी समाज में मृत्यु भोज बंद हो रहा है। हमें भी मिसाल कायम करना चाहिए। समाज के पांच पंच बुला कर 11 ब्राह्मणों को भोजन करवा दें और बाहर समधियाने के जो मेहमान आएंगे उनके खाने की व्यवस्था कर देंगे। उनके लिए सब्जी पूरी कढी चावल और एक मीठा बहुत है। क्यों भैया ठीक है न? ज्यादा वजन भी नहीं पड़ेगा। समाज के लोग पगड़ी में शामिल होंगे पंजीरी का प्रसाद लेकर विदा होंगे। कमरे में जाते उनके होंठ वितृष्णा से टेढ़े हो गए।
आज सुबह से गहमागहमी थी। बेटे देवर चाचा ससुर उनके बेटों के ससुराल वाले दूर पास की ननदें बेटियाँ सभी आ चुकी थीं। सब तैयार होकर बैठे पगड़ी रस्म में दिए जाने वाले टाॅवेल शॉल एक दूसरे को दिखा रहीं थीं। पंडित आ गए पगड़ी की रस्म के लिए सिर मुंडाए चाचा ससुर देवर उनके बेटे और मनोहर के दोनों बेटे बैठे थे। समाज के पंच पगड़ी पहनाने खड़े हुए तभी सुनीति उठ खड़ी हुई।
ठहरिये सबकी नजरें उसकी तरफ उठीं। उनमें आश्चर्य था विद्रूप था और उत्सुकता थी। सुनीति हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। आज मैं पंचों के सामने समाज से कुछ कहना चाहती हूँ।
सबसे बुजुर्ग पंच ने कहा कहो बहू क्या कहना चाहती हो? सुनीति ने कहना शुरू किया समाज में रीति रिवाज नेग दस्तूर इसलिए बनाए गए हैं ताकि लोगों में आस्था हर्ष उल्लास और जिम्मेदारी का भाव बना रहे। पगड़ी की रस्म भी इसी जिम्मेदारी का एहसास कराने के लिए की जाती है। लेकिन दुखद है कि जीते जी रिश्ते की कोई जिम्मेदारी न निभाने वाले किसी के मरने के बाद पगड़ी पहनने बैठते हैं। वे भी जानते हैं कि पगड़ी सिर्फ पहनने के लिए दिखावे के लिए पहनना है जबकि मृतक परिवार की कोई जिम्मेदारी वे कभी नहीं उठाने वाले हैं। मैं आज यहाँ पगड़ी पहनने बैठे सभी लोगों से पूछना चाहती हूँ आप में से कौन भविष्य में मेरी दुख बीमारी बेटे की शादी की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है? मैं अनुरोध करूंगी कि जो इस जिम्मेदारी को उठाना नहीं चाहते मेरे पति के नाम की पगड़ी ना पहने। फिर अपने बड़े बेटे को संबोधित करते सुनीति ने पूछा बेटा क्या तुम मेरी जिम्मेदारी उठा पाओगे अगर नहीं तो तुम भी उठ सकते हो। इतना सुनना था कि बड़ा बेटा सिर पर रखी टोपी पटक कर खड़ा हो गया और पैर पटकता वहाँ से चला गया। उसके पीछे पीछे धीरे से बाकी लोग भी खिसक गए। अंत में बचा रहा सिर्फ छोटा बेटा। सुनीति ने कहा अब आप पगड़ी की रस्म शुरू करें।
सबके उठ जाने से उनके रिश्तेदारों में खुसरूपुर शुरू हो गई बुजुर्ग पंच ने कहा कि आज समाज में नई नीति शुरू हुई है अब से पगड़ी सिर्फ जिम्मेदारी लेने वाले को पहनाई जाएगी। आप सभी से अनुरोध है कि पगड़ी के बाद भोजन करके जाएंँ। सुनीति की आंखों में आँसू झिलमिला गए।
कविता वर्मा