(मालवा निमाड में माँ और दादी को बाई कहते हैं और कामवाली के लिए बाई संबोधन सम्मान जनक संबोधन होता है।)
दरवाजा खटखटाने की आवाज पर रुचि ने दरवाजा खोला । सामने टखने तक की मटमैली साड़ी पहने, बिखरे बाल, धंसी आंखें. बाहर निकले दांत वाली एक बाई खड़ी थी। देखते ही रुचि में वितृष्णा का भाव जागा जिसे उसने किसी तरह भीतर गटक लिया और चेहरे पर सहजता लाते हुए पूछा "क्या बात है?"
"आपको घर के काम के लिए बाई चाहिए । वह दवाई वाले काका जी ने बोला था।"
दवाई वाले काका जी कौन रुचि के दिमाग में यह प्रश्न कौंधा जिसे परे खिसका कर वह झट से कामवाली बाई पर आ गई। "हाँ चाहिए तो " । उसकी मटमैली, दयनीय हालत देख उसने एक बार खुद से पूछा कि क्या वाकई उसे यह बाई चाहिए? चार दिन से घर के सामान की अनपैकिंग करते, खाना- कपड़े- बर्तन- झाड़ू- पोंछा करते रुचि इतनी पस्त हो गई थी कि उसने उस अनचाहे प्रश्न को परे झटक दिया।" क्या-क्या काम कर लेती हो?"
"जो भी तुम कहो। तुम को क्या करवाना है?"
रुचि को तुम संबोधन खटका । सिर्फ मैली कुचली ही नहीं है, अनकल्चरड भी है। एक मन हुआ मना कर दे कि कुछ नहीं करवाना । फिर बीच कमरे में पड़ी झाड़ू और कचरा देख सिहर गई। "मुझे तो झाड़ू- पोंछा- बर्तन करवाना है।"
" कपड़े नहीं करवाओगी?"
" नहीं, कपड़ों की मशीन है। अच्छा सुबह कितने बजे आओगी?"
"तुम कितने बजे बुलाओगे?"
फिर तुम रुचि का दिमाग भन्ना गया। ग्यारह बजे।
"ग्यारह बजे?" उसने आश्चर्य से कहा। रुचि समझ नहीं पाई उसने समय जल्दी का बता दिया या देर का। उसने थोड़ी देर उस बाई को देखा । वह अपने खुले मुँह पर तीन उंगलियां रखे खड़ी थी जिनके बीच से उसके सफेद पीले दांत झांक रहे थे।
"रात के बर्तन खुद करोगे?"
"खुद क्यों?" रुचि को समझ आया यह छोटा सा कस्बा है जहाँ रात के बर्तन सुबह जल्दी करने के बाद खाना बनता है। उसे तो शहर की आदत है जहाँ काम वाली एक ही बार आती है । लेकिन वह तो सुबह जल्दी उठती ही नहीं फिर? रुचि असमंजस में थी क्या करें । उसका हस्बैंड साढ़े दस बजे ऑफिस जाएगा इसलिए उसने ग्यारह बजे का समय बोला था। यहां पता नहीं क्या सिस्टम है? महानगर में पली-बढ़ी रुचि के लिए बड़ी दुविधा खड़ी हो गई।
"सुबह जल्दी आओगी तो झाड़ू पोंछा करने कब आओगी?" थोड़ी मगजपच्ची करके कुछ खुद हैरान होते, कुछ बाई को हैरान करते तय हुआ कि वह नौ बजे आकर बर्तन कर जाएगी। फिर बारह बजे आकर झाड़ू पोंछा और फिर से बर्तन करेगी। काम आज, अभी से शुरू करने की और पैसों की बात तय हो गई। रुचि आराम से सोफे पर पसर गई। उसके पति का इस ग्रामीण बैंक में ट्रांसफर ना हुआ होता तो शायद कभी इतने छोटे कस्बे में आती ही नहीं। बाई को काम करते देख रुचि के दिमाग में कीड़ा कौंधा। कितनी गरीब है यह, इसे तो ठीक से खाना भी नहीं मिलता होगा जैसे विचार आने लगे।
"बाई कौन-कौन है तुम्हारे घर में?"
"सब हैं सास, ससुर, देवर, मेरा घर वाला और तीन बच्चे।" "घरवाला क्या करता है?"
"मजदूरी करता है। देवर और ससुर भी मजदूरी करते हैं।" "सास नहीं करती?"
"नहीं वह घर पर गाय ढोर और बच्चे देखती है।"
"घर का काम तुम करती हो या सास?"
"सास क्यों करेगी? मैं सुबह रोटी करके आती हूँ। सब टिप्पन लेकर जाते हैं ना काम पर।"
इतनी सूचना रुचि के द्रवित होने के लिए काफी थी। वह रसोईघर में अपने और बाई के लिए चाय बनाने चली गई। चाय के साथ एक प्लेट में चार बिस्किट देकर उसे पकड़ाया तो उसके चेहरे पर आश्चर्य की लहरें देख रुचि को अपनी दरियादिली पर गर्व हो आया। अगले दिन रुचि ने उसके लिए अपनी एक साड़ी निकाल कर रखी। काम के बाद उसे देते हुए कहा कि कल से नहा धोकर, कंघी चोटी करके अच्छे से आना जैसे शहरों में औरतें तैयार होकर काम पर जाती हैं। यह तुम्हारा भी काम है तुम इससे पैसा कमाती हो। बाई देर तक रुचि को देखती रही तो आनंदतिरेक रुचि के चेहरे पर हंसी फैल गई। अगले तीन-चार दिन भी वह साड़ी पहनकर नहीं आई अलबत्ता अब वह कंघी करके साफ सुथरी आने लगी।
रुचि रोज ही उसको खाने के लिए कभी रोटी, पराठा ,ब्रेड आदि देने लगी ।यह सब वह ताजा बना कर देती। बाई भी आखिर इंसान है, फिर इतनी मेहनत करती है।
उस दिन वह देर तक रास्ता देखते रही बाई नहीं आई। आखिर शाम को उसने बर्तन धोकर झाड़ू लगाई। रुचि को उस पर खूब गुस्सा आया । कुछ भी करो इन लोगों के लिए यह लोग कोई एहसान नहीं मानते। बता कर नहीं जा सकती थी बस जब मन किया छुट्टी करके बैठ गई। आने दो अच्छी खबर लेती हूँ। झाड़ू लगाते पलंग के नीचे से झाड़ू लगाई तो ढेर सारी धूल और कचरा नीचे से निकला। अलमारी फ्रिज के नीचे भी वही हाल था। अब उसका ध्यान बर्तनों पर गया कढ़ाई पीछे से काली हो चुकी थी। स्टील के बर्तनों की चमक गायब थी।
तीन दिन रुचि भुनभुनाती रही । पूरे दिन रास्ता देखते शाम को काम करते रही। चौथे दिन आते ही बाई सिर पकड़ कर बैठ गई।
"जीजी एक कप चाय पिला दो न सिर बहुत जोर से दुख रहा है ।कुछ खाने को भी दे दो भूखे पेट तो मुझसे काम नहीं होगा।"
रुचि गुस्से में भरी बैठी थी । तीन दिन काम कर करके कमर टूट गई। उस पर लापरवाही से काम की पोल खुल गई और यह महारानी आते ही चाय- खाने की फरमाइश लेकर बैठ गई है ।
अपने गुस्से को जज्ब करते उसने पूछा" तीन दिन कहाँ थीं?"
"जीजी बुखार आ गया था, उठते ही नहीं बना। मुँह इतना कड़वा था कि रोटी भी नहीं खाई गई। घर पर थी तो सास बुखार में भी गोबर सानी करवाती थी।"
रुचि फिर द्रवित हो गई लेकिन गुस्सा अभी खत्म नहीं हुआ था। उसने रात की पड़ी एक रोटी अचार के साथ उसे दी जिसे बाई ने परे खिसका दिया।" दीदी मैं बासी रोटी नहीं खाती, आप तो देसी घी का एक कड़क पराठा सेंक दो।"
रुचि कुछ कहने को हुई कि ख्याल आया तीन दिन में तो हालत खराब हो गई, अगर यह काम छोड़ गई तो? रुचि डब्बे में से आटा निकाल गूंधने लगी।
उस महीने बाई ने आठ छुट्टी की। गरीब का दुख बीमारी में पैसा काटकर कितना बचा लोगी की सोच ने उसे पूरे पैसे दिलवाए। अब तो बाई ठसके से हफ्ते में एक दिन छुट्टी करती। कुछ कहने पर कहती जीजी शहर में औरतों को भी तो आपिस से एक दिन छुट्टी मिलती है। रोज गरम नाश्ता करती। अलमारी पलंग के नीचे सफाई के नाम पर खड़ी हो जाती। "जीजी इतना झुकने पर मेरी कमर दर्द होने लगती है।" इसलिए पलंग के नीचे से कचरा रुचि निकालती। बातों बातों में उसे पता चल गया कि शहरों में बाईयाँ एक बार आती हैं अब वह आए दिन एक टाइम छुट्टी कर लेती।
उस दिन काका जी की मेडिकल स्टोर पर रुचि कमर दर्द के लिए मूव लेने गई। उन्होंने पूछा" बाई ठीक से काम कर रही है?"
रुचि ने बताया "वह तो आठ दिन से नहीं आई।"
काका जी बोले "हमारे यहाँ तो रोज आ रही है।"
लौटते हुए रुचि ने मन ही मन हिसाब लगाया कि उसने कितने दिन काम किया और उसे कितने पैसे देना है। वह काका जी से दूसरी किसी बाई को भेजने का कह आई थी।
कविता वर्मा
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