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रविवार, 2 अक्तूबर 2022

सारा जग अपना

 सुबह के 8:00 बज रहे थे ज्ञानम्मा अभी तक उठी नहीं थी। नींद तो बरसों के अभ्यास से सुबह 6:00 बजे ही खुल गई थी लेकिन आज शरीर के साथ मन की हिम्मत भी टूट रही थी। एक-दो बार मन ने धिक्कारा भी था लेकिन फिर मन ने ही समझाया था कि किसके लिए उठना है? कौन सा कुनबा जोड़ रखा है तुमने कि सुबह उठकर रोटी पानी साफ सफाई नहीं करोगी तो दुनिया उलट जाएगी ? पड़ी रहो चुपचाप जब हिम्मत हो तब उठना। प्यास से कंठ सूख रहा था बिस्तर मानो काट रहा था मन कचोट रहा था कि इस बुढ़ापे में बरसों के नियम धर्म छूट रहे हैं। आँखें बरसना चाहती थीं लेकिन सूख चुकी थीं। अब तो कभी पिछली जिंदगी देखने की कोशिश करती तो वह भी धुंधला जाती। 

घर के  बीचो-बीच बने आंगन में धूप फैल चुकी थी। ज्ञानम्मा ने कोशिश करके खुद को बिस्तर से उठाया और सहारा लेकर आंगन में आई। सारा घर सांय सांय कर रहा था। जोर की रुलाई भीतर से उमड़ी लेकिन गले में आकर अटक गई। किसी तरह एक कप चाय बनाई और वहीं आंगन की सीढ़ियों पर बैठ गई। ऐसे सीढ़ियों पर बैठकर दादी सास चाय पीती थीं। 
14 वर्ष  की थी वह  जब तीसरी पीढ़ी की सबसे बड़ी बहू बनकर रुनझुन करती इस आंगन में आई थी। दादा ससुर दादी सास दो चाची सास और 10 ननन देवर की किलकारियों से गूंजता आंगन। सब उसे घेरे रहते। बहुत छोटे देवर ननद उसके हार कंगन को छूकर देखते तो कोई उसकी रेशमी साड़ी को किसी को उसकी हँसी अच्छी लगती तो किसी को आंखें। पति तो उसके भोलेपन पर रीझे रहते। पांचवी तक ही पढी थी वह और पति तेरहवीं चौदहवीं में पढ़ रहे थे। मोटी मोटी काली किताबें देख वे मासूमियत से पूछतीं "यह किताबें काली क्यों हैं?"
"क्योंकि तुम्हारी काली आँखों ने इन्हें देख लिया है।" वह कुछ नहीं समझती पर कुछ समझने सा आभास देकर वहाँ से हट जाती। 
दिन भर घर में ज्ञानम्मा के नाम की आवाज लगती और वे इस कमरे से उस कमरे जाते हुए आँगन में खेल रहे छोटे ननद या देवर की तरफ से पिट्ठू खेल जातीं या बहुत देर से लंगडी का दाम देकर थके रुंआसे देवर की तरफ से दाम दे दो मिनट में किसी को आउट करके आँगन पार कर जाती। ज्ञानम्मा बच्चों की भाभी नहीं सखी सहेली तारक थीं उनकी फरमाइश अब ज्ञानम्मा के जरिए बड़ों तक पहुंचती और पूरी हो ही जाती। ऐसे ही खेलते कूदते तीन ननदों का विवाह किया ज्ञानम्मा ने। तब तक पति वकालत की पढ़ाई पूरी कर चुके थे और उनका नाम बनने लगा था। 
ज्ञानम्मा के चेहरे पर धूप पड़ने लगी तो वे आँगन में लौटीं। आंते कुल बुलाने लगी थीं। कल रात भी तो कुछ नहीं खाया इसीलिए कमजोरी लग रही थी। बुढ़ापे और अकेलेपन ने चिरई सी भूख कर दी थी। ज्ञानम्मा ने किसी तरह उठकर थोड़ा भात चढ़ा दिया टोकनी में पड़े एक दो टमाटर मिर्च गोभी का टुकड़ा उसी में डाल दिए और करछी चलाने लगीं। 
तीज त्यौहार पर बड़ी-बड़ी देगची में भात बनता था इस आँगन में जिसे दो लोग मिलकर उठाते थे। गांँव में चचेरे ममेरे फुफेरे रिश्तेदार भी घर में आते रहते मेला लगा रहता।
चार साल हो गए थे ज्ञानम्मा के ब्याह को अभी तक गोद हरी नहीं हुई थी। दादी चाची माँ सभी को चिंता होने लगी थी लेकिन ज्ञानम्मा को कभी किसी ने एक शब्द नहीं कहा। ज्ञानम्मा उनकी चिंता समझती थी। दादी का विष्णु पुराण सतत चलता था। इसी बीच उसकी दो देवरानी अभी आ गई थीं। ननदों के विदा होने का सूनापन इस आंगन में कभी नहीं व्यापा लेकिन एक चिंता कभी कभी आंगन में तैर जाती वह महसूस करती और मायूस हो जाती।
भात खदबदाने लगा था उन्होंने चुल्हा बंद किया और भात एक थाली में उलट दिया। उसकी भाप में झिलमिलाता  लाशों से पटा आँगन आ गया। उनकी मांँ बीमार थी बार-बार बुलावा आ रहा था। उस दिन भाई उन्हें लेने आया था। माँ का नेह उन्हें खींच रहा था तो इस आंगन का दुलार रोक रहा था। उस शाम गाँव में चन्ना केशव मंदिर में मूर्ति स्थापना थी। पूरा गाँव महीनों से उल्लास में डूबा इस दिन का इंतजार कर रहा था और वे इसी दिन नैहर जाने वाली थीं। उन्होंने भाई को एक दिन रुकने की विनती की लेकिन उसकी परीक्षा थी कैसे रुकता? माँ की अंतिम घड़ी थी उसे कैसे छोड़ता? न जाने  क्यों आँखों में आँसू भर बार-बार मुड़कर वे इस आँगन को देखती रहीं। भात से भाप उठना कम हो गई थी लेकिन मन भर आया था। एक बारगी थाली परे खिसका दी लेकिन फिर देह धरे को दंड समझ एक एक ग्रास मुँह में डालती रहीं। 
माँ उसी की राह देख रही थीं। उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसने दम तोड़ दिया। माँ की चिता ठंडी भी नहीं हुई थी कि वह मनहूस खबर आई जिसे उसे नहीं बताया गया। बदहवास सी पहुंची थी वह घर के दरवाजे पर। आँखों के सामने आँगन तो था ही नहीं। वह आँगन जहाँ दिनभर हँसी किलकारी गूँजती थी मानों सफेद चादर से ढँका था। दादा दादी और छोटी चाची को छोड़कर सभी उसके नीचे थे। मंदिर का प्रसाद जाने कैसे जहर हुआ कभी पता नहीं चला। पूरे गांव से 40 अर्थी उठीं इस सामूहिक विलाप में वह खुद का रुदन सुन ही नहीं पाई या शायद वह रोई ही नहीं पत्थर हो गई। दादा दादी उम्र के कारण और चाची तबीयत के कारण रुक गए थे। उसे नहीं पता मायके जाते हुए वह बार-बार घर आँगन को क्यों देख रही थी? क्या यह आभास था कि आखरी बार इसे खिलखिलाते देख लो? कुछ दिनों तक सब पथरा गया था। 
ज्ञानम्मा ने थाली धो कर रखी। सुबह से घर का दरवाजा नहीं खुला था जो कभी बंद नहीं होता था। अब उसे दरवाजे से किसी के आने की कोई आस भी नहीं रह गई थी लेकिन उन पथराए दिनों को एक बच्चे के क्रंदन ने तोड़ा था। उसने यंत्रवत काम निपटाए थे। दादा दादी टूट चुके थे चाची बौरा गई थीं न पहनने की सुध थी न खाने सोने की। वह सोचती काश वह भी इस तरह सुध बुध खो सकती लेकिन उसे इस का अवसर ही नहीं मिला। उसने दोपहर में उड़का दरवाजा खोला तो उस बच्चे को रोता पाया जिसे पता नहीं था कि उसके माता-पिता कहाँ चले गए? घर का वह दरवाजा फिर खुल गया। ज्ञानम्मा ने गाँव में घूम घूम कर बच्चों को बेसहारा औरतों को इकट्ठा किया। आँगन की किलकारी फिर गूँज उठी। 
थक गई वह अंदर जाकर लेट गई। अब उम्र हो चली है पता नहीं कब आँख मुंद जाए। ज्ञानम्मा की आँखों में वे सब बच्चे  घूम गए उन सब को पढ़ाई नौकरी के लिए उसने खुद खुशी खुशी विदा किया था। उसके जीवन का बड़ा हिस्सा अकेले होने के बाद भी खाली न रहा। चन्ना केशव से शिकायत भी क्या करती उसने इसे उनका रचाया खेल स्वीकार कर लिया था। घर और मन भर गया था उसका। न जाने कैसे दो बूँद आँसू सूखी आँखों की कोरों से बह निकले अब फिर सब खाली हो गया। 
बाहर कोई  जोर-जोर से दरवाजा खटखटा रहा था। एक बारगी डर गई वह। कितनी अकेली है पता नहीं कौन है? धीरे-धीरे सहारा लेकर दरवाजे तक आई। डर के कारण शब्द गले में जम गए। दरवाजा अभी भी पीटा जा रहा था। उसने काँपते हाथों से दरवाजा खोल दिया। बाहर खड़े हुए सब आँगन में आ गए। आँगन में खेलती किलकारी वापस आ गई थी। किसी ने उन्हें बता दिया था कि आज ज्ञानम्मा का दरवाजा नहीं खुला वे खासे चिंतित थे। कोई हाल-चाल पूछ रहा था तो कोई फल-फूल काट रहा था कोई नब्ज देख रहा था। यह ज्ञानम्मा के जीवन भर की कमाई दौलत थी वह भावविभोर थी।
कविता वर्मा

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