शाम तक जब सब लौटे थके हुए थे।चाय पीते हुए बड़ी बुआजी ने मक्के की गरमा गरम रोटी और लहसुन की चटनी खाने की फरमाइश कर दी।आखिर मायके में खातिरदारी करवाना उनका अधिकार था।खाने की तैयारी चल ही रही थी की शहर से दूर के रिश्तेदार अम्माजी को देखने आ गए।दिन में बुआजी उनके घर मिलने गयीं थीं। अब सिर्फ चाय से तो स्वागत किया नहीं जा सकता था इसलिए छोटे भैया बाज़ार भागे कुछ नाश्ता लाने।दिन भर की शांति एकदम हडबडाहट में बदल गयी।बड़ी बहूजी के बेटे का दूसरे दिन टेस्ट था बातों ठहाकों की आवाज़ से वह पढ़ नहीं पा रहा था आकर मम्मी के पास भुनभुनाया लेकिन क्या किया जा सकता था?
बड़ी दीदी अम्माजी के पास बड़ी भावुक सी बैठी थीं।उन्हें रोते देख कर अम्माजी और बाकियों की आँखों में भी आँसू आ गए। अम्माजी कह कर नहीं पा रही थीं लेकिन समझ तो सब रही थीं।छोटी बुआजी ने पुराने गिले शिकवे निकाल लिए तो बड़ी बुआजी यादों का पिटारा खोल कर बैठ गयीं। सुबह से घर में कोहराम मच गया। बड़ी बहूजी और अम्माजी का 18-20 साल का साथ था उनके दुःख सुख की अम्माजी साथी रही थीं उनका दिल तो अम्माजी को इस हालत में देख कर रोज़ ही रो रहा था लेकिन उन्हें रो लेने की भी फुर्सत कहाँ थी? आज उनका सब्र जवाब दे गया और वे फूट फूट के रो पड़ीं। खूब रो लेने से अम्माजी की सांस उखड़ने लगी सब उनकी देखभाल में लग गए। छोटे भैया उनके पैरों के तलवों की मालिश करने लगे दोनों दीदियाँ हथेलियाँ मलने लगीं बाबूजी ने मुँह में पानी डाला।तभी बड़े भैया को कुछ ध्यान आया उन्होंने सहारा दे कर अम्माजी को उठाया सुबह चाय पिलाने के बाद उनको डकार नहीं दिलवाई थी पेट में गैस भरने से उनकी सांस उखड़ने लगी थी। थोड़ी देर में सब कुछ सामान्य हो गया।
इन सब में छोटी बहू बस अलग थलग सी थीं। शादी के बाद से ही वे बाहर रहीं इसलिए अम्माजी से रिश्ता तो उन्होंने निभाया लेकिन बड़ी बहू जी बहुत जैसा लगाव नहीं रहा। अभी यहाँ रहते उन्हें लगने लगा जैसे उनका यहाँ आना सिर्फ मेहमानों के आने से बढ़ा काम करवाना ही था। हालाँकि वे किसी से कुछ बोलीं नहीं लेकिन अब उनका मन उखड़ने लगा था।लेकिन ऐसे समय में वे अपने पति से कुछ कह भी नहीं सकती थीं।
तुम कितने दिन की छुट्टी ले कर आये हो।बड़े भैया ने छोटे से पूछा।
छुट्टी कहाँ बस कह कर आया हूँ की अम्मा की तबियत ठीक नहीं है जा रहा हूँ।
इतनी छुट्टियाँ है तुम्हारे पास?
नहीं छुट्टियाँ तो ख़त्म ही हो गयी हैं अब तो विदाउट पे हूँ।
देख लो नहीं तो तुम वापस चले जाओ।तुमने देख तो लिया ही है हम लोग हैं ही यहाँ। बच्चों को चाहो तो छोड़ दो या देखो जैसा करना हो।
छोटे भैया असमंजस में पड़ गए बच्चों को छोड़ दें तो उन्हें वापस लेने फिर आना होगा। यहाँ से कोई सीधी ट्रेन भी नहीं है की अकेले आ जाएँ।फिर कितने दिन यहाँ रहना पड़े कौन जाने? बच्चों के स्कूल भी तो हैं।
देखता हूँ कह कर उन्होंने बात टाल दी।
बड़ी दीदी छत पर जा कर फ़ोन पर बात कर रहीं थीं अम्माजी की तबियत तो रोज़ आऊं जाऊं हो रही है अभी सुबह ही ऐसा लगा थी की गयीं ऐसे में छोड़ कर कैसे आ जाऊं?हां मुझे पता है घूमने जाना है लेकिन अभी घूमने चले गए तो जिंदगी भर भाभियाँ कह कर सुनाएंगी।मन तो मेरा भी यहाँ नहीं लग रहा है। अभी नहीं जा पाए तो इस साल तो जाना होगा ही नहीं एल टी सी लेप्स हो जाएगी। गोया अम्माजी से लगाव जैसी बात समय के साथ फीकी पड़ गयी थी अब यहाँ आना सिर्फ भाभियाँ क्या कहेंगी सोचेंगी रह गया था।
दोनों बुआजी सिर जोड़े बैठीं थीं कितने दिन हो गए यहाँ आये खबर तो ऐसे दी थी की बस आज के कल। कितने दिन यहाँ पड़े रहें? अपना घर द्वार भी तो देखना है वहाँ कौन है करने वाला।
दोनों एक दूसरे के कहने की रास्ता देख रही थीं एक कहे तो दूसरी भी जाने की रास्ता निकाले।
छोटी दीदी हालांकि दुखी थीं लेकिन उनके यहाँ सच में परेशानी थी उनकी सास अधिकतर बीमार रहती थीं उन पर घर की जिम्मेदारी आने से वे घबरा रहीं थीं। रोज़ सुबह शाम फोन आ रहे थे अम्माजी की तबियत कैसी है? कब वापस आ रही हो?
काकाजी फोन पर अपनी दूकान का काम काज संभाल रहे थे। मामाजी घर गृहस्थी के झमेलों से दूर थे लेकिन इतने मेहमानों के बीच खास कर दोनों बुआजी के रहते असमंजस्य में थे।
बाबूजी ने घर का एक चक्कर लगा कर माहौल भांप लिया था। वे समझ रहे थे की इतने दिन घर छोड़ कर आना आजकल किसी के लिए आसान नहीं है। उन्होंने काकाजी से कहा तुम्हारे बिना दुकान में परेशानी हो रही होगी तुम निकल जाओ देख तो लिया ही है आगे जो भी होगा खबर करेंगे।
काकाजी के मन की बात मानों कह दी गयी हो फिर भी प्रकट में बोले छोड़ कर जाने का मन तो नहीं है लेकिन नौकरों के भरोसे दुकान छोड़ना भी ठीक नहीं है शाम की गाडी से निकल जाता हूँ।
दोनों बुआजी मानों इसी क्षण का इंतज़ार कर रहीं थी वे भी कहने लगी भैया अब हम भी चले जाते हैं वहां घर भी देखना है। बाबूजी ने हाँ में सर हिला दिया बड़े भैयाजी को टिकिट का इंतजाम करने को कहा गया। उनकी गाड़ी दूसरे दिन दोपहर में थी। बड़ी बहूजी ने राहत की सांस ली।
शहर के एक रिश्तेदार को खबर करने मात्र से कईयों को खबर हो गयी।उस सारे दिन आने जाने वालों का तांता लगा रहा। छोटी बहूजी भैयाजी से कहना चाहती थीं की हम भी निकल चलें लेकिन उन्हें अकेले बात करने का मौका ही नहीं मिला।अब उन्हें सच में घबराहट हो रही थी वे वहाँ से जाना चाहती थीं। वैसे भी उनकी उपस्थिति का मकसद सिर्फ काम में मदद करना ही था। तो अब जब मेहमान ही विदा हो रहे थे उनका वहाँ रहने का कोई ओचित्य ही नहीं था। लेकिन वे कहें कैसे?
शाम होते तक बड़ी दीदी के घर से भी फोन आ गया की उन्हें भेज दिया जाए कुछ जरूरी काम हैं। बाबूजी ने छोटी बेटी से पूछा की घर में उसकी सास की सारसंभाल करने के लिए कौन है? उसके बिना वहाँ परेशानी हो रही होगी वो भी चाहे तो चली जाए। छोटी दीदी की हालत सांप छछूंदर सी हो रही थी। न जाते बन रहा था न रुकते। कल शाम तक देखती हूँ फिर चली जाउंगी।
कितना अजीब है न इस देखती हूँ का मतलब। अम्माजी की हालत में सुधार की कोई उम्मीद नहीं थी। देखना क्या था की वे पहले जाती हैं या मेहमान।लेकिन ऐसी बातें कही तो नहीं जाती।
मामाजी अम्माजी के पास बैठ कर उनसे ढेर सी बाते करते थे। कभी हंसते तो कभी दोनों भाई बहन रोते। सबके जाने की बात तय होने के बाद बाबूजी अम्माजी को बताने लगे कौन कब जा रहा है। काकाजी जाते समय उनके पास आये कहने लगे भाभी कहा सुना माफ़ करना। जल्दी से ठीक हो जाओ।
रात अम्माजी ने आराम से काटी। लेकिन सुबह उनकी सांस फिर उखड गयी। सबको चिंता होने लगी। बहूजी को सबके जाने के लिए खाना बनाना था। अम्माजी को संभालना था। उधर दोनों बुआजी चिंता में डूबी हुई थीं। क्या करें जाएँ या नहीं? ऐसा न हो की बस जाना और आना ही हो जाये। किराया भाडा लगेगा बार बार आने जाने की परेशानी।
बड़ी बुआजी अम्माजी के पास जा बैठीं और अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कहने लगीं। भाभी रोकने का अच्छा बहाना बनाया है तुमने।अरे जब अच्छी भली थीं तब बुलातीं थोड़ी सेवा करवाते, तुम्हारे हाथ का बना खाना खाते। सालों हो गए तुम्हारे साथ रहे। अब बुलाया तो भी ऐसे की साथ रहे जैसे न रहे,कहते हुए वे सुबकने लगीं। बात बात पर अम्माजी की आँख में आँसू आ जाते थे लेकिन वे शायद इस बात के सतहीपन को समझ रही थीं। अब तो शायद वे भी चाहती थीं की सब चले जाएँ।
दोपहर एक बजे से सबके जाने का सिलसिला शुरू होने वाला था।छोटी बुआजी और बड़ी दीदी स्टेशन पर पहुँच गए थे। छोटे भैया उन्हें छोड़ने गए थे। चार बजे छोटी दीदी को जाना था तो शाम सात बजे बड़ी बुआजी को। बड़ी दीदी और बुआजी के जाने के बाद बड़ी बुआजी का बिलकुल मन नहीं लग रहा था। समय काटे नहीं कट रहा था। छोटी दीदी के जाने की तैयारी हो ही रही थी कि अम्माजी की सांस उलटी चलने लगी मामाजी उनका हाथ पकडे बैठे थे उन्होंने चाय बनाती बड़ी बहू से कहा जमीन पर चटाई बिछाओ। बाबूजी ने उनके मुंह में गंगा जल डाला। छोटी दीदी और दोनों बहूएँ बिलख बिलख कर रो रहीं थीं। बड़ी बुआजी ने ऊँचे स्वर में रो कर अडोस पड़ोस तक खबर पहुंचा दी। आखिर ये भी तो जरूरी था। बड़े भैया को खबर कर दी गयी। समाज के कुछ लोग भी आ गए। दूसरे दिन के काम की रूप रेखा बनने लगी। बड़ी दीदी और छोटी बुआजी को भी जहाँ है वहीँ उतर कर वापस आने को कह दिया गया। घर के लोग और रिश्तेदार रीति रिवाज पूरे करने में लग गए।
अम्माजी को शायद एहसास हो गया था कि उनके रुके रहने से सभी लोग रुके हुए हैं जबकि रुकने की इच्छा किसी की नहीं है। सबको अपने अपने काम अपना घर परिवार देखना है।आज जीवित आदमी के लिए तो समय नहीं है ऐसे में मरते हुए व्यक्ति के लिए इतने दिन जाया कर देना वाकई अखरने वाली बात ही थी। सब रिश्तेदारों की शुभाचिंताओं की असलियत उन्ही सबको दिखाना भी तो जरूरी था।शायद इसीलिए वे यमदूतों को इंतज़ार करवाती रहीं। उन्हें शायद ये भी एहसास हो गया था की अबकी ये सब चले गए तो फिर आना सबके लिए मुश्किल होगा।फिर उनके बेटे बहू अकेले कैसे सब काम संभालेंगे? शायद यही सब सोच कर उन्होंने सोचा चल खुसरो घर आपने .....
badhiya...
जवाब देंहटाएंबेचारी अम्मा जी !
जवाब देंहटाएंबीमारी से उन्हें उतनी तकलीफ नहीं हो रही होगी जो उन्होंने खुली आंख से अपनों को बातें करते देखा। अच्छा ही रहा उनका आंखें बंद कर लेना। ईश्वर कभी किसी मां को ऐसे दिन ना दिखाए, उसके पहले आंख बंद हो जाए वही बेहतर।
ना जाने क्यों बुजुर्गों में जाते- जाते सबको एक बार देखने की इच्छा होती है, मेरी तो मर गई।
बढिया कहानी
बेहतरीन अंदाज़ किस्सा बयानी का बड़ा जीवंत ताना बाना बुना है कथा का एक परिवेश शब्दों ने खड़ा किया है .आभार आपकी टिपण्णी का .
जवाब देंहटाएंबढ़िया कहानी सारी देर से पढ़ी पहली कड़ी भी पढ़ूँगी बधाई आपको
जवाब देंहटाएंबेबसी के आलम का वास्तविक चित्र खींच के रख दिया आपने ...
जवाब देंहटाएंबढ़िया कहानी.वास्तविक चित्र.आभार
जवाब देंहटाएंबहुत बड़िया और दिल को छू लेने वाली कहानी है यह। इस कहानी को पढ़कर मुझे अपनी माँ याद आ गयी। पूरी जिन्दगी वे तुलसी को पानी से सींचती प्रार्थना करती रही कि " चटका की चाल दीजो, पटका की मौत दीजो, ग्यारस को दिन दीजो। अर्थात चलते फिरते और त्वरित देह त्याग। जीवन में एक पल के लिये भी किसी का बुरा न किया न सोचा। किसी को कभी कोई दुख नहीं दिया। ईशवर का न्याय देखिये वे लकवा ग्रस्त होकर 7 वर्षों तक बिस्तर पर रहीं और हम सभी भाई बहनों और बहुओं की सेवा से प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती रही। उनका ईलाज करने वाले डाक्टर ने हमें इस बात के लिये बधाई दी थी कि हमने माँ को घर में नर्सिंग होम जैसा रखा था। हमारे बच्चों ने हमें अपनी माँ की सेवा करते देखा है। अब हम भी अपने अपने बुड़ापे में उनसे सेवा की अपेक्षा रख सकते हैं आगे जो भगवान को मंजूर हो।
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुतीकरण | उम्दा कहानी | बधाई
जवाब देंहटाएंसमय मिलने पर गौर फरमाएं और लेखन पसंद आने पर अनुसरण करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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