बुधवार, 9 नवंबर 2022

बंद रास्ते

 नरेश तैयार होकर बाहर कमरे में आया अर्दली उसका बैग उठाकर तैयार खड़ा था। उसने नंदा पर एक नजर डाली उसे बाय कहा नंदा ने भी उदास सी मुस्कान के साथ जवाब दिया तो चिढ़ गया नरेश लेकिन कुछ बोला नहीं । बेटे के कमरे से म्यूजिक की आवाज बाहर आ रही थी लेकिन बेटा कमरे में था। एक हूक सी उठी जब घर में होता है तब तो डैडी को बाय कहने आ सकता है। कई कई दिन हो जाते हैं बेटे का चेहरा देखे। बेटी तो शायद अभी सोकर ही न उठी हो। 

पता नहीं किस बात की अकड़ है यह बंगला यह शानो शौकत हर जरूरत के लिए रुपये सभी मिलता है फिर भी नरेश का मन खिन्न हो गया। 
बहुत बड़ा अधिकारी है नरेश अपना बचपन अभावों में बिताने के बाद भी वह अपने सपनों की डोर थामे रहा। पढ़ाई  के लिए शहर आया तो फिर गाँव का रुख न किया।  सिंचाई महकमे में अधिकारी के पद पर पदस्थ हुआ तो गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई लेकिन वह नरेश के अंतस को न भिगो सकी। सिंचाई योजना की नहरें गांव तक पहुँचाना सूखा काम था फिर वह खेत क्यों तर करता? कितने ही किसान सरकार की नहीं उसकी बेरुखी से हताश हो फंदे पर लटक गए। उसके बापू तो इतने शर्मिंदा हुए कि एक रात गाँव छोड़कर हमेशा के लिए कहीं चले गए। उसे खबर लगी तो वह गाँव गया था लेकिन माँ द्वारा मुँह पर दरवाजा बंद करने से इतना आहत हुआ कि दरवाजे के उस पार छलनी कलेजे को नहीं देख सका।  
साहब अर्दली ने आवाज लगाई तो वह चौंका। आज उसे यह सब क्यों याद आ रहा है? उसे तो खुश होना चाहिए और वह खुश है भी कि गाँव देहात का कोई अंश अब उसके जीवन में नहीं है। वह पढ़ा लिखा आधुनिक इंसान है जिसके पास धन दौलत पद सम्मान सभी कुछ है। शुरू शुरू में रिश्तेदारों ने उसके यहाँ आने जाने की परंपरा शुरू की जिसे उसने सख्ती से रोक दिया। वह नहीं चाहता था कि उनके देसी रहन-सहन भाषा बोली का प्रभाव बच्चों पर पड़े। नंदा के गंवारू तरीके बदलने में वह झुंझला जाता कभी झिड़क देता तो कभी बुरी तरह अपमानित करता। हूं  तो इसका फायदा तो उसे ही हुआ न आज सोसाइटी की मोस्ट चार्मिंग वुमन है। पोर्च में खड़ी गाड़ी तक की दूरी मापने में वह पिछले 25 बरस का सफर तय कर आया। 
न जाने क्यों आज मन बेहद उदास था। उसने एक नजर दरवाजे पर डाली वह भी उसी की तरह अकेला सूना खड़ा था। उसके साथ से भी उसे तसल्ली नहीं मिली बल्कि उदासी और गहरा गई। उसे याद आया वह देर से उठता था  सुबह बेटा उसे उठाता था कि बस स्टॉप पर पापा छोड़कर आएंगे और वह अर्दली को हुकुम देता बाबा का बैग बोतल लेकर उसे ठीक से बस में बैठाना। नंदा बस स्टैंड पर जाकर खड़ी हो यह उसे पसंद नहीं था। 
गाड़ी आगे बढ़ गई पॉश कॉलोनी में बड़े-बड़े बंगले, पेड़ों और चारदीवारी से घिरे मौन खड़े थे। उनमें कोई स्पंदन नहीं था। गाड़ी कॉलोनी से बाहर निकल गई। सड़क के एक छोटे से टुकड़े के किनारे मजदूरों के मकान बने थे। यहाँ हमेशा गाड़ी की गति धीमी हो जाती है। उसने देखा एक मजदूर अपने तीन बच्चों को साइकिल पर बैठाकर चक्कर लगा रहा है। उसकी पत्नी के चेहरे पर असीम आनंद और संतोष छलक रहा है। थोड़े आगे एक सामान्य सा दिखने वाला लड़का अपने बुजुर्ग पिता को सहारा देकर ऑटो में चढ़ा रहा  था। आॅटो के कारण गाड़ी रुक गई ड्राइवर हॉर्न बजाने लगा। और कोई दिन होता तो नरेश झुंझला कर एक भद्दी गाली देता लेकिन आज वह बोल पड़ा रुक जाओ दो मिनट बुजुर्ग व्यक्ति हैं शायद बीमार हैं। बुजुर्ग ऑटो में बैठ गए एक युवती ने अपने पल्लू की गांठ खोलकर कुछ मुड़े तुड़े नोट उस युवक को थमाये। वह शायद लेने से मना कर रहा है उसने उसकी जेब में वे रुपए रख दिये। 
ऑटो आगे बढ़ा गाड़ी ने उसे ओवरटेक किया और फर्राटे से चौड़ी सड़क पर दौड़ने लगी। नरेश का मन पीछे देखे दृश्यों में अटक गया था। अचानक उसे महसूस हुआ कि तरक्की के जिस पायदान को वह अपनी बड़ी उपलब्धि बड़ी उड़ान समझ रहा था वह कितनी बौनी है ? आज वह भले आसमान में है लेकिन उसके पास वापस लौटने को दो घड़ी सुस्ताने को कहीं कोई स्नेह सिक्त दरख़्त नहीं है।
कविता वर्मा

मंगलवार, 1 नवंबर 2022

और बाँध फूट गया

 देवेंद्र भाई को हार्ट अटैक आया है  यह खबर मोहल्ले में आग की तरह फैल गई। पड़ोस के शर्मा अंकल और सुभाष भाई तुरंत गाड़ी में डालकर हॉस्पिटल ले गए ।कार के पीछे तीन चार और लोग भी हॉस्पिटल पहुँच गए थे। मोहल्ले के लोग झुंड बनाकर देवेंद्र भाई की सज्जनता का गुणगान करने लगे। कुछ लोगों ने हार्टअटैक कोलेस्ट्रॉल बीपी के बारे में अब तक का अर्जित ज्ञान उन्डेल कर अपनी विद्वता दर्शाने के इस मौके को लपक लिया तो कुछ डॉ और हॉस्पिटल के बारे में अपनी जानकारी साझा करने को उतावले थे।

 देवेंद्र भाई की पत्नी तो उनके साथ ही  हॉस्पिटल चली गई थीं। आनन-फानन में देवेंद्र को आईसीयू में भर्ती किया गया ऑक्सीजन लगाई गई और बोतल इंजेक्शन की मानो झड़ी लग गई। सभी आईसीयू के बाहर खड़े थे सुभाष भाई हॉस्पिटल की औपचारिकता पूरी करने में लगे थे और देवेंद्र की पत्नी पूजा धड़कते दिल से आँसुओं में डूबी थीं तभी  कॉलेज से उनका बड़ा बेटा छोटी बेटी को लेकर वहाँ पहुँच  गया। आते ही उसने पूछा क्या हुआ? इस समय किसी को कुछ नहीं पता था तो कोई उन्हें क्या बताता ? 
लगभग एक घंटे बाद डॉ बाहर आए उन्होंने बताया कि हल्का सा अटैक था लेकिन अब ठीक है। थोड़ा स्टेबल होने पर एंजियोग्राफी करके पता चलेगा कि कहीं कोई ब्लॉकेज तो नहीं है? हॉस्पिटल का बिल पूजा ने अपने बचाए पैसों से भर दिया था। एक दिन बाद देवेंद्र भाई को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया। 
सुबह शाम मोहल्ले के लोग देखने आते कोई खाना लाता कोई फल फूल रिश्तेदारों के फोन आ रहे थे। देवेंद्र बिस्तर पर पड़े सब कुछ चुपचाप देख रहे थे। ज्यादा बात करने की उन्हें इजाजत नहीं थी और न ही उनका बोलने का मन था। डॉक्टर राउंड पर आए थे नब्ज देख दवाइयाँ बोतल इंजेक्शन में फेरबदल करके उन्होंने पूछा "कैसा लग रहा है?" 
देवेंद्र ने हाथ के इशारे से बताया ठीक है। 
वह पूजा से मुखातिब हुए पहले कभी सीने में दर्द वगैरह हुआ है? बीपी का प्रॉब्लम है? 
"नहीं ऐसा तो कोई प्रॉब्लम नहीं है।" 
"घर या ऑफिस का कोई तनाव?"
" नहीं कहीं कोई तनाव नहीं है।" पूजा ने जैसे याद करते हुए कहा। 
देवेंद्र ने मुँह फेर कर आँखें मूंद लीं। क्या उन्हें सच में कोई तनाव नहीं है? अगर नहीं है तो फिर यह अटैक क्यों आया? वह इस कदर तनाव क्यों महसूस कर रहे हैं? 
बंद आँखों से देवेंद्र भाई गुजरे वाकयों को फिर से देखने लगे। एक प्राइवेट नौकरी जिस पर मंदी की तलवार पिछले कई सालों से लटकी हुई है जिसके कभी भी गिर पड़ने की आशंका से वे हर कदम सोच समझ कर रखते हैं लेकिन घर के खर्चे तो काम होने का नाम ही नहीं लेते। वे कई बार पूजा को आने वाले समय की भयावहता की आशंका से अवगत करवा चुके है लेकिन वह तो जैसे कुछ समझना ही नहीं चाहती। उनकी पोस्ट के अनुसार घर का रहन सहन है लेकिन उसमे बिना एक्स्ट्रा खर्चे के उसे बनाये रखना बहुत मुश्किल भी नहीं है। घर में जरूरत का सभी सामान मौजूद है जिसे अभी बरसों चलाया जा सकता है। उन्हें याद आया पिछले ही महीने बेटे ने कहा था 
" पापा मुझे नई बाइक लेना है 75000 की आएगी" बेटे ने जैसे ही अपनी माँग रखी पत्नी ने तुरंत समर्थन कर दिया। एक बार भी न उनसे पूछा कि इतने पैसों की व्यवस्था कैसे होगी न कहा कि दो साल पहले की बाइक में क्या खराबी है? बेटी भी बड़ी हो रही है उसकी शादी के लिए ज्यों-ज्यों  रुपयों का इंतजाम करते हैं त्यों त्यों शादी के खर्चे बढ़ते जाते हैं। घर के खर्च तो जैसे हर महीने ही बढ़ रहे हैं। पत्नी पूजा से कभी बढ़ते खर्च की बात छेड़ी भी तो उसने बुरा सा मुँह ही बनाया और तुनक कर बोली कि "क्या मैं अपने ऊपर खर्च करती हूँ? अब परिवार है तो खर्च तो होंगे। " कभी कभी वे इन सब से तंग आ जाते मन करता चीख चीखकर अपनी परेशानी बताएं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है वे जानते हैं। 
सुभाष भाई मिलने आए हैं पूजा से पूछ रहे हैं कि पैसों का इंतजाम तो है न? बेटे को लेकर रिसेप्शन पर गए हैं उनकी आ़ँखें भर आईं एक पड़ोसी को चिंता है ऐसी चिंता की आस वे पूजा से हमेशा करते रहे। आँखें मूंदकर उन्होंने आँसू तकिए में छुपा दिए वे मर्द हैं रो नहीं सकते। अगर किसी ने उनके आँसू देख लिए तो सब घबरा जाएंगे। 
उन्हें याद आया जब वह लगभग आठ नौ बरस के होंगे तब साइकिल सीखते हुए बुरी तरह गिरे  थे। घुटने कोहनी सब छिल गए खून छलछला आया। मुँह जमीन से टकराया जिससे होंठ फट गया। बुक्का फाड़कर रोए थे वे, तब पिताजी ने बुरी तरह घुड़का था क्या लड़का होकर रोता है? लड़के रोते नहीं हैं। कैसे बताते वे कि कितना डर गए थे? कैसे बताते कि गिरने से लगी चोट के अलावा साथी दोस्तों की हँसी और उड़ाई गई खिल्ली का भी दर्द था उन्हें। जब दर्द बताने के लिए रो नहीं सकते आँसू नहीं बहा सकते तो शब्दों में उन्हें कैसे छलकाते? दाँत भींचकर घाव पर हल्दी चूना लगवाते रहे। उसके बाद भी याद रखते कि उन्हें रोना नहीं है वह लड़के हैं और लड़के रोते नहीं हैं। 
बड़े होते होते यारों दोस्तों के बीच भी शान तभी रहती जब विकट से विकट स्थिति में चाहे हेड मास्साब की छड़ी पड़े या टेस्ट में फेल होने पर घर में कुटाई हो रोया ना जाए। दादी जो उनके घावों पर हल्दी चूना लगाती थीं उनकी गोद में सिर रखकर वे उनसे सब बातें कहते थे वे भी कभी उनके रुंआसे होने पर झिड़क देतीं कि लड़के रोते नहीं हैं। उन्हीं दादी के न रहने पर उन्हें जोर से रुलाई आई थी और वह घर के पिछवाड़े के दरवाजे से गाँव के तालाब किनारे बैठे रहे। उस दिन आँसू बहे थे लेकिन इतने छुपकर कि कोई देख न ले। जब उन्होंने देखा कि घर के पुरुष भी सूखी सूनी आँखों से दादी को देख रहे हैं उन्हें खुद पर शर्म आई कैसे लड़के हैं वे?  देवेंद्र ने खुद को धीरे धीरे कठोर करना शुरू किया। कठोर तो वे नहीं हो पाए सुख-दुख परेशानियाँ उन्हें सालती थीं लेकिन उन्होंने अपनी भावनाओं को छुपाना और आँखों को सुखाना सीख लिया था। फिर भी कभी-कभी उनका मन होता कि वह पूजा की गोद में या सीने में सिर छुपाकर खूब रोएं। नई नई शादी में उन्हें झिझक होती मन में डर भी रहता पता नहीं पूजा उनके बारे में क्या सोचे क्या धारणा बना ले? फिर उन्होंने यह ख्याल ही छोड़ दिया। ऑफिस घर खुद की परेशानियाँ वे चुपचाप गटक लेते  और उसका दबाव सीने पर महसूस करते। आज भी वही दबाव उनके दिल को इस दर्द तक ले आया। 
आज हॉस्पिटल से डिस्चार्ज मिलेगा तीन दिन वह कुछ सुकून से रहे। उन्होंने पत्नी और बेटे को खर्च पैसे की चिंता में देखा उन्हें लगा शायद अब वे उनकी स्थिति उनके तनाव को समझ पाएं। हालाँकि उन्हें परेशान देख कर वे भी खुश नहीं हुए लेकिन वक्त जरूरत पर पैसों  अहमियत समझाने के लिए यह जरूरी है यह सोच कर चुप रहे। जिंदगी को मौत की डगर पर जाते देख एक बार फिर उनका मन हुआ था कि वे जोर से रोयें लेकिन इस समय उनका रोना पत्नी और बच्चों को हिला देगा यह सोच कर एक बार फिर उन्होंने अपने आँसू जज्ब कर लिए थे। आज उन्होंने यह सोचा कि अब वे इस तनाव को रोककर नहीं रखेंगे उसे बाहर निकालेंगे। दुनिया को नहीं तो कम से कम घर वालों को तो दिखाएँ। यह सोच कर ही उन्हें बड़ी तसल्ली मिली। 
पापा चलिए ऑटो आ गया बेटे ने उन्हें सहारा देकर खड़ा किया उनकी चप्पलें सीधी की और बेटे का सहारा लेकर देवेन्द्र फूट-फूट कर रो पड़े।
कविता वर्मा

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2022

भोलू जी उठा

 भोलू मेरा तौलिया कहाँ है? भोलू मेरी बाइक साफ कर दी? भोलू मेरे जूते पालिश कर दे। कॉलोनी के उस घर से रोज सुबह से ऐसी ही आवाजें आतीं जो दोपहर होते तक भोलू छत पर कपड़े सुखा दे भोलू  गेहूँ पिसवा ला सब्जी ले आना पिंकी को कोचिंग छोड़ दे पौधों को पानी दे दे कपड़े उठा ला से होती हुई शाम तक भोलू बिस्तर लगा दिए? करता क्या है  सारे दिन? बिल्कुल अकल नहीं है इसमें काम के नाम पर जी चुराने लगता है की झिडकियों पर खत्म होतीं। अगली सुबह फिर उन्हीं जुमलों से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होती।

 भोलू मिश्रा परिवार का सबसे छोटा बेटा जो अपने माता-पिता दो भाई भाभी और एक भतीजी पिंकी के साथ शहर की उस मध्यमवर्गीय कॉलोनी में रहता है। गोलू के पिता मिश्रा पंडित जी किसी सरकारी विभाग में अपनी अकाउंटेंट की नौकरी से रिटायर होकर आजकल पूजा-पाठ जप हवन के द्वारा अपने यजमान से मोटी कमाई कर रहे हैं।  दोनों भाई पढ़ लिखकर प्राइवेट कंपनी में लग गए हैं जहाँ अपने परिवार को पालने लायक तनख्वाह पा जाते हैं। सबसे छोटा भोलू बचपन से ही बहुत बीमार रहा फिर माँ का लाडला भी जिन्होंने उस पर पढ़ाई लिखाई का कोई जोर न दिया। नतीजा यह हुआ कि वह पढ़ाई में पिछड़ता ही गया और जैसे-जैसे तृतीय श्रेणी से दसवीं पास करके उसने पढ़ाई छोड़ दी। उस समय पंडित जी दोनों बड़े बेटों की नौकरी और शादियों की खुशियाँ मनाने में ऐसे मगन थे कि छोटे भोलू पर उनका ध्यान ही न गया। माँ अभी भी सबसे छोटे बेटे के लाड़ और मोह में ऐसी अंधी थी कि उसके भविष्य के बारे में कुछ सोच ही नहीं पा रही थी। 
भोलू की जिंदगी उस कठपुतली के समान थी जो रोज परिवार वालों के इशारे पर दिनभर नाचती थी और शाम को अपने बक्से में तह करके रख दी जाती थी दूसरे दिन फिर से इशारों पर नाचने के लिए। उसकी अपनी इच्छा अपनी कोई चाह या सपने नहीं होते। उसका कोई भविष्य नहीं होता। भोलू के भविष्य के विषय में भी कोई नहीं सोचता था। उसकी कम अक्ली पर सबको भरोसा था कि वह भी कुछ नहीं सोच पाता होगा। लेकिन ऐसा सोचने वाले यह नहीं सोच पाते थे कि अगर वह सचमुच बेअकल है तो वह इतने काम कैसे कर पाता है? 
भोलू खुद क्या सोचता है वह खुद भी समझ नहीं पाता। एक दोपहर भोलू घर से निकला और पास के एक मंदिर के बगीचे में जा बैठा। वह आज बहुत उदास था। सुबह-सुबह बड़े भैया ने फिर पंडित जी ने उसे डाँट दिया। सुबह से इतने काम थे कि वह चाय भी नहीं पी पाया वह पड़े पड़े ठंडी हो गई। भाभी ने ठंडी चाय देखकर उसे फिर डाँट दिया कि जब पीना नहीं तो बनवाई क्यों? खुद तो कुछ कमाते नहीं हो मुफ्त में मिल रहा है तो गर्रा रहे हो। भाभी की बात सुनकर माँ भी चुप रहीं उनकी चुप्पी भोलू को आहत कर गई। 
इस बात और चुप्पी ने भोलू को सोचने पर मजबूर कर दिया। वह कमाल नहीं रहा वह जो दिन भर काम करता है दो टाइम खाना और दो जोड़ी कपड़ों के बदले उससे उसे कोई कमाई नहीं हो रही है। उसे जाने क्यों याद आ रहा है कि जब भी उसे कुछ लेना होता वह माँ से पैसे मांगता है और वह दस सवाल जवाब के बाद उसे पैसे देती हैं। उसे डर रहता है कि कहीं जेब में पैसे होने से भोलू बिगड़ न जाए।
 आज उसे न जाने क्यों ढेरों पुरानी बातें याद आ रही हैं। बड़े भाइयों के काम उनकी डाँट उनकी दुत्कार पंडित जी का उसे देखकर हमेशा अफसोस जाहिर करना। माँ का हमेशा चुप रहना और मानों उसे लेकर एक अपराध बोध से भरे रहना।
 आज भोलू सोच रहा है कि वह क्या है क्या कर रहा है क्या करना चाहता है? उसे आश्चर्य हो रहा था कि आज तक उसने कभी अपने बारे में कैसे नहीं सोचा? तभी किसी के हँसने की आवाज आई। पार्क में पेड़ के नीचे एक जोड़ा बैठा था जो किसी बात पर जोर से हँस रहा था। भोलू  उन्हें देखकर सोचने लगा वह पिछली बार कब हँसा था? बहुत सोचने पर भी उसे याद नहीं आया कि वह कब हँसा था? उसे तो यह भी याद नहीं आया कि वह रोया कब था? घुड़कियाँ तो उसे रोज ही मिलती थीं वह इनका आदी हो गया था और शायद इसीलिए कोई बात उसे खुशी या दुख नहीं देती थी। आज वह वाकई दुखी हो गया था भाभी के तानों के बजाय माँ की चुप्पी ने पिता की उदासीनता ने उसे आहत किया था और वह अपने होने का अर्थ खोजने लगा था। 
उस दिन भोलू देर तक पार्क में बैठा रहा अब उसने हर दिन दोपहर में पार्क आने का नियम बना लिया था। यहाँ बैठकर वह कुछ देर खुद के साथ बैठता था लोगों को हँसते बोलते बच्चों को खेलते देखता और खुश होता। दोपहर में घर में बहुत ज्यादा काम नहीं रहता था सभी लोग आराम करते थे इसलिए किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। 
उस दिन उसकी बेंच पर उसी का हमउम्र एक लड़का बैठा था। भोलू उसे देखकर कुछ ठिठका फिर झिझकते हुए बेंच के किनारे पर बैठ गया। वह लड़का थोड़ा खिसक गया। अनायास ही उनकी बातें शुरू हो गईं। क्या नाम है क्या करते हो से शुरू हुई बातें एक सुकून सा देने लगीं भोलू को। उसने स्कूल छोड़ा उसके बाद से किसी ने उससे इस तरह बात नहीं की। स्कूल में भी उसके बहुत सारे दोस्त नहीं थे बस एक ही दोस्त था जो अब कहाँ है उसे नहीं पता। 
वह लड़का शेखर पास के एक ढाबे में वेटर था। इस शहर में नया और अकेला था तो दोपहर का कुछ समय यहाँ काटने चला आता। उससे बात करके भोलू को पता चला कि काम करके पैसे कमाए जाते हैं। वैसे पता तो उसे पहले से था लेकिन उसने कभी अपने किये काम की महत्ता नहीं समझी थी। घर में किसी ने भी नहीं समझी थी वह तो खैर है ही कम बुद्धि। लेकिन घर में बाकी सब तो समझदार हैं उन्होंने भी नहीं बताया कि उसका काम महत्वपूर्ण है। शेखर से बात करते हुए भोलू की भी इच्छा हुई कि वह पैसे कमाए लेकिन कैसे वह तो कम अक्ल है। उसे कौन काम देगा? 
शेखर ने उससे पूछा था वह क्या क्या कर सकता है? 
"कुछ नहीं" यही जवाब सूझा था उसे। 
"कुछ तो कर सकता होगा" शेखर ने उसे उत्साहित करते हुए पूछा। घर में कुछ तो करता होगा। 
भोलू फिर सोच में पड़ गया घर में जो करता है क्या वह काम है? घर में तो आज तक किसी ने नहीं कहा कि वह कोई काम करता है। उसने बताया कि वह जूते पॉलिश करना गाड़ी साफ करना बिस्तर बिछाना उठाना जैसे तमाम काम करता है। हाँ कभी-कभी जब भाभी काम नहीं करती वह माँ के साथ खाना भी बनाता है। 
"तुम्हें खाना बनाना आता है?" शेखर ने उत्साहित होकर पूछा। 
"हाँ आता है।" 
"फिर तो तुम्हें काम मिल सकता है। मेरे ही होटल में एक असिस्टेंट की जरूरत है अच्छे पैसे भी मिलेंगे।" 
भोलू की आँखों में चमक आ गई वह खुद कमाएगा लेकिन घर में कैसे बताएगा? पता नहीं सब क्या कहेंगे? वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि घर में बात करे। 
शेखर ने ही सुझाया तुम पहले होटल में बात कर लो। अगर बात बन जाती है तो कुछ दिन बिना किसी को बताए काम करो। जब पैसे लेकर जाओगे तो कोई कुछ नहीं कहेगा। भोलू की आँखें चमक उठीं उसने सोच लिया कि अब वह वह काम करेगा जिसका कोई मोल हो। अब वह खुद कमाएगा चाहे घरवालों से झूठ बोलना पड़े चाहे छुपाना पड़े। वह उठ खड़ा हुआ होटल जाने के लिए। कठपुतली में जीवन का संचार होने लगा था।
कविता वर्मा

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2022

जो तुम न होतीं

 अंदेशा तो पहले ही था और आज वह बुरी खबर आ ही गई कुसुम नहीं रही। 15 दिन मौत से जूझने के बाद उसने हार मान ली ।महेश बाबू पत्नी के साथ तुरंत रवाना हो गए। पत्नी बार-बार आँसू पोंछती और वे खामोश हैं मानों मन ही मन सोच रहे थे कि वहाँ जाकर क्या करना है और क्या कहना है या क्या नहीं कहना? या शायद सोच रहे हों कि उनसे कहाँ गलती हुई? वैसे ऐसा सोचेंगे इसकी संभावना कम ही थी फिर भी वह चुप थे गहरे सोच में डूबे हुए। 

लगभग 15 दिन पहले खबर आई थी कि कुसुम सीढ़ियों से गिर गई है। सिर फट गया है अस्पताल में भर्ती है बहुत खून बह गया है और महेश बाबू पत्नी को लेकर तुरंत चल पड़े थे। अस्पताल में बिस्तर पर जो पड़ी थी वह खुद की बेटी है यह स्वीकारने में समय लगा था उन्हें। पीला चेहरा निस्तेज आँखें जिनमें उन्हें देख कर कोई खुशी कोई आशा नहीं उभरी थी। धक्का लगा था उन्हें लेकिन वे खामोश रहे शायद कमजोरी की वजह से है सोच कर खुद को तसल्ली दी थी।  दो दिन रह कर लौट आए थे कुसुम को साथ लाने की चर्चा भी नहीं की थी उन्होंने। सालों नौकरी घर परिवार की जद्दोजहद में गुजर गए अब रिटायरमेंट के बाद फिर इस झंझट में कौन पड़े? बेटी के ससुराल में सास ससुर हैं पति हैं जेठ जेठानी हैं सब संभाल लेंगे वह बहू है उनके घर की। 
बरामदे में अर्थी सजी हुई थी कुसुम को उस पर लिटा दिया गया था। लाल साड़ी बड़ी बिंदी नथ टीका बिंदी सीने पर बड़ा सा मंगलसूत्र हाथ भर लाल चूड़ियाँ बहुत सुंदर लग रही थी वह। चेहरा भी भरा भरा लग रहा था वह पीलापन पिचके गाल कहीं नजर नहीं आ रहे थे। मरने के बाद शरीर फूल गया था शायद। सिर का घाव पल्ले से छुप गया था। 
ऐसी ही तो लग रही थी कुसुम जिस दिन दुल्हन बनी थी। कैसे बिलख बिलख कर रोई थी विदा के समय। महेश बाबू धम्म से उसके बगल में बैठ गए। उसके गाल पर हथेली रखी उसका ठंडापन उन्हें भीतर तक सिहरा गया। उन्होंने साथ लाई बनारसी साड़ी उस पर उड़ा दी। सुहागन सुहाग लेने लगीं वह परे हट गए।
अंतिम संस्कार के बाद स्नान के बाद दामाद पुनीत ने कहा पापा जी आप अंदर मेरे कमरे में आराम करें वे अंदर आ गए। अभी तक की बातचीत से यही पता चला कि सिर का घाव भरने लगा था कुसुम ठीक हो रही थी लेकिन फिर उसके फेफड़ों में पानी भरने लगा और हालत बिगड़ती रही। एक दिन वेंटिलेटर पर रही और कल शाम उसने दम तोड़ दिया। 
कमरे का बिखरापन स्वामिनी के बीमार होने की चुगली कर रहा था। कपड़े जूते तौलिया मैली चादर दीवार पर लगी शादी की फोटो पर जमी धूल बता रहे थे कि कोई उनकी सुध लेने वाला न था। वह लेट गए पर नींद कहाँ थी आंखों में। थोड़ी ठंड सी लगी पत्नी ने चादर निकालने के लिए अलमारी खोली तो कपड़े भरभरा कर उस पर गिर पड़े। उन्हें  चादर देकर वह कपड़े जमाने बैठ गई नींद चैन तो उसका भी गायब था। महेश बाबू पत्नी को देखते रहे एक सूनापन घर कमरे और उनके भीतर व्याप्त था। न जाने कब उनकी आँख लग गई। 
शाम हो चुकी थी बाहर बैठक में घर परिवार के लोग रिश्तेदार सभी बैठे थे वह भी वहाँ बैठ गए। अगले दिन सुबह उठावने के बाद दोपहर में ही जाने का निश्चय उन्होंने कर लिया था। वापसी में जाने से ज्यादा सन्नाटा था वह घर जाकर भी सहज नहीं हो पा रहे थे। पत्नी बैग में से कपड़े निकाल रही थी तभी उनकी नजर उस डायरी पर पड़ी। 
"यह क्या है" उन्होंने पूछा। 
"यह डायरी कुसुम के कपड़े जमाते समय मिली थी उसका नाम और लिखावट देखी तो चुपचाप बैग में रख ली। न जाने क्या लिखा हो शायद इसे पढ़कर पता चले कि क्या कुछ होता रहा उसके साथ? उसने तो कभी बताया नहीं।" कहते हुए पत्नी सुबक पड़ी। उन्होंने डायरी उठा ली और पन्ने पलटने लगे।  
डायरी के पहले पन्ने पर बेहद खूबसूरत फूलों के गुलदस्ते के बीच कुसुम का नाम लिखा था। महेश बाबू ने पन्ने पलटना शुरू किए। 
डियर डायरी 
आज मम्मी से ड्रेस डिजाइनिंग का कोर्स करने की बात कही थी जिसे बड़ी मायूसी से मम्मी ने मना कर दिया। अगले साल भैया का इंजीनियरिंग में एडमिशन करवाना है न जाने कौन सा कॉलेज मिले? किसी प्राइवेट कॉलेज में हुआ तो उसकी फीस भी ज्यादा होती है। भैया की पढ़ाई जरूरी है उसे नौकरी करना है मेरी पढ़ाई पर इतना खर्च फिर मेरी शादी के लिए पैसे बचाना कैसे कर पाएंगे? मैंने अपनी इच्छा को अपने ही अंदर दफन कर दिया दोबारा कभी इसका जिक्र तक न किया। 
डियर डायरी 
आज पापा के दोस्त आए हैं बातचीत में उन्होंने कहा यार लकी है बस एक ही लायबिलिटी है और पापा ठहाका मारकर हंस दिए। भैया का तीन साल से इंजीनियरिंग में सिलेक्शन नहीं हो रहा है उनकी कोचिंग ट्यूशन में हर महीने हजारों रुपए लगते हैं उनकी संगत को लेकर आप हमेशा चिंतित रहते हो लेकिन जिम्मेदारी सिर्फ मेरी महसूस करते हो पापा। 
भैया को मोटरसाइकिल सीखना है। आपने अपने दोस्त से लेकर उसे बाइक चलाना सिखाया फिर खुद का स्कूटर बेचकर बाइक खरीद ली। जब मैंने स्कूटर सीखने की बात की आप हंसकर टाल गए यह कहकर कि हाथ पैर टूट गए तो कौन तुझसे शादी करेगा? सारी जिंदगी तुझे बिठा कर खिलाना पड़ेगा। आपके लिए तो यह हँसी की बात थी पापा लेकिन मुझे गहरे तक चुभ गई। आपने हँसी हँसी में बता दिया कि मैं पराई हूँ और आपके घर में मेरे लिए पूरी जिंदगी के लिए जगह नहीं है। आपकी और मम्मी की हँसी देर तक चुभती रही। 
महेश बाबू पढ़कर सन्न रह गए हँसी मजाक में कही बातें ऐसे भी चुभती हैं यह तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। उन्होंने डायरी के कई पन्ने पलट डालें। 
डियर डायरी 
आज पुनीत जी ने बाइक न देने की बात पर आप को लेकर बहुत खरी-खोटी सुनाई बहुत बुरा लगा सुनकर। मैं जानती हूँ भैया की नौकरी के लिए सिफारिश रिश्वत में आपका बहुत पैसा लग गया है। पिछली बार मम्मी से कहा था कि बाइक का वादा पूरा नहीं होने से सबकी बातें ताने सुनने पड़ते हैं। उन्होंने यह कहकर बात खत्म कर दी कि बेटा तुम्हारी शादी में बहुत खर्च हो गया अब अपने घर की बातें खुद संभालना सीखो। भैया की सब बातें तो आप लोग संभालते हो पापा फिर मैं ही क्यों पराई हूँ? आपकी परेशानियाँ देखकर मैंने सबके ताने सबकी बातें सुनना सहना सीख लिया है। 
डियर डायरी 
मम्मी का ऑपरेशन है। भैया शादी के बाद अभी नौकरी पर गया है उसे छुट्टी नहीं मिलेगी आपने मुझे बुलवा भेजा है। घर में इस बात को लेकर बहुत बहस हुई मैंने सबके हाथ पैर जोड़े रोई गिड़गिड़ा तब आने की इजाजत मिली। 15 दिन घर का काम मम्मी की देखभाल, शादी के बाद पहली बार इतने दिन आपके यहाँ रही। आपके और मम्मी के मुँह पर भैया की व्यस्तता की चिंता और उसके द्वारा ऑपरेशन के लिए भेजे गए ₹10000 की तारीफ ही रही। मेरी सेवा का कोई मोल नहीं है पापा क्योंकि मैं तो पराई हूँ। 
डियर डायरी  
भैया भाभी आठ दिन की छुट्टी लेकर आए हैं यह बात उनके वापस जाने के बाद पता चली। मम्मी ने फोन कर घर के सूनेपन और खुद की उदासी को बहलाना चाहा। मम्मी ने बड़े उत्साह से बताया कि एक दिन ओंकारेश्वर महेश्वर घूमने गए थे। मम्मी ने यह भी कहा कि कितना अच्छा लगता है न जब पूरा परिवार साथ रहता है। पूरा परिवार!!! जिसमें मैं शामिल नहीं हूँ। जिसके साथ रहने के लिए आपने एक बुलावा भेजने की जरूरत नहीं समझी। 
डियर डायरी 
छोटी-छोटी बातें तो रोज ही होती हैं अब धीरे-धीरे बहुत सारी चीजों को बर्दाश्त करना सीख लिया है। अब दिल का एक हिस्सा धीरे-धीरे मरता जा रहा है। जब शरीर का एक हिस्सा मरने लगे तो दूसरे हिस्से में कोई बीज कैसे अंकुआ सकता है? पुनीत जी की दूसरी शादी की बातें फुसफुसाहटों के रूप में मुझ तक पहुँच रही हैं या शायद जानबूझकर पहुंचाई जा रही हैं। इस आधार पर तलाक तो मिल नहीं सकता और इसका इलाज बहुत महँगा है। पुनीत जी और घरवाले यह खर्च उठाना नहीं चाहते। आप से खर्च लेने की माँग करते हैं जो आपसे मैंने कभी नहीं कहा। अब मैं आपको कुछ नहीं बताना चाहती हूँ। अब मेरा जो होगा  सिर्फ मेरा होगा। 
डियर डायरी  
किन शब्दों में तुम्हारा शुक्रिया अदा करूँ? तुमने मेरी वह सब बातें सुनी मुझे समझा जिसे मैं किसी से नहीं कह सकती थी। लगता है अब मेरा और तुम्हारा साथ यहीं समाप्त होने वाला है। 
तुम्हारी कुसुम 

कविता वर्मा

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

मुक्ति

 एंबुलेंस रुकते ही कमर में जोर का झटका लगा दर्द की एक तीखी लहर रीढ़ में दौड़ गई जिसे अधबेहोशी में भी रीना ने महसूस किया। दरवाजा खुला रोशनी का एक कतरा मुंदी आँखों पर पड़ा उसने आँखों को हथेली से ढंकने का सोचा लेकिन वह इतनी निढाल इतनी बेदम थी कि हाथ हिला भी नहीं सकी । अपने आसपास हलचल सी महसूस की उसने और अचानक लगा जैसे पृथ्वी डोल रही है। उसका पूरा  शरीर ही हिल रहा था इस हिलने डुलने में कुछ चेतना सी आई उसने आँखें खोलने की कोशिश की लेकिन तेज रोशनी ने आँखें खोलने नहीं दीं। आसपास तेज आवाजें आ रही थीं जो शोर बन कानों में समा रही थीं लेकिन किसी स्पष्ट रूप में समझ नहीं आ रही थीं। अचानक वह  डोलती धरती किसी सतह पर टिक गई एक झटका सा लगा लेकिन राहत सी महसूस हुई। दर्द अभी चित्कारें मार रहा था। शायद अंदर बहने लगा था वह बहता हुआ महसूस कर रही थी क्या था वह राजीव का प्यार बेटी रूही के लिए ममता या परिवार वालों की आकांक्षा कुछ समझ नहीं आ रहा था। 

किसी ने उसका हाथ पकड़ा सिहर गई वह। यह तो वही चिर परिचित स्पर्श है जिसे उसके पिता ने उस हाथ में दिया था। नरम मुलायम और गर्म जिसे थाम सोती थी तो बेसुध नींद आती थी। वह फिर सो जाना चाहती थी उस स्पर्श को भीतर उतार कर तभी उसका हाथ छोड़ दिया गया। अकुला गई  वह। घर्र घर्र के शोर के साथ वह उस स्पर्श से दूर ले जाई जा रही थी। एक अनंत सुरंग में घुसती सी। पलकों पर तेज रोशनी के कतरे पड़ते हल्के होते होते फिर तेज हो जाते और फिर वह एक अंधेरे कक्ष में पहुंच गई। 
अचानक सभी आवाजें बंद हो गईं अंधेरा निस्तब्धता ने उसे  डरा दिया उसने फिर जोर लगाकर आंखें खोलना चाही लेकिन सफल नहीं हुई। उसने शरीर ढीला छोड़ दिया या शायद अब उसकी सारी ताकत चुक गई थी इसलिए शरीर ढीला पड़ गया। 
देर तक ठहरे इस अंधेरे सन्नाटे ने उसे दूर कई बरस पीछे धकेल दिया। पहली बार उसकी कोख में हलचल हुई थी खुशी के मारे पूरा परिवार बौरा गया था। तीसरी पीढ़ी के आगमन के आहट की खुशी कभी-कभी फुसफुसाहटों में उस तक पहुँचती रही। टेस्ट बेटा पहला बच्चा उसके अंदर बच्चे के कोख में घूमने से उठती आनंद की हिलोरों के साथ डर की लहरें भी पैदा करते रहे। इसी डर ने उसे इस कदर जकड़ लिया कि दर्द के समय शरीर ढीला ही नहीं हो सका और एक बार पहले भी वह ऐसे ही घुप अंधेरे ठंडे कमरे में पहुँचाई गई थी। रीढ़ की हड्डी में दिया वह इंजेक्शन अभी भी टीसता है लेकिन इसका जिम्मेदार कौन है वह समझ नहीं पाती। 
आसपास हलचल शुरू हो गई कॉटन कपड़े खून डॉक्टर नर्स की आवाजों ने उसे वर्तमान में खींचा। उसे लगा कि वह कहीं हवा में स्थिर है और बंद आँखों से सब देख रही है। उसके कपड़े काटे जा रहे हैं हाथ पर नस ढूंँढ कर बाटल लगाई जा रही है। नसों में कुछ रिसना शुरू हो गया है बेटी को गोद में लेकर ऐसा ही कुछ रिसा था सबके मन में। लक्ष्मी आई है अब पहली बार में जो हो जाए भगवान की मर्जी है। मायूस हो गई थी वह जैसे बेटी पैदा करके कोई भयंकर भूल कर बैठी हो। उसे गोद में लिए घंटों निहारती थी सोचती थी इतनी मासूम आँखें भोली मुस्कान देख कर कोई कैसे अफसोस कर सकता है? धीरे-धीरे बेटी की किलकारी में सभी अवसाद भूल गए और साल भर बीतते न बीतते उसके लिए भैया की चाह सिर उठाने लगी। काँप जाती थी वह अभी तक सुन्न शरीर पर कुछ होते रहने की दहशत से उबर नहीं पाई थी। ऑपरेशन के टांके कभी-कभार टीस उठते थे।  वह चाहती थी राजीव उन्हें सहलाये उससे पूछे उसमें दर्द तो नहीं होता लेकिन वह अपनी इच्छा पूर्ति के बाद करवट बदल कर सो जाता था। उन क्षणों में भी वह रूही के लिए भाई परिवार का वारिस जैसी बातें कर उसमें बेटे के लिए भावना का प्रवाह करता था। शायद यह मेडिकल साइंस से इतर कोई इलाज था बेटे की चाह पूरी करने का। 
अबॉर्शन सी स्थिति है युटेरस बहुत कमजोर है वजन नहीं ले पा रहा। दो साल में तीन बार लिंग परीक्षण बेटी फिर बेटी अवांछित बेटी हर बार अपने अंश को मशीनों से कटवा कर अपनी आत्मा के एक अंश को मारती कोख को हर बार मशीन कटर की खरखराहट से थर्राते हुए वह जानती थी कि उसे कितना कमजोर कर चुकी है। 
बार-बार कहना चाहा राजीव से अब बस अब और शक्ति नहीं बची है मुझ में नहीं चाहिए बेटी तो बेटा ही क्यों जरूरी है? लेकिन राजीव के पौरुष का विश्वास उसे चुप कर जाता देखना अबकी बार बेटा ही होगा। अब उन क्षणों में अंतरंग कुछ नहीं रहा था उन्हें परिवार की इच्छा वारिस वारिस होने की जरूरत और पौरुष का दंभ प्रवेश कर चुके थे। वे सभी जब रीना के भीतर प्रवेश करते अपमान से आहत निढाल हो जाती वह। ऐसा लगता मानो सरेराह निर्वस्त्र कर दी जा रही है। आँखों की कोरों से तकिए में जज्ब होता यह अपमान  अपेक्षा उम्मीदों से भरी उन आँखों को कभी नजर नहीं आया। अच्छा सोचो पॉजिटिव रहो जैसे जुमले उसके ऊपर उछाले जाते जिनमें कोई भाव न होता प्रेम का कतरा भी नहीं। 
बहुत जल्दी थी सभी को उसकी स्थिति कभी किसी ने नहीं समझी। चौथी बार घर में उत्सव सा माहौल था पूरा परिवार मंदिर गया घर में कथा करवाई शादी के गठजोड़ पहन कर वह और राजीव हवन पर बैठे। इस बार राजीव की हथेली में अपनी हथेली रखते लिजलिजा सा अहसास हुआ था उसे। मानो तीनों बार के कटे माँस के लोथड़ों पर उसका हाथ रख दिया गया हो। हटा लेना चाहती थी वह उसे लेकिन रखा रहने दिया मन तो सुन्न था ही तन भी कर लिया। हवन निपटते ही थक गई कहते वह कमरे में आ गई। सच में थक गई थी वह। चार साल में चार जन्म जितनी थकान थी उसे। अब उसकी थकान को समझा जा रहा था या शायद उसकी दौड़ को स्थगित कर दिया गया था। 
बहुत मुश्किल है ब्लीडिंग काफी हो चुकी है नहीं बचा पाएंगे। दरवाजा खुला शायद नर्स बाहर गई वह भी जाना चाहती है देखना चाहती है बाहर खड़े राजीव और सास-ससुर के चेहरे। उनके चेहरे की मायूसी शायद एक सुकून देगी उसे। क्या वह भी उन्हीं जैसी निष्ठुर हो गई है? हाँ शायद लेकिन इसमें अस्वाभाविक क्या है? साथ रहते एक दूसरे का स्वभाव अंगीकार कर ही लेते हैं लोग। तिर्यक मुस्कान सी फैली उसके होठों पर। 
मशीन की खरखड़ाहट ने डरा दिया उसे मुस्कान लुप्त हो गई। यह निष्ठुरता उस अजन्मे बच्चे से क्यों? वह तो लड़का है बेटा है मेरा उसे क्यों कोख से निकाला जा रहा है? बच्चा मर चुका है शायद गिरने से सिर पर चोट आई। युटेरस भी कमजोर था बच्चे को ऑक्सीजन सप्लाई बंद हो गई उसकी धड़कन तो पहले ही रुक गई थी। शब्द चीत्कार कर रहे थे युटेरस नीचे खिसक गया उसका मुँह डैमेज हो गया निकालना पड़ेगा। 
नर्स फिर बाहर गई इस बार वह बाहर नहीं जाना चाहती। डर गई है वह अब क्या वह उस घर में जा पाएगी? बंद होते दरवाजे ने मानो उसकी नियति निश्चित की। एक बेटी की माँ बिना कोख बिना किसी उम्मीद के अब वहाँ क्यों और कैसे रहेगी?
 मशीन की खर खराहट बंद हो चुकी है लाइट भी। कमरे में उसके भविष्य जितना अंधेरा है। उसने डॉक्टर नर्स को बाहर जाते देखा अब वह अपने शरीर में निढाल पड़ी है। इतना हल्का क्यों महसूस कर रही है वह? एकदम उन्मुक्त बिना किसी उम्मीद के अब वह अपनी जिंदगी जी सकेगी। राजीव तो साथ नहीं ही देंगे परिवार भी नहीं लेकिन बेटी तो उसके साथ रहेगी। 
दरवाजा खुल रहा है रोशनी का टुकड़ा उसकी पलकों को चीर उसकी आँखों में भरता जा रहा है। भविष्य में फिर इस अंधेरे से नहीं गुजरना होगा वह आश्वस्त है। बेटे ने उसे मुक्ति दे दी।
कविता वर्मा

रविवार, 2 अक्टूबर 2022

सारा जग अपना

 सुबह के 8:00 बज रहे थे ज्ञानम्मा अभी तक उठी नहीं थी। नींद तो बरसों के अभ्यास से सुबह 6:00 बजे ही खुल गई थी लेकिन आज शरीर के साथ मन की हिम्मत भी टूट रही थी। एक-दो बार मन ने धिक्कारा भी था लेकिन फिर मन ने ही समझाया था कि किसके लिए उठना है? कौन सा कुनबा जोड़ रखा है तुमने कि सुबह उठकर रोटी पानी साफ सफाई नहीं करोगी तो दुनिया उलट जाएगी ? पड़ी रहो चुपचाप जब हिम्मत हो तब उठना। प्यास से कंठ सूख रहा था बिस्तर मानो काट रहा था मन कचोट रहा था कि इस बुढ़ापे में बरसों के नियम धर्म छूट रहे हैं। आँखें बरसना चाहती थीं लेकिन सूख चुकी थीं। अब तो कभी पिछली जिंदगी देखने की कोशिश करती तो वह भी धुंधला जाती। 

घर के  बीचो-बीच बने आंगन में धूप फैल चुकी थी। ज्ञानम्मा ने कोशिश करके खुद को बिस्तर से उठाया और सहारा लेकर आंगन में आई। सारा घर सांय सांय कर रहा था। जोर की रुलाई भीतर से उमड़ी लेकिन गले में आकर अटक गई। किसी तरह एक कप चाय बनाई और वहीं आंगन की सीढ़ियों पर बैठ गई। ऐसे सीढ़ियों पर बैठकर दादी सास चाय पीती थीं। 
14 वर्ष  की थी वह  जब तीसरी पीढ़ी की सबसे बड़ी बहू बनकर रुनझुन करती इस आंगन में आई थी। दादा ससुर दादी सास दो चाची सास और 10 ननन देवर की किलकारियों से गूंजता आंगन। सब उसे घेरे रहते। बहुत छोटे देवर ननद उसके हार कंगन को छूकर देखते तो कोई उसकी रेशमी साड़ी को किसी को उसकी हँसी अच्छी लगती तो किसी को आंखें। पति तो उसके भोलेपन पर रीझे रहते। पांचवी तक ही पढी थी वह और पति तेरहवीं चौदहवीं में पढ़ रहे थे। मोटी मोटी काली किताबें देख वे मासूमियत से पूछतीं "यह किताबें काली क्यों हैं?"
"क्योंकि तुम्हारी काली आँखों ने इन्हें देख लिया है।" वह कुछ नहीं समझती पर कुछ समझने सा आभास देकर वहाँ से हट जाती। 
दिन भर घर में ज्ञानम्मा के नाम की आवाज लगती और वे इस कमरे से उस कमरे जाते हुए आँगन में खेल रहे छोटे ननद या देवर की तरफ से पिट्ठू खेल जातीं या बहुत देर से लंगडी का दाम देकर थके रुंआसे देवर की तरफ से दाम दे दो मिनट में किसी को आउट करके आँगन पार कर जाती। ज्ञानम्मा बच्चों की भाभी नहीं सखी सहेली तारक थीं उनकी फरमाइश अब ज्ञानम्मा के जरिए बड़ों तक पहुंचती और पूरी हो ही जाती। ऐसे ही खेलते कूदते तीन ननदों का विवाह किया ज्ञानम्मा ने। तब तक पति वकालत की पढ़ाई पूरी कर चुके थे और उनका नाम बनने लगा था। 
ज्ञानम्मा के चेहरे पर धूप पड़ने लगी तो वे आँगन में लौटीं। आंते कुल बुलाने लगी थीं। कल रात भी तो कुछ नहीं खाया इसीलिए कमजोरी लग रही थी। बुढ़ापे और अकेलेपन ने चिरई सी भूख कर दी थी। ज्ञानम्मा ने किसी तरह उठकर थोड़ा भात चढ़ा दिया टोकनी में पड़े एक दो टमाटर मिर्च गोभी का टुकड़ा उसी में डाल दिए और करछी चलाने लगीं। 
तीज त्यौहार पर बड़ी-बड़ी देगची में भात बनता था इस आँगन में जिसे दो लोग मिलकर उठाते थे। गांँव में चचेरे ममेरे फुफेरे रिश्तेदार भी घर में आते रहते मेला लगा रहता।
चार साल हो गए थे ज्ञानम्मा के ब्याह को अभी तक गोद हरी नहीं हुई थी। दादी चाची माँ सभी को चिंता होने लगी थी लेकिन ज्ञानम्मा को कभी किसी ने एक शब्द नहीं कहा। ज्ञानम्मा उनकी चिंता समझती थी। दादी का विष्णु पुराण सतत चलता था। इसी बीच उसकी दो देवरानी अभी आ गई थीं। ननदों के विदा होने का सूनापन इस आंगन में कभी नहीं व्यापा लेकिन एक चिंता कभी कभी आंगन में तैर जाती वह महसूस करती और मायूस हो जाती।
भात खदबदाने लगा था उन्होंने चुल्हा बंद किया और भात एक थाली में उलट दिया। उसकी भाप में झिलमिलाता  लाशों से पटा आँगन आ गया। उनकी मांँ बीमार थी बार-बार बुलावा आ रहा था। उस दिन भाई उन्हें लेने आया था। माँ का नेह उन्हें खींच रहा था तो इस आंगन का दुलार रोक रहा था। उस शाम गाँव में चन्ना केशव मंदिर में मूर्ति स्थापना थी। पूरा गाँव महीनों से उल्लास में डूबा इस दिन का इंतजार कर रहा था और वे इसी दिन नैहर जाने वाली थीं। उन्होंने भाई को एक दिन रुकने की विनती की लेकिन उसकी परीक्षा थी कैसे रुकता? माँ की अंतिम घड़ी थी उसे कैसे छोड़ता? न जाने  क्यों आँखों में आँसू भर बार-बार मुड़कर वे इस आँगन को देखती रहीं। भात से भाप उठना कम हो गई थी लेकिन मन भर आया था। एक बारगी थाली परे खिसका दी लेकिन फिर देह धरे को दंड समझ एक एक ग्रास मुँह में डालती रहीं। 
माँ उसी की राह देख रही थीं। उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसने दम तोड़ दिया। माँ की चिता ठंडी भी नहीं हुई थी कि वह मनहूस खबर आई जिसे उसे नहीं बताया गया। बदहवास सी पहुंची थी वह घर के दरवाजे पर। आँखों के सामने आँगन तो था ही नहीं। वह आँगन जहाँ दिनभर हँसी किलकारी गूँजती थी मानों सफेद चादर से ढँका था। दादा दादी और छोटी चाची को छोड़कर सभी उसके नीचे थे। मंदिर का प्रसाद जाने कैसे जहर हुआ कभी पता नहीं चला। पूरे गांव से 40 अर्थी उठीं इस सामूहिक विलाप में वह खुद का रुदन सुन ही नहीं पाई या शायद वह रोई ही नहीं पत्थर हो गई। दादा दादी उम्र के कारण और चाची तबीयत के कारण रुक गए थे। उसे नहीं पता मायके जाते हुए वह बार-बार घर आँगन को क्यों देख रही थी? क्या यह आभास था कि आखरी बार इसे खिलखिलाते देख लो? कुछ दिनों तक सब पथरा गया था। 
ज्ञानम्मा ने थाली धो कर रखी। सुबह से घर का दरवाजा नहीं खुला था जो कभी बंद नहीं होता था। अब उसे दरवाजे से किसी के आने की कोई आस भी नहीं रह गई थी लेकिन उन पथराए दिनों को एक बच्चे के क्रंदन ने तोड़ा था। उसने यंत्रवत काम निपटाए थे। दादा दादी टूट चुके थे चाची बौरा गई थीं न पहनने की सुध थी न खाने सोने की। वह सोचती काश वह भी इस तरह सुध बुध खो सकती लेकिन उसे इस का अवसर ही नहीं मिला। उसने दोपहर में उड़का दरवाजा खोला तो उस बच्चे को रोता पाया जिसे पता नहीं था कि उसके माता-पिता कहाँ चले गए? घर का वह दरवाजा फिर खुल गया। ज्ञानम्मा ने गाँव में घूम घूम कर बच्चों को बेसहारा औरतों को इकट्ठा किया। आँगन की किलकारी फिर गूँज उठी। 
थक गई वह अंदर जाकर लेट गई। अब उम्र हो चली है पता नहीं कब आँख मुंद जाए। ज्ञानम्मा की आँखों में वे सब बच्चे  घूम गए उन सब को पढ़ाई नौकरी के लिए उसने खुद खुशी खुशी विदा किया था। उसके जीवन का बड़ा हिस्सा अकेले होने के बाद भी खाली न रहा। चन्ना केशव से शिकायत भी क्या करती उसने इसे उनका रचाया खेल स्वीकार कर लिया था। घर और मन भर गया था उसका। न जाने कैसे दो बूँद आँसू सूखी आँखों की कोरों से बह निकले अब फिर सब खाली हो गया। 
बाहर कोई  जोर-जोर से दरवाजा खटखटा रहा था। एक बारगी डर गई वह। कितनी अकेली है पता नहीं कौन है? धीरे-धीरे सहारा लेकर दरवाजे तक आई। डर के कारण शब्द गले में जम गए। दरवाजा अभी भी पीटा जा रहा था। उसने काँपते हाथों से दरवाजा खोल दिया। बाहर खड़े हुए सब आँगन में आ गए। आँगन में खेलती किलकारी वापस आ गई थी। किसी ने उन्हें बता दिया था कि आज ज्ञानम्मा का दरवाजा नहीं खुला वे खासे चिंतित थे। कोई हाल-चाल पूछ रहा था तो कोई फल-फूल काट रहा था कोई नब्ज देख रहा था। यह ज्ञानम्मा के जीवन भर की कमाई दौलत थी वह भावविभोर थी।
कविता वर्मा

सोमवार, 26 सितंबर 2022

दरख्त

 स्टेशन पर बेचैनी से चहल कदमी करते विनय ने 2 मिनट में न जाने कितनी बार घड़ी देख ली। वह बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहा था। इस इंतजार में बेचैनी थी तो एक डर भी था। डर था कि कहीं कोई जान पहचान वाला उसे देख न ले और देखकर घर पर बाबूजी को खबर न कर दे। वैसे तो आधी रात के 2:00 बजे इसकी उम्मीद कम ही थी लेकिन फिर भी डर तो था ही। विनय ने जानबूझकर यह समय और यह ट्रेन चुनी थी। दिन के समय स्टेशन की चहल-पहल में कोई न कोई जानने वाला मिल ही जाता और नहीं तो स्टेशन के स्टाफ में से कोई बाबूजी को खबर कर देता। सिग्नल हरा हो चुका था विनय ने जेब में टिकट चेक किया पर्स मोबाइल देखा और अपनी अटैची और लैपटॉप बैग को एक नजर देखा। ट्रेन का इंजन धड़ धड़ाता उसके सामने से गुजर गया। ट्रेन की स्पीड कम होते होती भी आधी से ज्यादा ट्रेन उसके सामने से गुजर गई। ए.सी कोच पीछे था उसने लगभग दौड़ लगा दी। डिब्बे में चढ़कर व्यवस्थित भी नहीं हो पाया था कि ट्रेन चल दी राहत की सांस ली विनय ने। ऊपर की बर्थ पर बिस्तर लगाकर लेट कर उसने आँखें बंद कर लीं। 

नींद की जगह विनय की पिछली जिंदगी रील की तरह चलने लगी। शहर के सबसे रसूखदार परिवार का छोटा बेटा विनय दादा ठाकुर विश्वेश्वर सिंह और पिता बशेश्वर सिंह का लाडला उनकी आशाओं का केंद्र बिंदु। परदादा बड़े जागीरदार रहे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक, दादा ने अपनी फैक्ट्रियाँ लगाई जिन्हें पिता ने संभाला और अब बड़ा भाई संभाल रहा है। 

बचपन में दोनों भाई बग्घी में बैठकर स्कूल जाते थे। एक सेवादार क्लास से उनका बैग लाकर बग्घी में रखता। विनय का बड़ा मन करता कि वह भी दूसरे बच्चों की तरह बैग झुलाते चीखते चिल्लाते बातें करते खेलते घर जाए लेकिन ठाकुर परिवार के बेटे ऐसा कैसे कर सकते हैं? बड़ा भाई विजय और विनय बड़ी हसरत से बच्चों को बग्घी में बैठे मुड़ मुड़कर देखते और मुँह लटका कर घर लौटते। घर पर नौकरों की जमात जूते मोजे कपड़े उतारने से लेकर मुँह हाथ धुलाने पोंछने को तैयार खड़ी रहती। दोनों भाई स्कूल के बाद कस्बे के एकमात्र क्लब में क्रिकेट सीखने जाते थे जहाँ उनकी ही तरह धनाढ्य परिवार के बच्चे होते थे। 

नीचे की बर्थ पर से कोई उठकर बाथरूम गया विनय ने करवट बदली। बाबूजी की इच्छा थी कि विनय इंजीनियर बने ताकि वह फैक्ट्रियाँ ठीक से संभाल सके। विजय का मन 11 वीं के बाद ही पढ़ाई से उचट गया था। वह तीन बार की कोशिश में भी इंजीनियरिंग में प्रवेश नहीं पा सका था। निराश दादाजी ने स्कूल के हेड मास्टर को घर बुलवाकर आगे की उसकी पढ़ाई की दिशा तय करने बाबत जानकारी ली और विजय को बीकॉम में एडमिशन दिलवाया। आखिर को फैक्ट्री का हिसाब किताब देखने समझने वाला भी तो कोई चाहिए। विजय कसमसा कर रह गया वह कह हीन हीं पाया कि वह पूरी दुनिया घूमना चाहता है पहाड़ों पर चढ़ना चाहता है समुद्र की लहरों पर सवारी करना चाहता है। परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते उस पर उम्मीदों का इतना दबाव था कि वह अपनी इच्छाओं को सम्मान से सिर उठाने देने की हिम्मत ही न कर पाया। 

गाड़ी धीमे होते होते रुक गई शायद कोई बड़ा स्टेशन था। बाहर से चाय कॉफी वालों की आवाजें आ रही थीं। सभी लोग गहरी नींद में थे। कुछ लोगों के खर्राटे डब्बे में गूंज रहे थे। विनय की आँखों में नींद नहीं थी। वह ठीक तो कर रहा है न? उसने खुद से पूछा जवाब सकारात्मक तो न था लेकिन इसके सिवाय चारा ही क्या था? उसने खुद से पूछा। ट्रेन चल दी थी विनय ने बैग से बोतल निकाल कर पानी पिया और लेट गया। 

जब वह दसवीं में था तब उसे शौक लगा था फोटोग्राफी का। बाबूजी शहर से कैमरा लेकर आए थे। सब की नजर बचाकर वह कैमरा ले जाकर जाता और कभी डूबते सूरज की तालाब की लहरों की अकेले उदास खड़े पेड़ की सिर पर लकड़ियाँ लेकर जाती आदिवासी औरतों की फोटो खींचता। दादाजी उससे बहुत प्यार से अपनी इच्छा बताते कि वह चाहते हैं घर में एक इंजीनियर हो और वह सुनकर उदास हो जाता। वह भी दादाजी से कम प्यार नहीं करता था उनके विराट व्यक्तित्व के सामने खुद की लघुता का एहसास होता था उसे। होता भी क्यों नहीं उसने तो बाबूजी को भी उनके सामने बौना ही देखा। सदैव उनकी आज्ञा को सिर माथे रखते। कभी-कभी विनय सोचता क्या कभी बाबूजी की अपनी कोई राय नहीं होती? कभी कभी उसे महसूस होता कि बाबूजी को दादाजी की बात पसंद नहीं आ रही है क्षणांश को उनके चेहरे पर एक हल्की सी लकीर उभरती और गुम हो जाती। कभी उनकी कोई बात नहीं टालते। ज्यों-ज्यों विनय बड़ा हो रहा था सम्मान के इस रवैए पर उसकी असंतुष्टि बढ़ती जाती और दादाजी की उम्र और रुतबे के अनुपात में 'जी दादा जी' कहकर बात समाप्त करने की आदत भी। 

दादाजी की इच्छा थी उसने गणित विषय लिया उनकी इच्छा थी उसने इंजीनियरिंग में दाख़िला लिया। उनको खुशी नहीं होती इसलिए उसने फोटोग्राफी का शौक छोड़ दिया। कॉलेज केंपस इंटरव्यू में उसे दिल्ली में नौकरी मिली थी। उसने खुशख़बरी देने के लिए घर पर फोन किया फोन बाबू जी ने उठाया। खबर सुनकर उनके मुँह से निकली बधाई बीच में ही अटक गई पीछे से दादाजी की भारी आवाज़ सुनाई दी "अब ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता दूसरों की चाकरी करेगा इतने बुरे दिन न आए हैं अभी। सात पुश्तें बैठकर खाएँ इतना जोड़ कर रखा है मैंने। उससे कहो डिग्री होते ही घर चला आए।" 

अपनी काबिलियत पर गर्व करने का मौका ही नहीं मिला उसे। अपनी कमाई से कुछ करने का ख़्वाब देखते ही चकनाचूर हो गया। उसकी आँखों में आँसू आ गए दोस्तों के साथ पार्टी करने को टाल कर वह एक सुनसान सड़क किनारे घंटों बैठा रहा आँसू बहाता रहा। 

घर आकर पहली बार उसने बाबूजी से मन की बात कही। बताया था उन्हें कि अव्वल तो उसे इंजीनियरिंग करना ही नहीं था, कर ली तो अपने दम पर कुछ करना है। जिंदगी भर ठाकुर विश्वेश्वर सिंह का पोता कहलाने के बजाय अपनी पहचान बनाना है। 

"वह परिवार के वटवृक्ष हैं उनके व्यक्तित्व और स्नेह की छाँव है इसलिए हम इतने सुकून से हैं। कोई चिंता नहीं कोई तकलीफ़ नहीं।" 

"मैं अपनी जिंदगी की तकलीफें खुद उठाना चाहता हूँ। अपनी चिंता खुद करना चाहता हूँ। मैं खुद एक मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ।" 

"तुम्हारे दादा जी की इच्छा का सम्मान करना हमारा फर्ज़ है। "

" और हमारी इच्छा का? उसका सम्मान हम कब करेंगे बाबूजी?" बाबूजी की आँखों में आँखें डाल कर पूछा था उसने और उन्होंने नज़रें झुका ली थीं। 

बरगद के नीचे घास भी नहीं पनपती बाबूजी और मैं तो मजबूत दरख़्त बनना चाहता हूँ। उसने मन में सोच लिया था और बिना किसी को बताए बेंगलुरु की एक कंपनी में नौकरी का आवेदन करके वीडियो इंटरव्यू देकर आज वह चुपचाप घर छोड़ आया था। इस संकल्प के साथ कि एक दिन मजबूत दरख़्त बनकर लौटेगा।

कविता वर्मा 

सोमवार, 19 सितंबर 2022

दौड़

 सुबह गहरी धुंध में लिपटी थी उसमें भीगे पेड़ ठिठुरे से खड़े थे। सूरज भी कोहरे की चादर में लिपटा मानों उजाला होने और धूप निकलने का इंतजार कर रहा था। सुबह के 8:00 बज रहे थे लेकिन लोग अभी भी घरों में दुबके थे। कच्ची सड़क पर इक्का-दुक्का साइकिल या बाइक सवार कोहरे की चादर से इस निस्तब्धता को चीर के गुजर जाते और उनके गुजरते ही सब कुछ मानों फिर जम जाता। मेघना रोज की तरह सुबह 6:00 बजे उठ गई थी। उस समय हवा में जमी धुंध अंधेरे को उजला दिखा रही थी। पक्षी भी पेड़ों के कोटर और घोंसलों में दुबके थे। मेघना ने खिड़की से पर्दा हटा कर उस चंपई अंधेरे को देखा और एक बार फिर बिस्तर में दुबकने का मन बना लिया । लेकिन बरसों की सुबह की सैर की आदत ने उसे उठने को मजबूर कर दिया। उसने केतली में पानी गर्म करके चाय बनाई फ्रेश होकर ट्रैक सूट पहना जूते मफलर टोपी जैकेट पहन कमरे से बाहर आ गई। 

बड़ा भयावह सा अनुभव था कोहरे के उजास को चीरती तो आगे अंधेरा मिलता। वह उस अंधेरे में आंखें गड़ाए दौड़ने की कोशिश कर रही थी लेकिन नहीं जानती थी कि पैर कहाँ पड रहे हैं। आगे सड़क पर गड्ढा है या पत्थर? उसका चेहरा टोपी मफलर कोहरे की पानी की बूंदों से भीगते जा रहे थे।चढ़ाई पर चलने के बावजूद वह शरीर में गर्मी के बजाय ठंड महसूस कर रही थी। ज्यादा देर नहीं दौड़ पाई मेघना और जल्दी ही वापस लौट आई। 
घर आकर गीले कपड़े कुर्सी पर फैला कर कुछ देर एक्सरसाइज की और फिर एक कप चाय बना कर खिड़की के पास कुर्सी लेकर बैठ गई। सुनसान सड़क पर एक जोड़ा हाथ में हाथ डाले लगभग एक दूसरे से लिपटे हुए धीमी चाल से चला जा रहा था। कुहासे के कारण सड़क का सुनसान होना दोनों को अतिरिक्त सुकून दे रहा था। मेघना के होठों पर मीठी मुस्कान तैर गई जो शीघ्र ही एक कड़वाहट में बदल गई। 
ऐसी सुबह प्रेम करने के लिए होती है शेखर का प्यार शुरू शुरू में कितना मधुर लगता था। निहाल हो जाती थी वह कोई इतना प्यार करता है उसे। इसी रास्ते पर मुलाकात हुई थी शेखर से वह अपनी कंपनी की तरफ से एक सर्वे के लिए आया था। छोटे हाइड्रोलिक प्रोजेक्ट लगाने के लिए  संभावना और उपयुक्त स्थान तलाशने। नीचे की ओर जाती इस सड़क के मुहाने के गेस्ट हाउस में ठहरा था। वह एक चमकीली सुबह थी मेघना अपनी पूरी दौड़ पूरी करके लौट रही थी और वह दौड़ शुरू ही कर रहा था। मुस्कान सी आई थी मेघना की चेहरे पर उसे देखकर जिसे उसने छुपाना चाहा पर छूप न सकी। लौटते समय उसे खिड़की पर देखकर शेखर ने हाथ हिलाया तो वह भी जवाब दिए बिना न रह सकी। साथ में सैर कॉफी बातों का सिलसिला कुछ ही दिनों में बेडरूम तक आ गया था। कितना चमत्कारिक लगता था शेखर बात-बात पर ठहाका लगा था उसे हँसाता उसे गुदगुदा ता। 
कम ही उम्र में मेघना से जिंदगी ने क्रूर मजाक किया था। 2 साल की त्रासदी शादी से छुटकारा पाकर वह वापस अपने घर लौट आई थी। साल भर के अंदर ही माता-पिता दोनों चले गए थे। बहुत सूनापन था उसकी जिंदगी में जिसमें शेखर बयार बनकर आया और उसे अपने साथ ले जाने की जिद पकड़ बैठा। इतनी आसानी से भरोसा नहीं करना चाहती थी वह। कुछ जानती ही कहाँ थी वह शेखर के बारे में। जो भी था सिर्फ ऊपरी था घर परिवार माता-पिता उसने तो यही कहा था कि अकेला है यायावर है वह मिल गई ठिकाना मिल गया। पूछा था उसने मोहन चाचा से जिंदगी का इतना बड़ा फैसला अकेले लेने से डरती थी। और उन्होंने आगाह भी किया था लेकिन वही नहीं समझ पाई। शेखर की बातों ने जादू कर दिया था उस पर। सोच ही नहीं पाई कि इन मीठी बातों के भीतर तल्ख सच्चाई भी हो सकती है। 
शेखर के साथ हो ली थी वह सुबह की पहली किरण के साथ उतरे थे वह बस से। उस सुबह पहली बार बरसों का दौड़ने का नियम टूटा था और फिर टूटता ही चला गया। जहाँ रुके थे वह घर नहीं था रेस्ट हाउस था। अकेले इंसान का क्या घर फिर आए दिन टूर पर रहता हूँ इसलिए रेस्ट हाउस में ही डेरा रहता है।  बहलाया था उसने और वह बहल गई कुछ आशंकित सी। कुछ दिनों साथ रहने के बाद दूसरा गेस्ट हाउस फिर शेखर का 8 दिन टूर पर जाना फोन पर छोटी सी बात। दबी आवाज जिसमें औपचारिकता ही ज्यादा थी। मेघना के मन में शक का कीड़ा कुल बुलाने लगा था बहुत झंझावातों से गुजरी थी वह। बहुत मजबूत थी शेखर के प्यार ने उसकी मजबूती को जिस तरह बढ़ाया था मन के शक में उसे कमजोर कर दिया। 
 गेस्ट हाउस की सुनसान अकेली रातों में मोहन चाचा की कही बातें याद आती बेटा मैदानों से भेड़िये पहाड़ों पर आते हैं और हमारे यहां की सुंदर सलोनी भोली भाली लड़कियों को उठा ले जाते हैं। इतनी जल्दी उन पर भरोसा मत करो। माता-पिता न सही कोई तो रिश्तेदार होगा उनकी फोटो नाम पता फोन नंबर कुछ तो होगा। कोई इतनी जल्दी इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकता है? लेकिन मेघना फैसला कर चुकी थी। वह चली आई थी घर बसाने लेकिन गेस्ट हाउस की  अजनबियत उसे मुंह चिढ़ा रही थी। 
उस दिन अचानक उसने शहर घूमने का फैसला कर लिया। वॉचमैन को कहकर टैक्सी बुलाई। वह कहता रहा साहब ने मना किया है वह नाराज होंगे मेरी नौकरी चली जाएगी। मेघना इस कैद से उकता चुकी थी। उसने पर्स उठा लिया  कि वह पैदल चली जाएगी। पांच सात किलोमीटर पहाड़ी लड़की के लिए ज्यादा नहीं होते।  शाम ढलने को थी सड़क और दुकानें रोशनी से जगमगा उठी थीं। वह उस मॉल में चली गई इसकी सजावट ने उसे आकर्षित किया था। दुकानें शोकेस में सजे कपड़े जूते रोशनी लोगों की चहल-पहल आवाजें  उसे जिंदा होने का एहसास करवा रहे थे। तभी एक आवाज ने उसका ध्यान खींचा। तमाम आवाजों को धता बताकर वह आवाज उस तक पहुंची थी। वह जानी पहचानी आवाज जिसे सुनकर वह सुध बुध खो देती थी। उसने पलटकर उस दिशा में देखा। आवाज़ का मालिक अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ सेल्फी लेने में मशगूल था। उसकी आंखों में प्यार था बेशुमार प्यार उनके लिए जिन्हें पता ही नहीं था कि वह उनसे धोखा कर रहा है। पागल सी हो गई वह तेजी से आगे बढ़ी लेकिन ठिठक गई। इस अनजान शहर में अजनबियों के बीच बच्चों के सामने उनके पिता को जलील करने की हिम्मत न जुटा सकी। उस औरत को धोखा देने का धिक्कार खुद को हुआ। उसने धीरे से मोबाइल निकाला उनकी फोटो खींची और टैक्सी कर वहाँ से चल दी। वापसी की टिकट लेकर सामान बांधा और अगली सुबह मोहन चाचा के घर चाबी लेने खड़ी थी। घर पहुंचते ही सबसे पहले उसने ट्रैक सूट पहना और इसी सड़क पर लंबी दौड़ लगाने चली गई । शेखर को फोटो भेज कर उसने नंबर ब्लॉक कर दिया। 
सुबह की दौड़ फिर शुरू कर दी इस प्रण के साथ कि इस क्रम को टूटने ना दूंगी।
कविता वर्मा

गुरुवार, 8 सितंबर 2022

पौने तीन मिनट

 पौने तीन मिनट 

चौराहे के समीप आते-आते वैभव ने सामने सिग्नल पर नज़र डाली मात्र पाँच सेकंड बचे थे उसे लाल होने में उसने बाइक की गति बढ़ा दी लेकिन जब वह स्टॉप लाइन से 50 मीटर दूर ही था सिग्नल लाल हो गया। वैभव ने गति कम करते हुए ब्रेक लगा दिए बाइक जोर से चीं की आवाज करते हुए रुक गई। एक खीज सी वैभव के दिमाग में उभरी फिर वह हेलमेट का ग्लास खोलकर आसपास देखने लगा। 
सुबह के 10:00 बजे थे चौराहा तीखी चमकीली धूप से सराबोर था। सिग्नल के तीन तरफ रुके ट्रैफिक की कतारें 50 से 100 मीटर तक फैली थीं। दोपहिया वाहन वाले धूप में रुकने से झुंझलाये हुए अपना हेलमेट उतार कर सिग्नल हरा होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कार सवार कार का एसी चलाये जहरीला धुआं अपने से कमतर हैसियत वाले बाइक और साइकिल सवारों पर छोड़कर मानों जता रहे थे कि तुम इसी लायक हो। कुछ पैदल चलने वाले आँख बंद कर इस पार से उस पार जा रहे थे उन्हें न लाल बत्ती की परवाह थी न हरी बत्ती की। उनके अचानक बीच में आने से गाड़ियों की गति कहीं धीमी होती कहीं थम जाती। बाइक वाले दाएं बाएं से निकल जाते और चार पहिया वाले मुँह बनाते भद्दी गाली देते और आगे बढ़ जाते। एक सिग्नल के खंबे के पास ट्रैफिक जवान निस्पृह सा खड़ा था वह न तो पैदल चलने वालों को रोक रहा था और न ही स्टॉप लाइन से आगे आकर खड़े या लेफ्ट टर्न रोक कर खड़े वाहन चालकों को। लेफ्ट मुड़ने वाले पीछे से तेज हॉर्न बजा रहे थे लेफ्ट टर्न रोक कर खड़े वाहन इंच दो इंच आगे बढ़ते और रुक जाते। आगे ट्रैफिक जवान का खौफ उन्हें सता रहा था न जाने उदासीन से दिखने वाले इस व्यक्ति का कर्तव्य बोध कब जाग जाए और कब वह गाड़ी साइड में लगवा कर टारगेट पूरा करने लगे। हालांकि गाड़ी साइड में लगवाने के लिए  साइड जैसी कोई जगह उस चौराहे पर नहीं थी। हर सिग्नल पर गाड़ियों के आसपास कुछ बच्चे भीख माँग रहे थे। वह अधिकतर कार के आसपास मंडराते उसके शीशे को थपथपाते उसमें से अंदर झांकते अपनी दयनीय सूरत दिखा कर कुछ पाने की उम्मीद कर रहे थे। बाइक और साइकिल वालों को उन्होंने भी कम हैसियत का समझ कर छोड़ दिया था। 
वैभव ने लगभग 40 सेकंड में चौराहे का यह जायजा ले लिया था। सिग्नल बदल गया था अब दूसरी सड़क से ट्रैफिक चालू हो गया था। अब गाड़ियाँ वैभव के सामने से गुजर रही थीं। चौराहा पार करने की हड़बड़ी उनमें साफ दिख रही थी। कुछ साइकिल वाले अब इस इंतजार से उकता कर थोड़े थोड़े आगे आते हुए स्टाॅप लाइन के तीन चार मीटर आगे तक आ चुके थे और सामने से आ रही गाड़ियों की गति को रोक रहे थे।  
तभी सामने की सड़क से एक बाईस पच्चीस साल की लड़की जिसने हरी पीली साड़ी पहनी थी दुबले पतले शरीर पर उसका बड़ा हुआ पेट बता रहा था कि वह माँ बनने वाली है सड़क पार करके वैभव की दिशा में बढ़ने लगी थी। तीखी धूप ने उसे बहुत परेशान कर दिया था या शायद वह बहुत दूर से बहुत देर से पैदल चल रही थी उसने साड़ी का पल्ला सिर पर लेकर सिर को धूप से बचाने का जतन किया। एक बार आंखें मिचमिचा कर आसमान की ओर ताका और फिर उसके कदम मानो सड़क से उखड़ गए। एक दो कदम आड़े तिरछे रखते वह आगे बढ़ी लेकिन तीसरे कदम पर खुद को न संभाल पाई और बेहोश होकर तपती सड़क पर गिर गई। वह वैभव से लगभग बीस पच्चीस मीटर दूर चौराहे के बीचो बीच सड़क पर गिरी थी। सड़क पार करने वाली गाड़ियाँ थोड़ी धीमी हुई और फिर उसके दाएं बाएं से गुजरने लगीं मानो अगर अभी सिग्नल पार न किया तो वह जिंदगी भर के लिए लाल होकर रह जाएगा और फिर वह कभी यह चौराहा पार करके अपने गंतव्य पर नहीं पहुंच पाएंगे। वैभव के सामने वाले सिग्नल के पास खड़े ट्रैफिक जवान ने अब तक उस औरत को सड़क पर गिरे हुए नहीं देखा था संभवतः वह अपने ही किन्हीं विचारों में खोया था शायद कोई पारिवारिक समस्या में या अपनी पोस्टिंग किसी और विभाग या चौराहे पर करवाने की योजना बनाने की जुगत में। 
अब वैभव के बाएँ तरफ से ट्रैफिक शुरू हो गया वह औरत सड़क के बीच बेसुध पड़ी हरी पीली घास का ढेर लग रही थी। उसकी साड़ी का रंग बिरंगापन गाड़ियों को उसे बचाकर उसके आसपास से निकलने का संकेत दे रहा था। ट्रैफिक जवान की नजर उस पर पड़ चुकी थी वह दौड़ कर उस तक आया और हाथ देकर सीटी बजाकर गाड़ियों को अगल-बगल से निकलने का इशारा करने लगा। वह किसी खाली ऑटो को देख रहा था लेकिन ऑटो वाले सड़क पर पड़ी उस औरत को देखते जवान को देखते तो कभी स्पीड कम करते कभी बढ़ाते किसी कार की आड़ लेते वहाँ से गुजर जाते। वैभव ने आसपास नजर दौड़ाई शायद कोई उस जवान या औरत की मदद करने आगे आए। उसने देखा आसपास बहुत सारे लोगों ने मोबाइल निकाल लिया था कोई फोटो ले रहा था तो कोई वीडियो बना रहा था। बाकी दो सिग्नल पर रुकी सड़कों पर भी कई लोग वीडियो बनाने में मशगूल थे। ट्रैफिक जवान ने झुककर उस औरत को हिलाया डुलाया वह सड़क पर पसर गई। ट्रैफिक अभी भी निर्बाध चल रहा था। सिग्नल पर रुके लोग उत्सुकता और चेहरे पर दया के भाव लाकर फोटो वीडियो लेने में मशगूल थे। कुछ बाइक सवार आपस में बात कर अपने समझदार होने का परिचय बगल में 30 सेकंड के लिए खड़े सवार को दे देने को बेताब थे। कुछ बंद कार में बैठे लोगों को घटना का ब्यौरा देकर पुण्य कमा रहे थे। कुछ गाड़ियों में महिलाएँ निर्लिप्त सी बैठी थीं उनके चेहरे पर एक संतुष्टि थी कि वे अकेले नहीं हैं उनके साथ कोई है जो मुसीबत में उनकी मदद कर सकता है और यह उनकी समझदारी है। उस पर पानी डालो गर्मी से बेहोश हो गई ऐसी हालत में अकेले नहीं निकलना चाहिए किसी को साथ लेकर आती जैसी फुसफुसाहटें हवा में तैर रही थीं। वैभव के पास पानी नहीं था लेकिन लगभग हर कार में पानी था कुछ बाइक सवार भी पानी रखे हुए थे लेकिन उतरकर जाने में सिग्नल हरा हो जाने और फिर लाल हो जाने पर अगले 2:45 मिनट के लिए फिर रुक जाने का डर उन्हें रोक रहा था। हर व्यक्ति दिल में चाह  रहा था कि कोई उस औरत को पानी पिला दे लेकिन वह कोई खुद न हो। 
सिपाही ने मोबाइल निकाला वह एंबुलेंस को फोन लगा रहा था। वह उस औरत को उठाने की कोशिश भी कर रहा था उसे डर था कि गर्म सड़क उसके शरीर पर फफोले ना बना दे। लेकिन उसे यह भी डर था कि न जाने किस एंगल से खींचे गए किसी फोटो या वीडियो में ऐसा कुछ आपत्तिजनक आ जाए कि वह मुसीबत में फँस जाए। वैभव उसकी बेबसी देख रहा था वह उस बेसुध पड़ी औरत के लिए भी चिंतित था। उसका उभरा पेट उसी के वजन से दब रहा था जो नुकसानदायक हो सकता था। उसने सामने देखा लाल सिग्नल बस हरा होने को था। वह सिग्नल लाल होते ही रुक गया था वह सबसे लंबे समय से सिग्नल पर रुका था अब उसे यहाँ और रुकना चाहिए या नहीं वह निश्चित नहीं कर पा रहा था। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ ही जाएगी वह रुक कर क्या करेगा? बाइक पर तो वह उसे ले जा नहीं सकता। उसके रुकने से कुछ नहीं होगा इतने लोग भी तो गुजरे कोई नहीं रुका फिर वही क्यों? कम से कम वह फोटो तो नहीं खींच रहा था उसने खुद को समझाया। वह इस इंतज़ार और उम्मीद में था कि कोई तो उसकी मदद करे  वह कितनी देर सिग्नल पर रुका रह सकता है। उसकी तरफ का लाल सिग्नल हरा हो गया था पीछे से कारों के कान फोडू हार्न उसमें बेचैनी पैदा करने लगे। उसे अब चौराहा पार कर लेना चाहिए। उसने हेलमेट का शीशा बंद किया बाइक में किक लगाया एक नजर अगल बगल से कट मारते चौराहा पार करती गाड़ियों को देखा ट्रैफिक जवान को देखा और बाइक आगे बढ़ाते हुए दाएं तरफ का टर्न सिग्नल दिया और बाइक उस जवान के पास ले जाकर ऐसे रोकी कि सड़क पर पड़ी वह औरत बाइक की छाँव में आ गई। उसने और जवान ने उस औरत को उठाकर सीधा किया और एंबुलेंस का इंतजार करने लगे। 
चौराहे पर सिग्नल बारी-बारी से लाल हरे हो रहे थे और वह अगले कई पौने तीन मिनट वहाँ रुकने का मन बना चुका था।
कविता वर्मा

बुधवार, 7 सितंबर 2022

कड़वी सच्चाई

 अनिल ऑफिस से घर आया तो देखा गली में लोगों की भीड़ लगी थी। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लोग झुंड बनाकर खड़े थे। धीमे धीमे स्वर में होने वाली बातचीत संयुक्त रूप से पर्याप्त ऊंची थी जिसे शोर तो नहीं पर आवाजें कहा जा सके। इन आवाजों में एक खौफ एक अफसोस था और था तनिक सा दुख जिसे महसूस कर अनिल सिहर गया। लोगों के झुंड लगभग हर घर के सामने थे जिससे यह तो पता चल रहा था कि कोई अनहोनी हुई है लेकिन किसके साथ किसके घर हुई है वह यह नहीं जान पा रहा था। वह धीरे-धीरे लोगों के चेहरे पढ़ने की कोशिश करते आगे बढ़ रहा था लेकिन गली में कई बार देखे उन अजनबी चेहरों से कुछ पढ़ नहीं पा रहा था। गली के मुहाने से अब वह काफी अंदर आ चुका था उसकी चाल आसपास खड़े लोगों को देखते काफी धीमी और अटपटी थी लेकिन वह अभी तक वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ था। 

उसके घर के बाहर ओटले पर चार पांच औरतों का जमावड़ा था जिनमें से एक उसकी पत्नी थी जो उसे देखकर तुरंत अंदर चली गई। बाकी औरतें भी थोड़ी देर चुप होकर उसके ओटले से थोड़ी दूर जाकर खड़ी हो गईं। अनिल अंदर पहुंचा जूते उतारकर पलंग पर बैठा कि पत्नी ने उसे पानी का गिलास थमाया। उसकी आंखों में उमड़ा प्रश्न मुखर था या पत्नी की उसे सब बताने की इच्छा ज्यादा प्रबल थी पता नहीं लेकिन वह गिलास का पानी खत्म होने का इंतजार न कर सकी। "मोहिनी भाभी के सुमित ने आत्महत्या कर ली"। यह खबर वज्रपात सी आई थी और पानी का आखरी घूंट उसके गले में अटक गया। जोर का ठसका लगा था उसे और मुँह से पानी खांसी के साथ फव्वारा बन बाहर आ गया। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गई जो यह जानकर भय से भर गईं कि 12वीं में फेल होने और कहीं कोई काम न मिलने के बाद से वह बहुत उदास था। घंटों कमरे में अकेला बैठा रहता था और आज सुबह वह कहीं बाहर गया था। वहाँ से आकर खुद को कमरे में बंद कर लिया और फंदा गले में डालकर पंखे से लटक गया। 
अनिल के भीतर बैचेनी फैल गई जिसे पत्नी से छुपाने और धोने के लिए वह बाथरूम में घुस गया। सुमित ने आत्महत्या कर ली वह फंदे से लटक गया शब्द उसके दिमाग पर हथौड़े से पड़ रहे थे। उसने चेहरे पर पानी के कई छपाके मारे उसकी सांस अभी भी संयत नहीं हुई थी। वह देर तक दोनों हथेलियों में तौलिया लिए गाल थामें खड़ा रहा। वह खुद को उस बात से परे होने का विश्वास दिलाना चाहता था जो खबर सुनते ही उसके दिमाग में कौंधी थी और जिस ने उसे भयभीत कर दिया था। 
बाथरूम के बाहर से पत्नी की आवाज आ रही थी जिसे शायद वह देर तक सुन नहीं पाया था इसलिए अब दरवाजा पीट कर वह उसे पुकार रही थी। उसने जल्दी से तौलिये से सिर मुँह पोंछा और खुद को संयत सा दिखाता बाहर आ गया। चाय का कप थामें भी वह सोच में गुम रहा और फिर एक घूंट में उसे खत्म कर पैरों में चप्पल डालकर अभी आया कहते वह घर के बाहर आ गया। पड़ोसी हरिहर भाई को देख कर कुछ देर उनके पास रुक कर उसने तफसील से पूरी जानकारी ली जिसमें मोहिनी भाभी द्वारा सबसे पहले लाश को देखने उसे नीचे उतारने में सब पड़ोसियों का सहयोग पुलिस को खबर देने और पोस्टमार्टम होने के बाद अंतिम संस्कार होने की खबर शामिल थी। हरिहर भाई से विदा लेकर अनिल गली के बाहर निकल गया। बाहर चाय की दुकान पर खासी भीड़ थी वह वहाँ से आगे बढ़ सड़क पार कर उजाड़ पार्क में जाकर बैठ गया। वह लगभग स्तब्ध था दिमाग में सिर्फ एक ही बात गूंज रही थी सुमित ने आत्महत्या कर ली आज सुबह वह बाहर गया था। आज सुबह वह बाहर गया था इस बात ने उसे आत्महत्या की खबर से ज्यादा विचलित किया था।
अनिल के दिमाग में पिछले दिन की स्मृति कौंध गई। फर्स्ट क्लास से एमकॉम पास प्राइवेट ऑफिस में क्लर्क अनिल काम की अधिकता मेहनत के अनुरूप तनख्वाह न मिलने और मालिक के अपमानित करने वाले रवैए से झुंझलाया हुआ था। कल फिर उसे एक छोटी सी बात पर बुरी तरह झिड़का गया था और उस अपमान को वह रात भर हजम करने की कोशिश में करवटें बदलता रहा था। आज सुबह उसका ऑफिस जाने का मन कतई नहीं था लेकिन यह नौकरी उसकी मजबूरी थी और दूसरी नौकरी मिलना आसान भी नहीं था। 
घर से निकलकर वह नुक्कड़ की चाय की दुकान पर रुक गया था। बस यूँ ही चाय पीकर ऑफिस जाने की हिम्मत बटोरने तभी सुमित वहाँ आया था और बेंच पर उसके बगल में बैठ गया था। अनिल ने उसकी अनदेखी कर उपेक्षा ही कर दी थी लेकिन सुमित ने उससे पूछा "अनिल भाई मुझे कहीं नौकरी मिल जाएगी क्या? कोई भी छोटी-मोटी नौकरी चलेगी कहीं पियून या ऑफिस बॉय या फिर कुछ और।" 
अनिल में घूर कर सुमित को देखा था कहांँ तक पढ़े हो तुम उस ने तल्खी से पूछा था। सकुचाया था सुमित जवाब देते फिर धीरे से बोला "भैया बारहवीं में फेल हो गया हूँ इस साल। पढ़ाई मेरे बस की नहीं है इसलिए सोच रहा हूँ कोई काम ही शुरु कर लूँ कोई छोटी-मोटी नौकरी।" उसकी बात पूरी होने से पहले ही अनिल ने लगभग चिढ़ते हुए कहा था "शहर में लाखों एम ए बी ए पास टल्ले खाते घूम रहे हैं उन्हें चपरासी की नौकरी भी नहीं मिल रही तुम्हें 12वीं फेल को कौन नौकरी देगा?" 
सुमित का चेहरा उतर गया उसे देखकर अनिल को अनोखा सा सुख मिला था। एक दिन पहले हुए अपमान की जलन सुमित का उतरा चेहरा देखकर कुछ कम सी होती महसूस हुई। शायद नौकरी लगने के बाद पहली बार उसने किसी से ऐसी तल्खी से बात की थी वरना तो वह हमेशा दूसरों की झिड़कियाँ ही सुनता रहा था। अनिल ने चाय की दुकान पर काम करते 12 साल के उस लड़के की ओर इशारा करके कहा था "इसे देख रहा है इसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा होगा इसलिए इसे यहाँ गिलास धोने का काम मिल गया। तू तो 11वीं तक पढ़ गया है अब तो तू इस काम के लायक भी नहीं रहा। पढ़ाई न करता तो शायद तसले ईट धोने के काम का रह पाता।" ज्यों-ज्यों अनिल बोलता गया त्यों त्यों सुमित का चेहरा निराशा और अपमान से काला पड़ता गया और अनिल एक सुकून सा महसूस करता रहा। 
इस देश में या तो अनपढ़ों के लिए काम है या खूब पढ़े लिखे अंग्रेजी में गिटपिट करने वालों के लिए।" तुझ जैसे" दरअसल अनिल कहना चाहता था हम जैसे लेकिन अपने अपमान की आग बुझाने के सुख में उसने आधा सच ही कहा। "तुझे जैसे अध पढे लोगों के लिए इस देश में न कोई काम है और न सम्मान। ऐसे लोग सिर्फ दुत्कारे जाते हैं घर में भी बाहर भी।" अनिल ने चाय का खाली गिलास रखा पैसे दिए और कनखियों से सुमित के उतरे चेहरे को देखते सुकून की साँस लेते ऑफिस के लिए चल पड़ा। 
उसके बाद ही सुमित ने घर जाकर आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या नहीं की मैंने उसे उकसाया मैंने उसकी हत्या की। बेचैनी से अनिल के माथे पर पसीना छलछला गया। वह उठ खड़ा हुआ उसका अपराध बोध उसे धिक्कारने लगा। वह फिर बेंच पर बैठ गया। नहीं नहीं मैंने सुमित से ऐसा कुछ नहीं कहा मैंने तो उसे सिर्फ सच्चाई बताई कड़वी सच्चाई। उसने खुद को समझाया। 
मोबाइल की घंटी ने उसकी तंद्रा भंग की। पत्नी का फोन था वह चिंतित थी अनिल को घर जाना था पर वह अभी भी निश्चित नहीं कर पाया था क्या वह हत्यारा है?
कविता वर्मा

रविवार, 4 सितंबर 2022

उल्टी गंगा

 विभा ने इधर-उधर देखा कमरे से बाहर झांका। सासू माँ बाहर के कमरे में रामनामी ओढ़े तखत पर बैठी माला जप रही थीं। कामवाली रसोई के पीछे आंगन में बर्तन धो रही थी। बड़ी बेटी स्कूल जा चुकी थी और छोटा बेटा यूनिफार्म पहनकर टीवी पर कार्टून देखते नाश्ता कर रहा था। इस समय उसके मनपसंद कार्टून के सामने से उसे भगवान भी नहीं उठा सकते थे। सासु माँ की कमर वैसे ही अकड़ी रहती उन्हें एक स्थिति से दूसरी में आने में कम से कम 5 मिनट लगते और साथ ही उस में हुए दर्द के कारण निकली कराहें सड़क तक सुनाई देती। पतिदेव बाथरूम में थे विभा ने एक बार फिर कान लगाकर सुना पानी गिरने की आवाज आ रही थी मतलब अभी कम से कम पांच सात मिनट तो वे बाथरूम से नहीं निकलने वाले थे । फिर भी उसने ऐतिहातन दरवाजा थोड़ा अटका दिया और दरवाजे के पीछे खूंटी पर टंगी दिनेश की पेंट की जेब में रखा बटुआ निकाला। उसने जल्दी से बटुआ खोला यह उसका प्रिय काम था कि सबकी नजर बचाकर दिनेश के बटुए में से पैसे निकाल लेना। हालांकि यह काम जितना आसान लगता था उतना था नहीं। पहले तो ऐसी घड़ी तलाश करना जब कि सब अपने काम में खासे व्यस्त हो जिससे कि कोई उसे ऐसा करते न देखे। बच्चे तो बिल्कुल ही नहीं जिन्हें वह बचपन से चोरी करना पाप है का पाठ सिखा चुकी है और कभी चोरी से चवन्नी चुराने या लड्डू निकाल कर खा लेने पर कान उमेठकर उठक बैठक करवा चुकी है। सासु माँ को भी नहीं जिनकी रामायण मंडली के आए दिन आ धमकने पर वह खर्च का रोना रो चुकी है या ननंद के लिए 500 की जगह 400 की साड़ी लेने के लिए रोनी सूरत बना कर अपनी मजबूरी बता चुकी है। दिनेश तो कतई नहीं जो कम खर्च में घर चलाने के उसके कौशल की तारीफ करते नहीं अघाता और शादी के इतने साल बाद भी उसके लिए एक अदद मंगलसूत्र न दिला पाने के अपराध बोध में उसकी हर हां में हां मिलाता है। यह अलग बात है कि विभा अब तक बटुए से चुपके से निकाले रुपए से एक मंगलसूत्र और एक जोड़ी झुमके बनवा चुकी है। 

दूसरी यह देखना कि बटुए में कितने रुपए हैं उनमें 500 के नोट कितने हैं सौ पचास दस और बीस के कितने। उसके अनुसार किस मूल्य के कितने नोट निकालना है जिससे दिनेश को रुपये निकाले जाने का आभास न हो। विभा ने बचपन में मुर्गी और नाई वाली कविता खूब रट डाली थी। एक बार उसने प्रतियोगिता में यही कविता खूब अभिनय के साथ सुनाकर पहला इनाम भी पाया था। इस तरह वह कविता उसकी रगों में बसी थी फिर वह मुर्गी को हलाल करने की भूल कैसे कर सकती थी? यूँ तो बटुआ निकाल कर रखना बस 30 सेकंड का काम था लेकिन उसके लिए अनुकूल माहौल देखना हिसाब किताब से ठीक ठीक नोट निकालना ही नहीं बटुए में छोड़ना भी खासा समय ले लेते थे । उसकी अगली योजना हाथ के कंगन उसे ज्यादा लेने को उकसा थी तो बेवजह का शक न होने देने की सावधानी आगाह करते हुए हाथ में आए एक दो नोट वापस रखने को समझाती। 
विभा ने बटुआ निकाला उसे खोला ही था कि उसमें से एक पर्चा सा गिरा उसे नजरअंदाज कर उसने देखा बटुए में 500  का एक सौ के चार पचास के दो और तीन चार दस बीस के नोट थे। उसकी अनुभवी बुद्धि ने तुरंत हिसाब लगाया और झट से एक एक सौ पचास दस और 20 का नोट निकालकर बटुआ बंद कर वापस जेब में रख दिया। उसने नोट मोड़ कर तुरंत ब्लाउज में रखें और बाहर निकलने को पलटी कि उसका पैर बटुए से गिरे पुर्जे पर पड़ा। धत्त तेरी की मैं तो भूल ही गई थी। उसने तुरंत नींबू पीले रंग का वह पुर्जा उठाया और उसे रखने ही जा रही थी कि हल्की सी खुशबू ने उसके नसों में प्रवेश कर उसके दिमाग के तंतुओं को झिंझोड़ दिया। एक साथ मानों शक की सैकड़ों चीटियां उस पर रेंग गईं। उसने जल्दी से उस पुर्जे को खोल कर देखा उसमें आड़े टेढ़े शब्दों में 4 लाइनें लिखी थीं। विभा का दिल धक से हो गया । 18 साल से उसके इर्द-गिर्द घूमने वाला उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाला ऑफिस से घर, घर से ऑफिस जाने वाला सीधे-साधे मिडिल क्लास आदमी की जेब से ऐसा कोई पुर्जा निकलना सोच से परे था। उसकी रगों में खून का दौरा बढ़ गया गाल दहकने लगे कान की लवें झुलसने लगीं। उसने अटकती सांसों के साथ उसे पढ़ना शुरू किया। 
दिनेश तुम्हें घर खर्च के लिए छोटे-छोटे उधार देते अब कर्जा 40000 हो गया है। अगर महीने भर में तुमने पैसे वापस ना लौटाए तो तुम्हारी खैर नहीं। अपनी मौत के जिम्मेदार तुम खुद होगे। 
नीचे उड़ती चिड़िया से दस्तखत थे जो पढ़ने समझने का वक्त नहीं था। विभा के हाथों में वह कागज थरथर कांपने लगा। आंखों के आगे किसी सड़क पर लहूलुहान पड़ा दिनेश का शरीर और उससे लिपट कर रोते बच्चे घूम गए। एक पल को बिना बिंदी सिंदूर सूना माथा और फर्श पर पड़ा वहीं मंगलसूत्र घूम गया जो उसने बड़ी समझदारी से पैसे इकट्ठे कर चोरी छिपे बनवाया था। दिनेश ने कभी बताया नहीं कि उसे घर खर्च के लिए उधार लेना पड़ता है। वह मुझे इतना प्यार करते हैं कि ऐसी कोई बात बता कर मुझे परेशान नहीं करना चाहते होंगे और एक वह है छी छी। अपने मंगलसूत्र झुमके कंगन के लिए दिनेश के बटुए से रुपया निकालती रही। विभा को खुद पर बेतरह गुस्सा और दिनेश पर प्यार आ गया जो जल्दी ही पलट गया अब उसे दिनेश पर गुस्सा आया कि वह उससे अपनी परेशानियां छुपाता क्यों है? अब वह क्या करें इस तरह दिनेश की जान खतरे में नहीं डाल सकती उसकी आंखें भर आईं। 
उसने ब्लाउज में से रुपए निकाले उन्हें सीधा किया और पुर्जे के साथ बटुए में रख दिया। बटुआ पैंट की जेब में रखकर पलटी ही थी कि एक विचार ने उसे ठिठका दिया। इस तरह तो दिनेश को इतनी बड़ी रकम चुकाने में साल भर से ज्यादा लग जाएगा। इस बीच अगर वह गुंडा... विभा की रीढ़ में ठंडी लहर दौड़ गई। वह झट से अलमारी की तरफ बढ़ी। कपड़ों की तह के बीच से एक बटुआ निकालकर खोला। उसका अभ्यस्त दिमाग फिर तेजी से हिसाब किताब में जुट गया। उसने एक एक सौ पचास 10 और 20 का नोट निकाला एक बार दरवाजे के बाहर झांका। बाहर यथास्थिति थी बाथरूम में पानी गिरने की आवाज अब भी आ रही थी। उसने रुपयों को ठीक से जमाया पीला पुर्जा रखा बटुआ जेब में रखकर राहत की सांस लेती गीली आंखों को झपक कर सुखाती रसोई की और बढ़ गई। अब विभा रोज ही सुबह सबकी टोह लेती है। सबको व्यस्त देख दिनेश की जेब से बटुआ निकालती है उसमें रखे नोट देखकर हिसाब लगाती है और अलमारी से नोट निकालकर उसमें मिला देती है। 
आजकल दिनेश ऑफिस जाने के पहले एक बार पर्स देखता है उसमे बढ़ गए रुपये देखता है होंठों के अंदर ही अंदर मुस्कुराता है और सीटी बजाते हुए लापरवाही से चलते विभा को फ्लाइंग किस देते स्कूटर स्टार्ट करता है। विभा भीगी आंखों से उसे जाते देख उसके सकुशल घर वापस आने की प्रार्थना करती है।
कविता वर्मा

शनिवार, 27 अगस्त 2022

पगड़ी

 घर में मेहमानों की आवाजाही बढ़ गई है। कार्यक्रम की रूपरेखा बन रही है कौन जाएगा कैसे जाएगा क्या करना है कैसे करना है जैसी चर्चाएं जोरों पर हैं । चाचा ससुर उनके बेटे देवर दोनों बेटे दामाद सभी समूह में बैठकर जोरदार तरीके से शानदार कार्यक्रम की योजना बनाते और फिर एक एक से अकेले अलग-अलग खर्च पानी की चिंता में दूसरे के दिये सुझाव की खिल्ली उड़ा कर उसे खारिज करते। समूह में दमदारी से सब करेंगे अच्छे से करेंगे के दावे खुद की जेब में हाथ डालने के नाम पर फुस्स हो जाते । 

सुनीति कभी उसी कमरे के कोने में कभी दूसरे कमरे में बैठी सब सुन रही थी लेकिन बोल कुछ नहीं रही थी। जैसे वह भी जानती थी कि सबके सामने शान दिखाने के लिए किए जा रहे दावे कितने खोखले हैं ।

आज सात दिन हो गए सुनीति के पति मनोहर की मृत्यु हुए। ढाई साल कैंसर से जूझते लड़ते आखिर वो जिंदगी की लड़ाई हार गए। बड़ा बेटा भोपाल में नौकरी करता है। शादी के बाद तो उसने मानो घर से संपर्क ही खत्म कर लिया । महीने में एक बार फोन पर हाल-चाल पूछ लेता छह महीने में एकाध दिन के लिए आता। वह ऊपरी बातचीत के अलावा कभी खर्चे पैसे कौड़ी की व्यवस्था के बारे में बात ही नहीं करता। कभी कभी सुनीति को बड़ा गुस्सा आता और वह मनोहर के चुप रहने के इशारे के बावजूद भी बोल पड़ती कि बीमारी के इलाज में आने जाने में बहुत खर्च हो रहा है। वह बड़ी बेजारी से जवाब देता हारी बीमारी में तो खर्च होता ही है इंसान को इन सब के मद में पैसा बचा कर रखना चाहिए। फिर तुरंत बात बदल देता। 

छोटा बेटा अपनी प्राइवेट नौकरी से छुट्टी लेकर हर बार पिता को कभी बस से कभी टैक्सी से इंदौर ले जाता। यूँ तो उनके गाँव से इंदौर की दूरी 80 किलोमीटर है लेकिन बाइक पर इतनी दूर बैठकर जाने की मनोहर की हालत नहीं रही थी।

 बाहर छोटे और बड़े बेटे की बहस की आवाजें आ रही थीं। सुनीति ने अपने विचारों से बाहर निकल उस पर ध्यान लगाया। दोनों दसवें दिन घाट और तेरहवीं के आयोजन में होने वाले खर्च को लेकर बहस कर रहे थे। बड़े का कहना था पापा ने सारी जिंदगी जो कमाया वह कहाँ गया? छोटा डॉक्टर की फीस दवाई आने-जाने के खर्च का हिसाब बता रहा था जिस पर बड़े को कतई विश्वास न था। तूने बीमारी के नाम पर पापा को खूब चुना लगाया है खूब पैसा बनाया है। यह बड़े का स्वर था। 

भैया गुस्से में कहा संबोधन अपनी बात कहते कहते रुआँसा हो गया। बात और बढ़ती तब तक सुनीति कमरे से बाहर आ गई। बड़ा कुछ कहने को हुआ सुनीति ने हाथ उठाकर उसे चुप रहने का इशारा किया। 

दसवीं का घाट घर कुटुंब का कार्यक्रम था जो जैसे तैसे निपट गया। शायद बहू ने समझाया या चाचा जी ने बड़े ने सब खर्च किया। 

तेरहवीं के कार्यक्रम की रूपरेखा के लिए सुनीति खुद सबके बीच आ बैठी। पति की बीमारी में अकेले जूझते और रिश्तेदारों के दिखावे को समझते अब वह अंदर से मजबूत हो गई थी। इस अकेलेपन से अकेले जूझने की हिम्मत उसमें आ गई थी। उसे याद है जब मनोहर को लेकर इंदौर के अस्पताल गई थी और डॉक्टरों की हड़ताल हो गई थी। उसने बेटे से देवर को फोन लगवाया था। देवर का ससुराल इंदौर में ही है वह चाहती थी कि एक-दो दिन इंदौर में रहने की व्यवस्था हो जाए ताकि इस जर्जर हालत में मनोहर को बार-बार सफर न करना पड़े। देवर ने कहा कि मैं उनसे बात करके आपको बताता हूँ और फिर दिन भर न उनका फोन आया न लगा। वही देवर आज तेरहवीं में दो मिठाई पूरी कचोरी दाल चावल कढ़ी दो सब्जी का ब्यौरा तैयार कर बनवाने पर जोर दे रहे थे। 

भैया मेरे पास तो अब पैसा बचा नहीं जो था सब इनके पापा की बीमारी में लग गया। आपके भी सगे भाई थे वह आपकी पढ़ाई लिखाई शादी ब्याह में खर्च किया है उन्होंने। आप कितना खर्च कर सकते हो उसके अनुसार ही भोज तैयार करवाना। बड़े ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए हैं। उसकी इस बात से पल भर को सब सनाका खा गए। बड़े बेटे ने आंखें तरेर कर उन्हें देखा। चाचा ससुर के लड़के ने बात संभाली देखो अब सभी समाज में मृत्यु भोज बंद हो रहा है। हमें भी मिसाल कायम करना चाहिए। समाज के पांच पंच बुला कर 11 ब्राह्मणों को भोजन करवा दें और बाहर समधियाने के जो मेहमान आएंगे उनके खाने की व्यवस्था कर देंगे। उनके लिए सब्जी पूरी कढी चावल और एक मीठा बहुत है। क्यों भैया ठीक है न? ज्यादा वजन भी नहीं पड़ेगा। समाज के लोग पगड़ी में शामिल होंगे पंजीरी का प्रसाद लेकर विदा होंगे। कमरे में जाते उनके होंठ वितृष्णा से टेढ़े हो गए। 

आज सुबह से गहमागहमी थी। बेटे देवर चाचा ससुर उनके बेटों के ससुराल वाले दूर पास की ननदें बेटियाँ सभी आ चुकी थीं। सब तैयार होकर बैठे पगड़ी रस्म में दिए जाने वाले टाॅवेल शॉल एक दूसरे को दिखा रहीं थीं। पंडित आ गए पगड़ी की रस्म के लिए सिर मुंडाए चाचा ससुर देवर उनके बेटे और मनोहर के दोनों बेटे बैठे थे। समाज के पंच पगड़ी पहनाने खड़े हुए तभी सुनीति उठ खड़ी हुई। 

ठहरिये सबकी नजरें उसकी तरफ उठीं। उनमें आश्चर्य था विद्रूप था और उत्सुकता थी। सुनीति हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। आज मैं पंचों के सामने समाज से कुछ कहना चाहती हूँ। 

सबसे बुजुर्ग पंच ने कहा कहो बहू क्या कहना चाहती हो? सुनीति ने कहना शुरू किया समाज में रीति रिवाज नेग दस्तूर इसलिए बनाए गए हैं ताकि लोगों में आस्था हर्ष उल्लास और जिम्मेदारी का भाव बना रहे। पगड़ी की रस्म भी इसी जिम्मेदारी का एहसास कराने के लिए की जाती है। लेकिन दुखद है कि जीते जी रिश्ते की कोई जिम्मेदारी न निभाने वाले किसी के मरने के बाद पगड़ी पहनने बैठते हैं। वे भी जानते हैं कि पगड़ी सिर्फ पहनने के लिए दिखावे के लिए पहनना है जबकि मृतक परिवार की कोई जिम्मेदारी वे कभी नहीं उठाने वाले हैं। मैं आज यहाँ पगड़ी पहनने बैठे सभी लोगों से पूछना चाहती हूँ आप में से कौन भविष्य में मेरी दुख बीमारी बेटे की शादी की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है? मैं अनुरोध करूंगी कि जो इस जिम्मेदारी को उठाना नहीं चाहते मेरे पति के नाम की पगड़ी ना पहने। फिर अपने बड़े बेटे को संबोधित करते सुनीति ने पूछा बेटा क्या तुम मेरी जिम्मेदारी उठा पाओगे अगर नहीं तो तुम भी उठ सकते हो। इतना सुनना था कि बड़ा बेटा सिर पर रखी टोपी पटक कर खड़ा हो गया और पैर पटकता वहाँ से चला गया। उसके पीछे पीछे धीरे से बाकी लोग भी खिसक गए। अंत में बचा रहा सिर्फ छोटा बेटा। सुनीति ने कहा अब आप पगड़ी की रस्म शुरू करें। 

सबके उठ जाने से उनके रिश्तेदारों में खुसरूपुर शुरू हो गई बुजुर्ग पंच ने कहा कि आज समाज में नई नीति शुरू हुई है अब से पगड़ी सिर्फ जिम्मेदारी लेने वाले को पहनाई जाएगी। आप सभी से अनुरोध है कि पगड़ी के बाद भोजन करके जाएंँ। सुनीति की आंखों में आँसू झिलमिला गए।

कविता वर्मा 

शनिवार, 13 अगस्त 2022

बड़ा नहीं हुआ गोलू

 सुनंदा ने खिड़की से झांक कर देखा गोलू पार्क में अकेला उदास बैठा था। यह रोज का क्रम बन गया था गोलू रोज ही स्कूल से आकर पार्क में बैठा रहता। वह न पार्क के फूलों पेड़ों को देखता और न ही चहचहाते पंछी उसे आकर्षित कर पाते। न ही तीखी धूप की चुभन उसे विचलित करती और न ही कठोर बेंच की रुक्षता उसे डिगाती। स्कूल की थकावट कभी-कभी उसे वहीं बेंच पर लेट जाने को मजबूर करती और गर्म हवा के थपेड़ों से झुलसा उसका क्लांत चेहरा सुनंदा को द्रवित करता।

 अभी खेलने का समय नहीं हुआ था इसलिए पार्क में और कोई छोटे बच्चे नहीं थे। शायद सभी अपने स्कूल का होमवर्क कर रहे हों या शायद खाना खा कर आराम कर रहे हों। आजकल गोलू स्कूल से आकर बैग पटकता है कपड़े बदलकर यहां वहां फेंकता है और पार्क में आ जाता है। उसकी मम्मी उससे खाने का कहती है तब वह थोड़ी देर देखता रहता और कभी कुछ खाता कभी बिना कुछ खाए ही बाहर निकल जाता। 

सुनंदा भी कभी-कभी तब तक खिड़की पर उसके साथ रहती जब तक कि उसके दोस्त खेलने नहीं आ जाते। आठ साल के उस नन्हे बच्चे का इस तरह अकेले पार्क में बैठे रहना उसकी सुरक्षा के लिए चिंता पैदा करता इसलिए भी सुनंदा वहाँ खड़ी रहती। कभी-कभी गोलू की मम्मी उसे आवाज देती घर बुलाती और गोलू वहीं से जवाब देता आ रहा हूँ और वहीं बैठा रहता। सुनंदा का मन करता गोलू को वह अपने पास बुला ले। उसकी उदासी का कारण पूछे उसके साथ खूब बातें करें हँसे खिलखिलाए। 

पांच साल हो गए सुनंदा की शादी को। बहुत मन होने के बाद भी उसकी गोद सूनी है और एक गोलू की माँ है कीर्ति। ईश्वर ने दो-दो बच्चों से झोली भरी है तो एक बच्चे गोलू की तरफ से उदासीन बनी हुई है। गोलू का छोटा भाई गप्पू अभी छह महीने का हुआ है और कीर्ति पूरे समय उसमें उलझी रहती है। सुनंदा कई बार कीर्ति की आवाज सुनती है जब वह गोलू को डांटते रहती है। कितनी जिद करते हो? इतने बड़े हो गए हो लेकिन जरा भी अक्ल नहीं है न जाने कब अक्ल आएगी? कभी-कभी गोलू के रोने चीखने की आवाज आती जिसे जोर की डांट या थप्पड़ से दबा दिया जाता। सुनंदा का दिल तड़प उठता। उसका मन होता कि वह गोलू को गले से लगा ले लेकिन मन मसोस कर रह जाती। कॉलोनी की महिलाएँ अपने बच्चों को सुनंदा से दूर ही रखती थीं। एक दो बार उसने अपने लिए बांझ शब्द का प्रयोग करते सुना तो उसका हौसला टूट गया। 

उस दिन सुनंदा ने गोलू को पार्क में अकेले बैठे रोते देखा तो खुद को रोक नहीं पाई। मन तो उसका था कि गोलू को घर में बुला ले लेकिन लोगों का डर उसे यह करने नहीं दे रहा था। उसने एक पानी की बोतल बिस्किट के पैकेट और चॉकलेट लीं और एक डलिया में रखकर पार्क में आ गई। वह डलिया दोनों के बीच में रखकर गोलू के बगल में बेंच पर बैठ गई। गोलू कुछ देर बिना उसकी तरफ देखे बैठा रहा। आंसू उसके गालों पर बहते रहे। थोड़े इंतजार के बाद सुनंदा ने पानी की बोतल उसकी तरफ बढ़ाई। गोलू ने इनकार में सिर हिला दिया। थोड़ी देर बाद सुनंदा ने फिर बॉटल उसकी तरफ बढ़ाई। इस बार गोलू ने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरी एक बार सुनंदा की तरफ देखा और अपने नन्हें हाथों से बोतल थाम ली। 

हम उधर पेड़ की छांव में बैठे? सुनंदा ने एक घने पेड़ की ओर इशारा करते हुए गोलू से पूछा। दरअसल धूप की गर्मी से बचने के साथ ही सुनंदा लोगों की नजरों से भी बचना चाहती थी। गोलू ने धीरे से सिर हिला दिया और उठ खड़ा हुआ। पेड़ के नीचे बैठते ही सुनंदा ने बिस्किट का पैकेट खोलकर गोलू की तरफ बढ़ा दिया उसने धीरे से एक बिस्किट ले लिया। 

क्या हुआ था? गोलू ने सिर नीचा कर कुछ नहीं में हिला दिया। 

कुछ तो हुआ है तुम रो क्यों रहे थे? सुनंदा ने मुलायमियत से पूछा। 

गोलू चुप रहा सुनंदा ने दूसरा बिस्किट का पैकेट खोलकर उसे थमा दिया । मम्मी ने मारा? पूछा तो उसने अंदाज से था लेकिन गोलू का सिर हाँ में हिलते देख सिहर गई। 

क्यों? 

क्योंकि मैं बड़ा हो गया हूँ। अजीब सी रिक्तता थी गोलू के स्वर में। 

यह क्या व्यवहार हो रहा है इसके साथ। क्या आठ साल का बच्चा बड़ा हो जाता है? सिर्फ इसलिए कि उसका छोटा भाई या बहन आ गया है। तुमने कुछ किया था? 

गोलू ने सिर झुका लिया वह चुप ही रहा। 

बोलो ना कुछ तो किया होगा? गोलू की माँ कीर्ति को दोष न देने की मंशा से सुनंदा ने पूछा तो गोलू मानो खुद में सिमट गया। 

मैंने मम्मी से कहा था कि आपके हाथ से खाना खाना है। अपराध बोध सा था उसके स्वर में। 

इसमें क्या गलत है हर छोटा बच्चा अपनी मम्मी के हाथ से खाना खाता है। 

लेकिन मैं तो बड़ा हो गया हूँ। अब मम्मी मुझे नहीं नहलातीं न कपड़े पहनाती हैं। खाना भी नहीं खिलाती। अगर मैं कहता हूँ तो कहती हैं कि तुम बड़े हो गए हो। क्या मैं इतना बड़ा हो गया हूँ कि अब मम्मी मेरा कोई काम नहीं करेंगी? वह मुझे प्यार भी नहीं करेंगी? गोद में भी नहीं बिठाएंगी? गोलू का स्वर रुआँसा हो गया। 

सुनंदा ने खींचकर उसे अपनी गोद में बिठा लिया और उसके चेहरे को चुंबनों से भर दिया। उसकी ममता द्रवित हो गई। कैसे समझाए वह इतने छोटे बच्चे को कि वह अभी भी इतना छोटा है कि उसे पूरा हक है अपनी मांँ की गोद में बैठने उसके हाथ से खाने पीने तैयार होने का। उस से बाल हठ करके मनवाने का। छोटा भाई आ जाने से वह बड़ा भाई बन गया है लेकिन बड़ा नहीं हो गया। सुनंदा देर तक उससे बतियाते रही उसे बहलाती रही उसकी उदास आंखों के साथ चेहरे पर हँसी निहारती रही और उसे समझाती रही कि मम्मी व्यस्त रहती हैं छोटा भाई बहुत छोटा है खुद से कुछ नहीं कर सकता इसलिए उसके सभी काम करते थक जाती हैं। सुनंदा सोचती रही कि इस बच्चे को तो मैं बहला दूंगी लेकिन इसकी मम्मी कीर्ति को कैसे समझाऊं कि बच्चे छोटे भाई बहन के पैदा हो जाने से बड़े नहीं हो जाते। बड़े होने के लिए उन्हें अपनी बाल्यावस्था पूरी जी कर आगे बढ़ना होता है। सुनंदा अभी भी सोच में है और गोलू समझ नहीं पा रहा है।

कविता वर्मा 

शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

अंतस की नदी

 तीखी धूप की तपिश ने तन मन झुलसा दिया। कहीं एक पेड़ की छाँव भी नहीं कैसी दशा हो गई है मेरी ? क्या करूँ सिसक पड़ी थी मैं यह सोचकर। मैं कान्ह नदी मेरे विशाल विस्तार पर कचरे मल मूत्र के ढेर इतनी गंदगी कैसे छोड़ सकता है कोई किसी के दामन पर ? कैसे अपनी गंदगी दूसरों के घर आंगन में बहा सकता है इंसान ? इतनी बदबू कि सांस लेना मुश्किल। क्या करूँ कैसे समझाऊं इस मनुष्य को ? 

किस तरह इठलाती थी खिलखिलाती थी मैं अपने बचपन में। ऊंचे नीचे रास्ते पत्थरों पर उछलती थिरकती मैं अपने आसपास लगे पेड़ों की झुकी हुई डालियों को उछलकर भिगोती उन पर बैठे पंछियों के मधुर गीत सुनती मंद मंद हवा में लहराती। तब यह पूरा अंचल मेरा घर आंगन था जिसमें मैं खेलती थी और अब इसे संकुचित करते-करते बस एक पतली धार बना दिया। कहीं-कहीं तो वह धार भी नहीं मेरे प्रवाह को रोक दिया गया है। कुछ दिन पहले मेरे किनारे इसे किनारे भी कैसे कहूँ यह प्लास्टिक काँच कचरा सड़े गले खाने का भी ढेर मात्र है लेकिन ना जाने क्यों वह युवती इस गंदगी को पार कर मेरे आंचल के बीच उस ऊंची चट्टान तक चली आई। बहुत आश्चर्य हुआ था मुझे सच कहो तो कांप गई थी मैं कि यह यहां क्या करने वाली है ?

लोग तो यहाँ तक हवन पूजन की राख फूल मुड़ी तुडी भगवान की फोटो टूटी-फूटी मूर्तियाँ डालने आते हैं लेकिन वह तो खाली हाथ थी फिर क्या अपनी विष्ठा ? छी जी घिना गया मेरा लेकिन वह आकर उस चट्टान पर बैठी रही। 

उस समय सूरज अस्ताचल को था उसकी पीली किरणों में वह युवती मुरझाई सी लगी। बहुत कौतूहल था मुझे कि आखिर वह क्या करती है ? वह देर तक खामोश बैठी रही फिर खुद से ही बातें करने लगी। सब मुझे रोकते हैं हमेशा टोकते हैं क्या हुआ जो मैं बड़ी हो गई तो ? अभी कुछ साल पहले तक भी तो मैं वही लड़की थी घर आंगन में नाचती थी मोहल्ले के हर घर में जाती थी ओटलों और गलियों पर दौड़ती भागती थी। अचानक ऐसा क्या हो गया ? सब डाँटते हैं अगर मैं उछलूं कूदूँ। कहते हैं बाहर बहुत गंदगी है उससे बचने के लिए संयम से रहो। कौन सी गंदगी ? गुस्से के कारण उसका स्वर टूट रहा था। 

असमंजस में थी मैं लेकिन देर तक उसकी बातें सुनने के बाद मुझे उसकी और खुद की व्यथा एक सी लगी। मैं भी तो तमाम गंदगी के बीच खुद में सिमट सिकुड़ गई हूँ। क्या कहूँ कैसे सांत्वना दूँ उसे ? कैसे समझाऊँ कि एक नदी और स्त्री का जीवन एक समान होता है ? 

याद आते हैं मुझे वह दिन जब मेरी कल कल छल छल करती लहरों से गाँव की लड़कियाँ बहुएँ पानी भरने आती थीं। उनकी पीतल काँसी की गगरियों की आवाज उनकी चूड़ियों पायल की झंकार उनकी मीठी उन्मुक्त हंसी की फुहार मेरे अंतस को आल्हादित करती थी। उनकी ठिठोली भरी बातें और गीत घर परिवार के उनके दुख उनकी खुशी पीहर न जा पाने की कसक तो बहन के दुख से भरा आया मन और पति के प्यार व्यवहार की खट्टी मीठी बातें सभी तो मेरे किनारे इस घाट पर बैठकर करती थीं। मैं भी उनके सुख-दुख से भीगी कभी थमती कभी ठहरती और कभी हंसती हुई आगे बढ़ जाती। 

उस दिन मेरे किनारे पर बहुत सारे लोगों की आवाजाही होने लगी।

बहुत सारी गाड़ियाँ आईं कई आदमी थे जो देर तक मुझे देखकर जाने क्या क्या कहते रहे। डर गई थी मैं और एक दिन मेरे पानी में बड़े-बड़े पाइप डाले गये किनारे पर बड़े बड़े बक्से लगे। मैं तो कुछ नहीं समझी थी नारियल फूटा तो इठलाई थी कि एक और देव स्थान मेरे किनारे बन गया। अहा कितनी खुशनसीब हूँ मैं कि देवता के चरण पखारूँगी। तभी घर्र घर्र की तेज आवाज से मेरे आंचल में पलने वाले जल जंतु घबराकर भागे। मुझे तो लगा मानो मेरे पास प्राण ही खींच लिए जा रहे हैं। किस से पूछती किससे समझती सब जा चुके थे। उस दिन से मेरे किनारे की रौनक खत्म हो गई। रुनझुन खिलखिलाहटें खत्म हो गईं। मैं रीतती जा रही थी लेकिन किस से कहती। 

उस दिन लगभग अंधेरा ढले आया था वह। अकेला थका हुआ उदास। वह किनारे की उन सीढ़ियों पर बैठा था तब वहाँ इतनी गंदगी कहाँ थी लेकिन किनारे मुझसे दूर हो गए थे। अंधेरे में देर तक बड़बड़ाता रहा था वह और मैंने भी साँस रोक ली थी उसे सुनने को। कहाँ से लाऊं कैसे लाऊँ पैसा ? इनकी तो हवस ही खत्म नहीं होती जितना देते जाओ उतना कम होता है। पहले हजार कमाता था हजार में खर्च चलता था आज हलक में हाथ डालकर प्राण खींच डाल रहे हैं। अरे मुझ में मेरा कुछ बचने दोगे भी या नहीं ? मशीन समझा है क्या मुझे वह जोर से चिल्लाया था।

डर गई थी मैं यह मेरी व्यथा क्यों कह सुना रहा है ? यही तो किया तुमने मेरे साथ। पहले दो चार घड़े पानी में जाते थे अब तो मेरे प्राण ही खींच ले रहे हैं इन बड़े-बड़े पाइप से। घर्र घर्र करती यह मोटर है शायद किसी ने बताया था। 

उस दिन समझी कि आदमी भी तो मुझ जैसे ही हैं। उनसे उनकी क्षमता से ज्यादा खींचने वाला परिवार धीरे-धीरे उन्हें खोखला कर देता है यह लोग समझते क्यों नहीं है ? इससे यही समझ पा रही हूँ कि हर व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष उसके अंदर एक नदी बहती है। उस नदी को बहने देना चाहिए उसका ध्यान रखना चाहिए। उस नदी को समाज की गंदगी और लालच से दूर रखा जाए तो वह बहती रहेगी निर्झर। 

यह इंसान इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझता ? क्यों अपने और दूसरों के अंदर की नदी को बहने से रोकता है ? क्यों मुझे बहने से रोकता है ? क्यों नहीं बना रहने देता है प्रवाह जिसमें जीवन बहता है ? यह इंसान क्यों नहीं समझता है।

कविता वर्मा 

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

अब करी अबहुँ न करूँगी

  (मालवा निमाड में माँ और दादी को बाई कहते हैं और कामवाली के लिए बाई संबोधन सम्मान जनक संबोधन होता है।)


दरवाजा खटखटाने की आवाज पर रुचि ने दरवाजा खोला । सामने टखने तक की मटमैली साड़ी पहने, बिखरे बाल, धंसी आंखें. बाहर निकले दांत वाली एक बाई खड़ी थी। देखते ही रुचि में वितृष्णा का भाव जागा जिसे उसने किसी तरह भीतर गटक लिया और चेहरे पर सहजता लाते हुए पूछा "क्या बात है?" 

"आपको घर के काम के लिए बाई चाहिए । वह दवाई वाले काका जी ने बोला था।" 

दवाई वाले काका जी कौन रुचि के दिमाग में यह प्रश्न कौंधा जिसे परे खिसका कर वह झट से कामवाली बाई पर आ गई। "हाँ चाहिए तो " । उसकी मटमैली, दयनीय हालत देख उसने एक बार खुद से पूछा कि क्या वाकई उसे यह बाई चाहिए? चार दिन से घर के सामान की अनपैकिंग करते, खाना- कपड़े- बर्तन- झाड़ू- पोंछा करते रुचि इतनी पस्त हो गई थी कि उसने उस अनचाहे प्रश्न को परे झटक दिया।" क्या-क्या काम कर लेती हो?" 

"जो भी तुम कहो। तुम को क्या करवाना है?" 

रुचि को तुम संबोधन खटका । सिर्फ मैली कुचली ही नहीं है, अनकल्चरड भी है। एक मन हुआ मना कर दे कि कुछ नहीं करवाना । फिर बीच कमरे में पड़ी झाड़ू और कचरा देख सिहर गई। "मुझे तो झाड़ू- पोंछा- बर्तन करवाना है।"

" कपड़े नहीं करवाओगी?"

" नहीं, कपड़ों की मशीन है। अच्छा सुबह कितने बजे आओगी?" 

"तुम कितने बजे बुलाओगे?" 

फिर तुम रुचि का दिमाग भन्ना गया। ग्यारह बजे। 

"ग्यारह बजे?" उसने आश्चर्य से कहा।  रुचि समझ नहीं पाई उसने समय जल्दी का बता दिया या देर का। उसने थोड़ी देर उस बाई को देखा । वह अपने खुले मुँह पर तीन उंगलियां रखे खड़ी थी जिनके बीच से उसके सफेद पीले दांत झांक रहे थे। 

"रात के बर्तन खुद करोगे?" 

"खुद क्यों?" रुचि को समझ आया यह छोटा सा कस्बा है जहाँ रात के बर्तन सुबह जल्दी करने के बाद खाना बनता है। उसे तो शहर की आदत है जहाँ काम वाली एक ही बार आती है । लेकिन वह तो सुबह जल्दी उठती ही नहीं फिर? रुचि असमंजस में थी क्या करें । उसका हस्बैंड साढ़े दस बजे ऑफिस जाएगा इसलिए उसने ग्यारह बजे का समय बोला था। यहां पता नहीं क्या सिस्टम है? महानगर में पली-बढ़ी रुचि के लिए बड़ी दुविधा खड़ी हो गई। 

"सुबह जल्दी आओगी तो झाड़ू पोंछा करने कब आओगी?" थोड़ी मगजपच्ची करके कुछ खुद हैरान होते, कुछ बाई को हैरान करते तय हुआ कि वह नौ बजे आकर बर्तन कर जाएगी।  फिर बारह बजे आकर झाड़ू पोंछा और फिर से बर्तन करेगी। काम आज, अभी से शुरू करने की और पैसों की बात तय हो गई। रुचि आराम से सोफे पर पसर गई। उसके पति का इस ग्रामीण बैंक में ट्रांसफर ना हुआ होता तो शायद कभी इतने छोटे कस्बे में आती ही नहीं। बाई को काम करते देख रुचि के दिमाग में कीड़ा कौंधा। कितनी गरीब है यह, इसे तो ठीक से खाना भी नहीं मिलता होगा जैसे विचार आने लगे। 

"बाई कौन-कौन है तुम्हारे घर में?" 

"सब हैं सास, ससुर, देवर, मेरा घर वाला और तीन बच्चे।" "घरवाला क्या करता है?" 

"मजदूरी करता है। देवर और ससुर भी मजदूरी करते हैं।" "सास नहीं करती?" 

"नहीं वह घर पर गाय ढोर और बच्चे देखती है।" 

"घर का काम तुम करती हो या सास?" 

"सास क्यों करेगी? मैं सुबह रोटी करके आती हूँ। सब टिप्पन लेकर जाते हैं ना काम पर।"

इतनी सूचना रुचि के द्रवित होने के लिए काफी थी। वह रसोईघर में अपने और बाई के लिए चाय बनाने चली गई। चाय के साथ एक प्लेट में चार बिस्किट देकर उसे पकड़ाया तो उसके चेहरे पर आश्चर्य की लहरें देख रुचि को अपनी दरियादिली पर गर्व हो आया। अगले दिन रुचि ने उसके लिए अपनी एक साड़ी निकाल कर रखी। काम के बाद उसे देते हुए कहा कि कल से नहा धोकर, कंघी चोटी करके अच्छे से आना जैसे शहरों में औरतें तैयार होकर काम पर जाती हैं। यह तुम्हारा भी काम है तुम इससे पैसा कमाती हो। बाई देर तक रुचि को देखती रही तो आनंदतिरेक रुचि के चेहरे पर हंसी फैल गई। अगले तीन-चार दिन भी वह साड़ी पहनकर नहीं आई अलबत्ता अब वह कंघी करके साफ सुथरी आने लगी। 

रुचि रोज ही उसको खाने के लिए कभी रोटी, पराठा ,ब्रेड आदि देने लगी ।यह सब वह ताजा बना कर देती। बाई भी आखिर इंसान है, फिर इतनी मेहनत करती है। 

उस दिन वह देर तक रास्ता देखते रही बाई नहीं आई। आखिर शाम को उसने बर्तन धोकर झाड़ू लगाई। रुचि को उस पर खूब गुस्सा आया । कुछ भी करो इन लोगों के लिए यह लोग कोई एहसान नहीं मानते। बता कर नहीं जा सकती थी बस जब मन किया छुट्टी करके बैठ गई। आने दो अच्छी खबर लेती हूँ। झाड़ू लगाते पलंग के नीचे से झाड़ू लगाई तो ढेर सारी धूल और कचरा नीचे से निकला। अलमारी फ्रिज के नीचे भी वही हाल था। अब उसका ध्यान बर्तनों पर गया कढ़ाई पीछे से काली हो चुकी थी। स्टील के बर्तनों की चमक गायब थी। 

तीन दिन रुचि भुनभुनाती रही ।   पूरे दिन रास्ता देखते शाम को काम करते रही। चौथे दिन आते ही बाई सिर पकड़ कर बैठ गई। 

"जीजी एक कप चाय पिला दो न सिर बहुत जोर से दुख रहा है ।कुछ खाने को भी दे दो भूखे पेट तो मुझसे काम नहीं होगा।" 

रुचि गुस्से में भरी बैठी थी । तीन दिन काम कर करके कमर टूट गई। उस पर लापरवाही से काम की पोल खुल गई और यह महारानी आते ही चाय- खाने की फरमाइश लेकर बैठ गई है । 

अपने गुस्से को जज्ब करते उसने पूछा" तीन दिन कहाँ थीं?"

"जीजी बुखार आ गया था, उठते ही नहीं बना। मुँह इतना कड़वा था कि रोटी भी नहीं खाई गई। घर पर थी तो सास बुखार में भी गोबर सानी करवाती थी।" 

रुचि फिर द्रवित हो गई लेकिन गुस्सा अभी खत्म नहीं हुआ था। उसने रात की पड़ी एक रोटी अचार के साथ उसे दी जिसे बाई ने परे खिसका दिया।" दीदी मैं बासी रोटी नहीं खाती, आप तो देसी घी का एक कड़क पराठा सेंक दो।"

रुचि कुछ कहने को हुई कि ख्याल आया तीन दिन में तो हालत खराब हो गई, अगर यह काम छोड़ गई तो? रुचि डब्बे में से आटा निकाल गूंधने लगी। 

उस महीने बाई ने आठ छुट्टी की। गरीब का दुख बीमारी में पैसा काटकर कितना बचा लोगी की सोच ने उसे पूरे पैसे दिलवाए। अब तो बाई ठसके से हफ्ते में एक दिन छुट्टी करती। कुछ कहने पर कहती जीजी शहर में औरतों को भी तो आपिस से एक दिन छुट्टी मिलती है। रोज गरम नाश्ता करती। अलमारी पलंग के नीचे सफाई के नाम पर खड़ी हो जाती। "जीजी इतना झुकने पर मेरी कमर दर्द होने लगती है।" इसलिए पलंग के नीचे से कचरा रुचि निकालती। बातों बातों में उसे पता चल गया कि शहरों में बाईयाँ एक बार आती हैं अब वह आए दिन एक टाइम छुट्टी कर लेती। 

उस दिन काका जी की मेडिकल स्टोर पर रुचि कमर दर्द के लिए मूव लेने गई। उन्होंने पूछा" बाई ठीक से काम कर रही है?" 

रुचि ने बताया "वह तो आठ दिन से नहीं आई।" 

काका जी बोले "हमारे यहाँ तो रोज आ रही है।" 

लौटते हुए रुचि ने मन ही मन हिसाब लगाया कि उसने कितने दिन काम किया और उसे कितने पैसे देना है। वह काका जी से दूसरी किसी बाई को भेजने का कह आई थी।

कविता वर्मा 

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