शनिवार, 1 नवंबर 2014

आदत

आदत 
अल्ताफ हुसैन ने घर पहुँच कर अपना थैला जमीन पर रखा और आँगन पर रखी खटिया पर बैठ गया। शबाना पानी ले आई पानी पीते उसने शबाना को देखा और मुँह पोंछते उससे पूछा "सब ठीक ठाक तो है ?"
शबाना ने सिर हिलाकर जवाब दिया हाँ सब ठीक है। "आपका सफर कैसा रहा ? मामू जान कैसे हैं अब ?मामी बच्चे सब खैरियत से तो हैं ?"
अल्ताफ आठ दिनों बाद आज घर लौटा था। "हाँ हाँ सब खैरियत है " कहते हुए अल्ताफ ने वहीं खटिया पर लेट लगा ली।  लेटते ही उसकी नज़र पड़ोस के मकान पर पड़ी।  आँगन सूना पड़ा था। आँगन में बंधी रस्सी पर हमेशा सूखने वाला अंगोछा नहीं था।  हमेशा खुले रहने वाले दरवाज़े खिड़की बंद थे।  वह चौंक गया।  
"बीबी ओ शबाना बीबी" आवाज़ लगाते वह उठ बैठा। 
'आई ', अंदर से आवाज़ आई। शबाना के बाहर आने का इंतज़ार करते वह दोनों घरों के बीच की सूखी कंटीली बाड़ तक पहुँच गया और पंजों के बल उचक कर उस मकान में देखने लगा वहाँ कोई नहीं था। अल्ताफ ने झुंझलाते हुए जोर से आवाज़ लगाई "शबाना ओ शबाना जल्दी बाहर आओ। " 
"जी क्या बात है क्यों हड़बड़ा रहे हो ?"दुपट्टे के छोर से हाथ पोंछते शबाना उसके पास चली आई। 
"क्या बात है पड़ोस में कोई नहीं है क्या ? महादेव भाई और उनका परिवार कहाँ गए ?सब खैरियत तो है ?"
शबाना ने आश्चर्य से अल्ताफ को देखा उसने उसे कभी इस तरह हड़बड़ाते नहीं देखा था और महादेव भाई के बारे में इस बैचेनी से तहकीकात करना। लगभग आठ साल हो गए होंगे उनकी और महादेव भाई की बात चीत बंद हुए। इतने सालों में तो अल्ताफ ने कभी महादेव भाई के बारे में जानने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई।  उनके दुःख सुख में कभी शरीक नहीं हुए आज अचानक इस तरह महादेव भाई के लिए उनकी ये बैचेनी। 
***
महादेव और अल्ताफ के परिवार लगभग पचास सालों से एक दूसरे के पडोसी थे।  दोनों के पिता अच्छे मित्र थे।  सुबह साथ साथ खेत पर जाना , फसलों, जानवरों, घर परिवार के बारे में अपनी चिंताए साझा करना।  जब महादेव की शादी हुई तब उनकी दुल्हन गौरी अल्ताफ के यहाँ ही उतरी थीं जबकि गाँव में उनके एक दो रिश्तेदार और थे।  तब महादेव के पिता ने उन्हें समझाया था इतनी दूर आने जाने में लड़कियों को परेशानी होती इसलिए पड़ोस में उतार लिया।  होली ,ईद ,दिवाली सब साथ ही मनाई जाती थी। तब गाँव का माहौल ही कुछ और था न हिन्दू काफिर थे न मुसलमान अलगाव वादी। सब एक गाँव वाले थे सबके सुख दुःख साझा थे। 
समय के साथ सब कुछ बदलने लगा। गाँव के मीठे पानी में लट्ठ मार कर दो फाड़ करने की कोशिश शुरू हो गई। एक दुसरो को दुःख पहुँचाने वाले नाम दिए जाने लगे परेशान करने के लिए उनकी धार्मिक भावनाओ को आहत किया जाने लगा। कभी कभी चोट इतनी करारी होती दूरी इस कदर बढ़ जाती कि  उसे पटना मुश्किल हो जाता। 
ऐसे ही एक आँधी में विश्वास की दीवार भरभरा कर ढह गई अपने पराये ,हो गए , बरसों पुराने संबंधों के घरोंदे बिखर गए , नेह की डोरी टूट गई, साथ साथ उठने बैठने वाले, सुख दुःख साझा करने वाले अचानक एक दूसरे से बेगाने हो गए।  दिलों में ऐसी कड़वाहट भर गई कि  एक दूसरे को देखना भी नागवार गुजरने लगा।  अल्ताफ और महादेव भी इस लपट में अपने सौहार्द को बचा न सके हालांकि इस माहौल को बनाने में उनका कोई हाथ न था। लेकिन उनके रिश्तेदारों बंधू बांधवों और जात बिरादरी के दबाव के चलते उन्हें ये दूरियाँ बनानी पड़ीं जो धीरे धीरे बढ़ती ही चली गई।  दो घरों के बीच फूलों की बागड़ काँटों की झाड़ियों में बदल गई। 

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"महादेव भाई ने अपना घर बेच दिया उनका पूरा परिवार तो चार पांच दिन पहले ही चला गया था और आज महादेव भाई भी चले गए।"  
इस खबर ने अल्ताफ को हिला कर रख दिया।  उन्होंने तेज़ी से पलट कर शबाना को देखा फिर उन्हें महसूस हुआ कि उनकी आँखें भरी हुई हैं , उन्होंने तेज़ी से मुँह फेर लिया और महादेव के घर की ओर देखने लगे। "महादेव कब गया ?" आवाज़ के कंपन को छुपाते छुपाते भी थरथराहट शबाना तक पहुँच गई।  उसने धीरे से अपना हाथ अल्ताफ की पीठ पर रखा जिसमे सान्तवना थी, अल्ताफ के मनोभावों को समझ लेने का एहसास था। 
"कहाँ गए हैं वे लोग कुछ पता है ?"
"ये तो नहीं पता लेकिन अभी थोड़ी ही देर हुई है उन्हें गए हुए शायद बस अड्डे पर मिल जायें। "
अल्ताफ चौंक कर पलट गया न सिर्फ इस बात से की महादेव को गए ज्यादा समय नहीं हुआ है बल्कि इस बात से भी कि शबाना उनके मन को समझ गई है।  उन्होंने एक नज़र शबाना पर डाली सब कुछ तो था उस नज़र में।  इस खबर के लिए , उन्हें समझने के लिए और उन्हें क्या करना चाहिए इसका रास्ता दिखाने के लिए प्यार , कृतज्ञता और एक आशा कि शायद वह महादेव से मिल सकें। 
जल्दी से जूते पैर में डाल कर अल्ताफ बस अड्डे की ओर चल पड़ा।  कदमों के साथ बीती बातों ने भी वेग पकड़ लिया।  
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मारकाट  मची हुई थी। मंदिरों और मस्जिदों के सामने जानवरों को मार कर फेंका जा रखा था।  दुकाने लूटी जा रही थीं पथराव जारी था। ऐसे में अल्ताफ और महादेव बचते बचाते लगभग साथ साथ ही घर पहुँचे। तभी मोहल्ले के लडके दौड़ते हुए आये उनका मकसद मुस्लिम मोहल्ले से अकेले हिन्दू परिवार को खदेड़ने का था। अल्ताफ ने उनका रौद्र रूप देखा और नज़रें चुरा कर घर में घुस गया। इसके पहले भी कौम की मजलिस में वह महादेव की तरफदारी करने के लिए लानत मलानत सह चुका था। आज लड़कों के तेवर बिगड़े हुए थे। उनके हाव भाव बता रहे थे वे कुछ सुनने समझने वाले नहीं हैं।  महादेव की वह कातर दृष्टी अल्ताफ को आज भी याद है।  दरवाज़ा बंद कर गहरी सांस ले कर उसने कहा था 'या अल्लाह।' दिल से निकली इस पुकार ने काम किया और गली फौजी बूटों से गूँज उठी। 
आंसू गैस के गोलों ने उपद्रवियों को तितर बितर कर दिया।  अल्ताफ ने तुरंत शुक्राने की नमाज़ अदा की लेकिन महादेव की कातर नज़र को अनदेखा करने की शर्मिंदगी से वह कभी उबर नहीं पाया। 
सामने सड़क धुंधला गई थी अल्ताफ ने गमछे से  आँखें पोंछी। वह रोड पर आ गया था। अचानक ख्याल आया महादेव कहाँ जा रहा है किस बस में बैठा होगा ये तो पता ही नहीं है वह उसे ढूंढेगा कैसे ? चलते चलते उसके कदम ठिठक गए निराशा सी तारी होने लगी। 
 
वह बाजार में आ गया चारों और कोलाहल था लेकिन उसके अंदर सन्नाटा  पसरा  था।  इस भीड़ में भी वह अकेला था। अकेला उस व्यक्ति के जाने से जो बरसों पहले उसका दोस्त ना रहा था। ऐसी दुश्मनी भी तो नहीं थी। उसे याद आया दंगों के हादसे के करीब साल भर बाद की बात है गाँव के पास से गुजरने वाले हाई वे के काम पर गाँव के तमाम मजदूर लगे थे।  फसल की कटाई लिए मज़दूरों का टोटा  पड़ा हुआ था। अल्ताफ बड़ी मुश्किल से दो तीन मज़दूरों को राजी कर गाँव में लाया था।  सुबह सुबह वह  उन्हें लेने गया तो पता चला वे किसी और के खेत पर कटाई के लिए चले गए हैं।  अल्ताफ मायूस सा खेत पर पहुँचा तो देखा महादेव के खेत पर जोर शोर से कटाई चालू है।  अल्ताफ का खून खौल गया।  मज़दूरों के ना मिलने से फसल कटने में वैसे भी देर हो गई थी और देर होने से दाने बिखर जाने का खतरा था। गुस्से में उसने खुद ही कटाई शुरू कर दी।  गुस्से से ज्यादा महादेव का इस तरह दगा देना उसे कचोटता रहा।  आँखे भर भर आती रहीं , नथुने ठोड़ी कंपकपाती रही लेकिन वह ना रुका अपना सारा क्रोध क्षोभ दुःख दरांती से निकालता रहा।  दोपहर में जब शबाना रोटी लेकर आई उसे आँसुओं और पसीने  में लथपथ देख हैरान रह गई। उसके हाथ से दरांता लेकर अल्ताफ को छाँव में बैठाया पानी पिलाया। सुबह से खुद से खुद का दुखड़ा कहते कहते थक चुका अल्ताफ फफक पड़ा। शबाना के सांत्वना भरे शब्द और स्पर्श भी उसके मन को हल्का न कर सके।  इतना निकलने के बाद भी गुबार भरा ही रहा वह ठीक से खाना भी न खा सका। तभी उसे महसूस हुआ दो जोड़ी आँखे उसे घूर रही हैं  दिशा समझते पहचानने में समय ना लगा। उस ओर देखने का साहस तो ना हुआ लेकिन उसके  बाद उसकी सोच की दिशा बदल गई।  उन नज़रों की तपिश में उसका क्षोभ पिघल गया उसे वे दो जोड़ी कातर आँखें यकायक याद आ गईं। फसल और घर एक दिखाई देने लगे।  मन फिर अपराध बोध से भर गया।  वह देर तक पेड़ की छाँव में लेटा रहा उसमे फिर दरांता उठाने की शक्ति न रही । उसकी थकान को भाँप कर शबाना ने कहा कल गाँव के दो चार लोगों को साथ लेकर फसल काट लेंगे अब घर चलो।  उसने शबाना को घर भेज दिया वह कुछ देर अकेले रहना चाहता था।  खेत के खाली  हिस्से से मन के खाली हिस्से पर वह पीछे छूट गए खूँट सी खुरदराहट महसूस कर रहा था। 

अगले दिन सुबह सुबह दो मज़दूर उसके घर आ गए अल्ताफ खुद से ही शर्मिंदा हो गया।  फसल पर पूरे परिवार का जीवन टिका था इसलिए वह उन्हें मना भी न कर सका ना ही ये पूछ सका कि उन्हें उसके यहाँ काम पर वापस भेजा गया है या वे खुद आये हैं। खेत पर जाते अल्ताफ ने देखा महादेव की पूरी फसल नहीं कटी थी महादेव गौरी भाभी और उनके दोनों बेटे कटाई में जुटे थे।  
इस घटना के बाद अल्ताफ जाने अनजाने महादेव भाई की खोज खबर रखने लगा।  महादेव की बेटी की शादी तय हुई तो गाँव के एकमात्र हलवाई शौकत भाई से अल्ताफ ने बातों बातों में कह दिया "शौकत भाई महादेव अपने मोहल्लेदार है हिसाब किताब अपनों वाला लगा लेना। " शौकत भाई आश्चर्य से उन्हें देखते रह गए थे अल्ताफ ने झेंपते हुए कहा था ,"शौकत भाई लड़की की शादी में वैसे भी हज़ारों खर्चे होते हैं मैंने तो मोहल्ले दारी  के नाते कहा था आगे आप देख लो। " शौकत भाई ने भी उनकी बात का मान रख लिया था। 
पडोसी के नाते निमंत्रण तो उन्हें भी मिला था लेकिन वो जाने की हिम्मत नहीं कर पाया।  अपने घर से ही तैयारियों का जायज़ा लेता रहा। हाँ शबाना के हाथ बिटिया के लिए खूबसूरत जोड़ा और कंगन भिजवाये थे।  भीगी आँखों इ दूर से बिटिया को विदा होते देखता रहा उस दिन अल्ताफ फूट फूट कर रोया था। 
जीवन सामान्य ढंग से चल रहा था। महादेव और अल्ताफ अब भी दोस्त न थे लेकिन दुश्मन भी न थे।  दोनों के बीच दोस्ती के ज़ज्बात बर्फ बन जम चुके थे।  इस बर्फ के वे आदि हो चुके थे।  कोई इस बर्फ को पिघलाने की कोशिश भी नहीं कर रहा था ना शबाना , ना गौरी और ना ही गाँव वाले। शबाना अल्ताफ की शर्मिंदगी से वाकिफ थी तो गौरी महादेव के दिल के उस जख्म से जो अब भी यदा कदा टीसने लगता था हालांकि अब उस पर वक्त की खत जमने लगी थी।  गाँव वाले या तो खुश थे या शर्मिंदा या शायद तटस्थ। 
महादेव अब भी अल्ताफ जीवन  हिस्सा था एक मूक हिस्सा जिसके चले जाने से हुई हलचल ने उसके भीतर एक सन्नाटे को मुखरित कर दिया था। आँगन की बाड़ में सूखी झाड़ियों से बने छेद को दोनों ने ही कभी पटाने की कोशिश नहीं की। तार पर लटका अंगोछा महादेव के घर पर होने की सूचना देता था।  ऐसा ही कुछ शायद महादेव के साथ भी था।  ईद और दिवाली पर दोनों ही घरों में साफ सफाई रंग रोगन होता था।  अल्ताफ का बेटा नौकरी पर बाहर चला गया तो महादेव के खेत पर बनी मढ़िया दोनों खेतों के बीच की मेढ़ तरफ सरक गई।  शबाना और गौरी की यदाकदा बातें होती थीं आना जाना तो शायद नहीं होता था। 
अल्ताफ यादों के कोलाहल से घिरा बस स्टैंड पहुँचा तो बसों के तीखे हार्न और खोमचे फेरी वालों की आवाज़ से चैतन्य हुआ।  महादेव जाने किस बस में होगा ? कहीं बस निकल न गई हो ?अगर वह चला गया होगा तो ? फिर वह कभी महादेव से न मिल सकेगा। अब उसे सच में महादेव के बिना रहने की आदत डालनी होगी। 
अल्ताफ तेज़ी से खड़ी बसों के अगल बगल चक्कर लगा कर उनमे झांकने लगा।  बस की खिड़की तरफ पीठ किये आदमी को पहचानते वह बस में चढ़ गया। महादेव ही तो है। उसे  देखते ही उसके नथुने और ठोड़ी कंपकपाने लगी शब्द गले में फंस गए बड़ी मुश्किल से होंठ हिले फुसफुसा कर निकले एक नाम की तरंगे हवा में फ़ैल गईं।  महादेव ने अल्ताफ को सामने खड़ा देखा तो उठ खड़ा हुआ।  एक दूसरे के आमने सामने खड़े कुछ ही पलों में दोनों ने आठ साल साथ जी लिए और एक दूसरे के गले लग गए। समय ठहर गया एक दूसरे को बाँहों में थामे उन्होंने आने वाली वह जिंदगी साथ जी ली जो उन्हें एक दूसरे के बिना जीनी थी।  बर्फ पिघल चुकी थी जो कभी पूरी तरह जमी ही नहीं थी।  एक परत के नीचे भावनाओं की तरंगे थीं उस परत को हटाने की कोशिश ही दोनों ने नहीं की थी। अल्ताफ ने जल्दी से महादेव का नया पता ठिकाना पूछा कंडक्टर ने बस चलने के लिए सीटी बजा दी।  धुंधलाती आँखों से दोनों ने एक दूसरे को देखा।  बस चल पड़ी। 
कविता वर्मा