गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

शायद तुम समझ सको

प्रिय डायरी ,
कहना तो ये सब मैं 'उनसे 'चाहती थी लेकिन तुमसे कह रही हूँ। अच्छा तुम्हारे बहाने उनसे कहे देती हूँ।  
प्रिय ,
आजकल मेरे दिमाग में एक उथल पुथल सी मची है एक अजीब सी बैचेनी ने दिमाग में घर कर लिया है ,लगता है जैसे मैं कहीं कैद हूँ और उस कैद से छूटने के लिए छटपटा रही हूँ लेकिन उससे छूटने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा है बल्कि हर रास्ता मुझे वापस उसी बंधन की ओर,और ज्यादा धकेलता, कसता सा लगता है।  मैं छूटना चाहती हूँ लेकिन किससे यही नहीं समझ पा रही हूँ क्योंकि जिन जिम्मेदारियों से मैंने खुद को हार की तरह सजाया था वही अब बंधन बन गए हैं।  जब इन बंधनों से छूटने  के लिए अपनों की ओर देखती हूँ उनके अपने तर्क होते हैं जो मेरे विचारों और तर्कों के साथ गडमग हो कर मुझे और उलझा जाते हैं।  
कभी जब सबसे घबरा कर सब विचारों ,बातों को कर नए सिरे से सोचना शुरू करती हूँ  तो लगता है बात तो कुछ भी नहीं है बस एक छोटी सी बात है कि मैं नौकरी छोड़ना चाहती हूँ।  हाँ बस छोटी सी बात अब मेरा नौकरी करने का मन नहीं है।  पिछले पंद्रह सालों से ये नौकरी मेरे जीवन का हिस्सा बन गई है। मेरी पहचान इससे है और मैं इसकी आदि भी हो गयी हूँ लेकिन फिर भी अब मैं इससे आजाद होना चाहती हूँ।  

करियर की महत्वाकांक्षा मुझे कभी नहीं रही ,हाँ मैं कुछ करना चाहती थी अपने को जानने ,समझने ,तलाशने और पाने के लिए।  इस नौकरी ने बहुत कुछ दिया भी है।  चीज़ों को समझने का नजरिया ,लोगों को जानने की समझ विकसित हुई है।  मेरे व्यक्तित्व को संवारा है इसने।  मेरा पहनावा ,बातचीत का ढंग सबमे सकारात्मक परिवर्तन आया है लेकिन अब मैं थक गयी हूँ ,घर बाहर की जिम्मेदारियां निभाते, थोडा आराम चाहती हूँ।  जिस एकरस जीवन की नीरसता को तोड़ने के लिए नौकरी की थी वही नीरसता अब इस भागदौड़ में शामिल हो गयी है मैं निकलना चाहती हूँ इससे।  
तुमने मुझे हमेशा आगे बढाया अभिभूत हूँ मैं।  मेरी काबलियत पर जितना भरोसा तुम्हे था मुझे भी नहीं था।  तुमने मुझे उड़ने के लिए विस्तृत आसमान दिया पर अब मैं पंख समेट कर फिर अपने बसेरे में लौटना चाहती हूँ।  तुम क्यों मुझे उड़ान भरने को विवश कर रहे हो ,मेरे पंख थक गए हैं मुझे विश्राम करने दो।  

जानते हो न  रिश्तेदारों को ख़ुशी नहीं हुई थी जब मैं पहली बार घर से बाहर निकली थी।  कितनी ही समझाइशें दीं गयीं थीं।  क्या जरूरत है ,कितना कमा लोगी ,क्यों थका  रही हो खुद को ? बच्चों को देखो। आज जब इस रास्ते पर इतना आगे निकल आई हूँ सब फिर समझाते हैं ,इतनी अच्छी नौकरी ,इतनी बड़ी कंपनी ,इतना पैसा क्यों छोड़ना चाहती हूँ ? क्या करूँगी घर में रह कर बोर हो जाऊँगी।  

तुम्हारी भी तो अच्छी खासी नौकरी है अच्छी तनख्वाह है। मेरी तनख्वाह की तो जरूरत ही नहीं पड़ती। यहाँ तक की मेरे सारे खर्चे भी तुम ही पूरे करते हो।  ना मुझे कभी ये शौक रहा कि मैं खर्च करूँगी न तुमने कभी मना किया।  हमारे बीच तेरे मेरे पैसे जैसी कोई बात ही नहीं रही।  हाँ मैं मानती हूँ कि पैसा कभी ज्यादा नहीं होता जितना आता जाता है जरूरतें उतना ही पैर पसारती जाती हैं लेकिन उन्हें समेटा भी तो जा सकता है न ? बच्चों के लिए? बच्चों के लिए उनकी जरूरतों के हिसाब से हमारी तैयारी है ना ? याद है जब मैंने नौकरी शुरू की थी ,एक कंपनी में मेरा सिलेक्शन हो गया था और जिस दिन ऑफर लेटर लेने गई थी बाहर तुमने किसी को नौकरी के लिए गिडगिडाते देखा था। उसे नौकरी की बहुत जरूरत थी ,तब तुम्ही ने तो कहा था "क्यों ना तुम ये नौकरी छोड़ दो तो उसे ये नौकरी मिल जायेगी। तुम तो बस  ऐसे ही नौकरी कर रही हो ये तुम्हारी जरूरत थोड़े ही है। " उसका गिडगिडाना तुमसे  देखा नहीं गया था।  अब मेरी व्यस्तता की तुम्हे आदत हो गयी है।  तुम चाहते हो मैं व्यस्त रहूँ ताकि तुम्हारी व्यस्तता में मेरा खालीपन विघ्न ना डाले।  

जानते हो जब मैंने बच्चों को बताया की मैं नौकरी छोड़ना चाहती हूँ तो उन्हें इस बात की तनिक भी ख़ुशी नहीं हुई।  बल्कि उन्होंने कहा क्या जरूरत है नौकरी छोड़ने की, हम लोग अपने काम कर तो लेते हैं।  उन्हें अब मेरे बिना ,अपनी माँ के बिना, रहने की आदत हो गयी है। फिर भी जब कभी उन्हें समय नहीं दे पाती हूँ तो अपना अपराधबोध छुपाने के लिए उन्हें गिफ्ट, आउटिंग या मूवी के लिए पैसे देती हूँ।  जानती हूँ ऐसा सोचना ठीक नहीं है लेकिन क्या करूँ ?विचारों को दिमाग में आने से रोक तो नहीं पा रही हूँ। 

कारण। कारण तो कुछ भी नहीं है बस मेरा मन नहीं लग रहा है।  ऑफिस का माहौल पहले से काफी बदल गया है मैं उसमे खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रही हूँ  घुटन सी होती है।  खैर कह सकते हो इतने सालों में कई बार ऐसा माहौल मिला होगा लेकिन उस समय शायद मैं तैयार थी सब एडजस्ट करने के लिए लेकिन अब और नहीं करना चाहती।   कुछ सृजनात्मक करना चाहती हूँ  लेकिन नहीं कर पा रही हूँ ,दिमाग में थकान सी रहती है।  हाँ जानती हूँ नौकरी करने निकालो तो ये सब तो सहना पड़ता है और लोग भी तो सहन करते हैं लेकिन ये सहना जरूरी है क्या ? 

सबसे बात करके और खुद सोच सोच कर यह भी लगता है कि खाली नहीं रह पाऊँगी घर में।  एक दिन तो घर में रह नहीं पाती।  दिमाग का शोर घर के खालीपन से टकराकर प्रतिध्वनित होता है। लेकिन जब दिमाग शांत होगा तब घर के शांत वातावरण के साथ एकाकार होकर सृजन की राह पर बढेगा।  हाँ एकदम से ये नहीं हो सकता ,दिमाग में उठती विचारों की सुनामी को शांत होकर मनमोहक चमकती लहरों में बदलने में वक्त तो लगेगा।  
देखा एक छोटी सी बात पर कितने अगर मगर हो गए और मुझे उलझा गए । मैं अभी तक निश्चित नहीं कर पा रही हूँ क्या करूं ? कितना मुश्किल है न किसी निर्णय पर पहुंचना ? प्लीज़ मुझे बताओ न "मैं क्या करूँ ?"

कविता वर्मा 




सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

पहली प्रतिक्रिया " परछाइयों के उजाले "

लेखिका कविता वर्मा जी की कहानियों की मैं बहुत प्रशंशक हूँ। सबसे पहले मैंने उनकी लिखी कहानी वनिता पत्रिका में पढ़ी। मुझे बहुत पसंद आई। कहानी का नाम था " परछाइयों के उजाले " !
जब मुझे मालूम हुआ कि उनका प्रथम कहानी संग्रह "परछाइयों के उजाले" के नाम से प्रकाशित हुआ है तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई। मैंने कविता जी से यह संग्रह भिजवाने का आग्रह किया। अभी कुछ दिन हुए मुझे यह मिला।
कविता जी कि लेखनी में एक जादू जैसा कुछ तो है जो कि पाठक को बांध देता है कि आगे क्या हुआ। लेखन शैली इतनी उम्दा है कि जैसे पात्र आँखों के सामने ही हों और घटनाएं हमारे सामने ही घटित हो रही हो।
बारह कहानियों का यह संग्रह सकारात्मकता का सन्देश देता है। इनके प्रमुख पात्र नारियां है। नारी मनोविज्ञान को उभारती बेहद उम्दा कहानियाँ मुझे बहुत पसंद आया। मेरी सबसे पसंद कि कहानियों में है ,' जीवट ' , 'सगा सौतेला ', 'निश्चय ',' आवरण ' और 'परछाइयों के उजाले '। बाकी सभी कहानियां भी बहुत अच्छी है।
" जीवट " में फुलवा को जब तक यह अहसास नहीं हो जाता कि सभी सहारे झूठे है , तब तक वह खुद को कमजोर ही समझती है। कोई भी इंसान किसी के सहारे कब तक जी सकता है।
" सगा सौतेला " जायदाद के लिए झगड़ते बेटों को देख कर भाई को अपने सौतेले भाई का त्याग द्रवित कर जाता है लेकिन जब तक समय निकल जाता है। यहाँ यह भी सबक है कि कोई किसी का हिस्सा हड़प कर सुखी नहीं रह सकता। पढ़ते - पढ़ते आँखे नम हो गई।
" निश्चय " कहानी भी अपने आप में अनूठी है। यहाँ एक मालकिन का स्वार्थ उभर कर आता है कि किस प्रकार वह अपने घर में काम करने वाली का उजड़ता घर बसने के बजाय उजड़ देती है। एक माँ को बेटे से अलग कर देती है। जब मंगला को सच्चाई मालूम होती है तो उसका निश्चय उसे अपने घर की तरफ ले चलता है।
" आवरण " कहानी भी भी बहुत सशक्त है। यहाँ समाज के आवरण में छुपे घिनौने चेहरे दर्शाये है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि एक औरत का कोई भी नहीं होता है। उसे अपने उत्थान और सम्मान के लिए पहला कदम खुद को ही उठाना पड़ता है और आवाज़ भी । तब ही उसके साथ दूसरे खड़े होते हैं। यहाँ भी सुकुमा के साथ यही हुआ। अगर वह आवाज़ नहीं उठाती तो वह अपने जेठ के कुत्सित इरादों कि शिकार हो जाती। औरत का आत्म बल बढ़ाती यह कहानी बहुत उम्दा है।
" परछाइयों के उजाले " एक अलग सी और अनूठी कहानी है। कहानी में भावनाओं के उतार चढाव में पाठक कहीं खो जाता है। यहाँ भी पढ़ते -पढ़ते आँखे नम हो जाती है। इस कहानी के अंत की ये पंक्तियाँ मन को छू जाती है , " नारी का जीवन हर उम्र में सामाजिक बंधनो से बंधा होता है जो कि उसकी किसी भी मासूम ख्वाहिश को पाने में आड़े आता है। "
कविता जी की सभी कहानियाँ बहुत अच्छी है। मेरी तरह से उनको हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं कि उनके और भी बहुत सारे कहानी संग्रह आएं।
मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ बल्कि एक प्रसंशक हूँ कविता जी कि कहानियों की।