रविवार, 14 जुलाई 2013

पहचान

कमरे की दीवारों ने सरसरा कर वेदिका को चौकन्ना कर दिया . पलकों में जमे आंसू अभी सूखे नहीं थे जाने कितनी देर रोते रोते अभी तो आँख लगी थी कि दीवारों ने सरसराकर उसे जगा दिया .इस महल समान घर में अब यही दीवारें तो उसकी अपनी रह गयी थीं जो कभी उसे सर टिकाने को सहारा देती तो कभी उसके दुःख की साक्षी बन उसे सान्तवना देती . जब सूनी सेज की सलवटें उसे चुभने लगती वह उन्हें मुठ्ठी में भींच कर विदित की धडकनों को महसूस करने की कोशिश करती और नाकाम रहने पर इन्ही दीवारों से सहारा पाती . 
वेदिका ने उठ कर दीवारों की सरसराहट का मकसद जानने की कोशिश की फिर धीरे से दरवाज़ा खोल कर बाहर झाँका वहाँ कोई नहीं था . तभी हवा में तैरती एक तरंग उसका नाम लेकर आयी तो वेदिका ने कान लगा कर सुनने की कोशिश की . मम्मीजी के कमरे से जेठजी की आवाज़ आ रही थी . 
"अब उसका यहाँ क्या काम है विदित चला गया अब उसका यहाँ रहने का कोई हक नहीं बनता ."
" तो क्या करें घर से निकाल दें ?उसके माँ बाप ने तो विदित के जाने पर अफ़सोस करने आना भी जरूरी नहीं समझा .अब उसे उठा कर सड़क पर तो फेंक नहीं सकते " ये मम्मीजी का स्वर था . 
" वही तो मम्मीजी जब उसके माता  पिता तक उससे सम्बन्ध रखने को तैयार नहीं हैं तो हम भला क्यों इस पचड़े में पड़ें ? आज वह कल उसका बच्चा कब तक उसे कमा कर खिलाएंगे .हमारा खाएगी और कल को हमसे ही हिस्सा माँगने खड़ी हो जाएगी . क्या हक बनता है उसका ? मैं तो कहती हूँ उसे अभी घर से निकाल दो फिर उसे जहाँ जाना हो जाये . चाहे माँ बाप के घर या और कहीं .ये तो विदित से भाग कर शादी करने से पहले सोचना था ."  ये भाभी की आवाज़ थी ,वही भाभी जो उसकी और विदित की शादी से नाखुश होकर भी विदित के सामने उसके साथ मुंह में मिश्री घोल कर बतियाती थीं .आज मिश्री थूक कर दिल में इकठ्ठे किये सारे जहर को जबान पर ले आयीं थीं . 
बस करो तुम लोग एक तरफ़ा सोचते और बोलते हो .ऐसे ही घर से निकाल दोगे तो जाएगी कहाँ सडकों पर रहेगी ? उसकी अपनी तो कोई पहचान है नहीं पहचानी जाएगी हमारे परिवार की बहू के रूप में ही न ? फिर क्या इज्ज़त रह जाएगी हमारी ? अभी विदित को गए महिना भर भी नहीं हुआ थोडा धीरज धरो सोचते है क्या करना है ? अभी लोगों में विदित के एक्सीडेंट और मौत के चर्चे हैं विदित से उसकी पहचान है समय के साथ ये पहचान धुंधली हो जाएगी तब तक धीरज रखो .बाबूजी  ने कहा .
कमरे का दरवाज़ा खुला तो वेदिका आड़ में हो गयी .उसका समूचा अस्तित्व झनझना  उठा .उसकी खुद की कोई पहचान नहीं है .विदित के जाने के बाद इस घर में उसके लिए कोई जगह नहीं है . विदित के होने वाले बच्चे का इस घर में कोई हक नहीं है . विदित के जाने के बाद ये उस पर दूसरा कुठाराघात था . 
चार महीने पहले उसने और विदित ने मंदिर में शादी कर ली थी .वेदिका एम बी ए की मेधावी छात्रा थी और विदित एक स्थापित वकील .किसी सेमीनार में दोनों का परिचय हुआ था और पहली ही नज़र में प्यार हो गया .छ महीने में स्थिति एक दूसरे के बिना ना जीने की सी हो गयी .परिवारों के मानने की सम्भावना नहीं के बराबर थी इसलिए दोनों ने हाँ  ना के पचड़े में पड़ने की जरूरत ही नहीं समझी . हाँ शादी करके वे सबसे पहले वेदिका के घर पहुंचे थे जहाँ पहले रिवाज के तौर पर उनके मुँह पर दरवाज़ा बंद कर दिया गया . वहाँ से निकलते ही वेदिका की रुलाई फूट पड़ी ऐसी विदाई की तो उसने कल्पना ही नहीं की थी . विदित देर तक उसे ढाढ़स बँधाता  रहा . विदित के घर पहुँचने के पहले ही कोई शुभचिंतक ये खबर पहुँचा आया था . घर का दरवाज़ा नौकर ने खोला और आशीर्वाद के नाम पर सुनने को मिला तुमने हमारी नाक कटवा दी ,कहीं मुंह दिखने लायक नहीं छोड़ा . 

विदित ने वेदिका के डूबते दिल को सहारा दिया . उसने अगले ही दिन कश्मीर की टिकिट बुक करवा ली . पंद्रह दिन दोनों दीन दुनिया से दूर एक दूसरे में खोये दिलों के घाव को भरने में लगे रहे जो उनके अपनों ने उन्हें दिए थे . 
वापस आने पर भी ज्यादा कुछ नहीं बदला  था .विदित उसकी ढाल बना रहा . मम्मीजी और भाभी का व्यवहार बेइज्जती की हद तक रुखा था लेकिन वेदिका धीरज से सहती रही . उसे विशवास था कि एक दिन वह सबका दिल जीत लेगी . पढ़ाई शुरू करने का विदित का प्रस्ताव भी उसने इसीलिए टाल दिया क्योंकि अभी वक्त कच्चे रिश्तों को संवारने का था . रिश्ते संवरते इसके पहले ही एक एक्सीडेंट में विदित की जिंदगी की डोर कच्चे धागे सी टूट गयी ओर  इसी के साथ वेदिका की हर आस भी टूट गयी . 
पंद्रह दिनों तक मेहमानों का आना जाना लगा रहा .जिन मेहमानों को दुल्हन के रूप में मुँह दिखाई का अवसर नहीं मिला था नियति ने आज उन्हें उसके जख्मों को कोंचने का अवसर दे दिया था . कईओं ने विदित के रूप में इस घर से घनिष्ठ होने के जो सपने संजोये थे उसकी किरचें उसके जख्मी मन पर बिखेर कर संतुष्टि पाई थी . वेदिका ने पथराये मन से सब झेला लेकिन वह भावनाओं से भीगे एक कोमल काँधे के सहारे के लिए छटपटाती ही रही . 
आठ दिन पहले उस दिन सुबह सुबह वेदिका चक्कर खा कर गिर पड़ी .जब आँख खुली तो डॉक्टर को प्रिस्क्रिप्शन लिखते और कहते सुना "प्रेगनेंसी कन्फर्म करने के लिए कुछ टेस्ट लिख रहा हूँ जल्दी ही करवा लें." सबके मुंह में जैसे कुनैन घुल गयी थी और शायद सबने यही मनाया हो कि ये टेस्ट नेगेटिव आये . खुद वेदिका भी नहीं समझ पाई थी कि इस खबर पर खुश होए या रोये ,बस पेट पर हाथ रखे सुन्न सी बैठी रही . हाँ एक आस सी जरूर जागी थी कि शायद इस बच्चे की वजह से इस घर में उसे थोड़ी सी जगह मिल जाए . 

अगले दो ही दिन में उसने जाना की बच्चे का माँ से कितना गहरा नाता होता है .माँ से नफरत बच्चे से भी बेगानापन पैदा कर देती है ,उस समय बच्चे से पिता का अंश जैसे विलीन हो जाता है वह सिर्फ माँ से नफरत जताने का पर्याय बन जाता है .वेदिका  ने कम से कम मम्मीजी की आँखों में विदित के अंश के लिए कोमल भाव देखना चाहे थे लेकिन उसने जाना कि नफरत की भावना इतनी तीव्र होती है जिसमे प्यार अपनापन जैसी भावनाएं झुलसकर दम तोड़ देती हैं . वहाँ उसे सिर्फ वीरानगी ही नज़र आयी एक अजीब सी तटस्थता जैसे वह बच्चा सिर्फ और सिर्फ वेदिका का है जिसके साथ उनका कोई रिश्ता न था न है और ना ही उस बच्चे से जो उसके कोख में पल रहा है विदित के अंश के रूप में . मानो विदित के जाने के साथ ही उस अंश का समूचा अस्तित्व ही ख़त्म हो गया हो और वह सिर्फ उनकी नफरत का ही अधिकारी है . हाँ इससे एक बात जरूर हुई उस एहसासों से खाली रेगिस्तान में चलते सच के नुकीले काँटों ने उसे जता दिया कि इस घर में न तो उसका कोई स्थान था न कभी होगा .
आज की बातचीत से तो उसे लगा कि  विदित के नाम से जो थोड़ी बहुत उसकी पहचान है उसके धुंधला होने पर उसका अस्तित्व ही रौंदा जा सकता है .माता पिता से मिली पहचान तो उनके सम्बन्ध तोड़ते ही गुम  हो चुकी थी . अब उसे अपनी खुद की एक पहचान की जरूरत थी जिसके साथ वह और उसका बच्चा जी सकें . 

सारी रात दीवारें उसकी सिसकियों से लरज़ती रहीं .सुबह सारे घर की दीवारें करुण विलाप से थरथरा गयीं तो उसकी आँख खुली . उठ कर खड़े होते होते लकड़ी सी अकड़ गयी टांगों ने सहारा देने से इंकार कर दिया .दस मिनिट लगे होंगे उसे व्यवस्थित होने में .कमरे से बाहर आयी तो उसके पैर वहीँ ठिठक गए .चार महीनों में पहली बार किसी अपरिचित चेहरे पर उसे एक जोड़ी आँखों में करुणा नज़र आयी . उन आँखों की मालकिन को तो वो नहीं जानती थी लेकिन संवेदना की डोर से वह उन फैली बाहों तक खिंची चली आयी . उसकी पीठ सहलाते हाथों के कोमल स्पर्श ने अनकही संवेदना को उस तक पहुंचा दिया .तभी घूरती कठोर नज़रों ने उसे यथार्थ में ला पटका . वह छिटक कर अलग हो गयी . काम करते भी कई बार उसने उन नज़रों की तरलता महसूस की .हालांकि उनका परिचय वह अब तक नहीं जान सकी थी .भाभी से पूछा भी था लेकिन कोई जवाब नहीं मिला .

आधी रात के लगभग वेदिका की नींद खुली दरवाजे पर खटखटाहट सी हुई थी . असमंजस में उसने दरवाजा खोला तो वही दो आँखें नज़र आयीं . हाथों ने कोमलता से उसे धक्का देकर अन्दर किया और दरवाज़ा बंद हो गया . लाईट जलाने के लिए बढ़ते हाथों को दृढ़ता से रोक दिया गया .नाईट बल्ब के धीमे प्रकाश में उसे चुप रहने का इशारा करते हाथों ने हाथ थाम कर अपने पास बैठा लिया . 

मैं विदित के मामा की बेटी हूँ .विदित से बहुत क्लोज थी . तुमसे शादी के बारे में विदित ने सिर्फ मुझे बताया था . मैं हमेशा उसका साथ दूँगी ये मेरा उससे वादा था . अब विदित तो रहा नहीं लेकिन तुम तो हो इसलिए अब तुम्हारे बुरे वक्त में तुम्हारी मदद करके अपना वादा निभाना चाहती हूँ . इसी के इंतज़ाम में लगी थी इसलिए यहाँ एक महीने बाद आयी . फुसफुसाते स्वर में उन्होंने अपने आने का मकसद बताया . 
तुम तो एम बी ए कर रहीं थीं न ? तुम्हारी मार्कशीट और बाकी सारे पेपर्स कहाँ हैं ? 
मेरे पास हैं . वेदिका ने भी अपनी आवाज़ को भरसक धीमा करते हुए कहा . 
विदित का अकाउंट और उसका ए टी एम ? कितने पैसे हैं उसके अकाउंट में ? 
मेरे पास हैं लगभग दो लाख रुपये होंगे .उसके स्वर में उलझन थी . 
तुम्हारे गहने या और कुछ मिला कर क्या है ? 
एक सेट डायमंड का है यही कोई अस्सी नब्बे हज़ार का ,उसके अलावा कुछ खास नहीं . 
तुम अपने पेपर्स मुझे दे दो यहाँ से बहूत दूर साउथ की एक यूनिवर्सिटी में मैंने बात कर ली है वहाँ तुम्हारा रजिस्ट्रेशन करवा रही हूँ अपनी पढ़ाई पूरी करो . अपना जरूरी सामन एक बेग में रखना मैं टिकिट बुक करवा कर मैसेज करूंगी तुम यहाँ से भाग जाना .यहाँ तुम और तुम्हारा बच्चा दोनों ही सुरक्षित नहीं हैं . चली जाओ यहाँ से अपनी पहचान बनाओ ताकि फिर कोई तुम्हारी तरफ आँख न उठा सके . 
वेदिका हतप्रभ सी बैठी सुनती रही अचानक ये क्या हो गया वह समझ ही नहीं पायी . 
उठो पेपर्स दो मुझे जल्दी . दो हाथों ने उसे झकझोर दिया . 
वेदिका हडबडा कर उठ खड़ी  हुई उसने अपने पेपर्स दिए फोन नंबर लिख कर दिया . उन दो आँखों के करुण भाव की पहचान ने उनकी हर बात पर विश्वास करवा दिया था जिसके दम पर वह खुद की पहचान बनाने के उनकी  हर योज़ना के लिए तैयार हो गयी थी . 
अगले दस मिनिट में पूरी योज़ना बन गयी थी फिर कमरे में सन्नाटा छा गया .जाते जाते दो हाथों ने उसे मजबूती से थाम कर दृढ़ स्वर में कहा " आगे की जंग तुम्हे अकेले लड़नी है लेकिन इन बेगानों के बीच के अकेलेपन से ज्यादा अकेलापन वहाँ नहीं होगा विश्वास करो .मैं भी लगातार तुम्हारे संपर्क में नहीं रह पाउंगी वर्ना मेरे माध्यम से ये लोग तुम तक पहुँच जायेंगे लेकिन हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी अपनी तरफ से तुम्हारी खैर खबर लेती रहूँगी बस तुम हिम्मत ना हारना . अपनी पहचान बना कर अपने और अपने बच्चे के हक के लिए वापस लौटना . 
वेदिका देर तक वैसी ही बैठी रही .आँसूं गालों से ढुलक कर गोद में समाते रहे . खुद की पहचान बनाने के लिए उसे अपनी मौजूदा पहचान से दूर बहुत दूर हो जाना है एक अनजानी दुनिया में अकेले सिर्फ अपने दम पर ताकि इस घर के लोग उसे ढूंढ ना सकें . उनके मन के प्रॉपर्टी खो देने या उसके हिस्से होने के डर के सामने उसके कोख में पलते विनीत की आख़िरी निशानी और वह खुद विनीत का प्यार उनके लिए कोई मायने नहीं रखते . 
स्वार्थ और लालच के वशीभूत इंसान की सोच कितनी संकीर्ण हो जाती है कि उसके परे अपनों की निशानियाँ भी अपने अर्थ खो देती हैं .वेदिका ने अपने प्यार के प्रतिफल में जीवन की कुछ ऐसी ही कड़वी सच्चाइयों को देखा है जिन्होंने उसे भीतर तक तोड़ दिया . 
कई बार वह सोचती काश वह भी उस दिन विनीत के साथ होती लेकिन फिर उसकी ममता उसे धिक्कारती इस नन्ही जान को इस दुनिया में आने से रोकने का तुम्हे कोई हक नहीं है . वह सोचती अपने अजन्मे बच्चे से उसे इतनी ममता है फिर कैसे उसके माता पिता जिनके साथ वह चौबीस साल रही पल -पल उनकी आँखों के सामने बढ़ी सुख दुःख के पल साथ जिए उनकी ख़ुशी का कारण रही उन्होंने एक पल में उसे इतना पराया कर दिया कि उसकी ख़ुशी में न सही उसके दुःख में भी साथ देना जरूरी नहीं समझा .उसे तो एक न एक दिन उस घर से जाना ही था अगर उसने अपनी मरजी से जीवन साथी चुना तो क्या इतना गलत हो गया कि इस तरह रिश्तों को नफरत की कब्र में दफन कर दिया जाये .
उसका मन नहीं मानता दिल के किसी कोने से आवाज़ आती ऐसा नहीं हो सकता कि उस पर इतना बड़ा दुःख टूटे ओर मम्मी का दिल न पसीजे .ये खबर सुन कर वे तो जरूर रोई होंगी . रोये तो पापा भी होंगे लेकिन शायद उसने ही उन्हें इस शर्मिंदगी में डाल दिया था या शायद कोई और मज़बूरी हो कि वे यहाँ नहीं  आये .
एक अनजान शहर अनजान मंज़िल पर जाने के नाम से उसका दिल काँप रहा था . उसका मन हुआ वह वापस अपने घर चली जाये मम्मी पापा के पैर पकड़ कर माफ़ी मांग ले मम्मी की गोद में सिर रख कर खूब रो ले .लेकिन नकार दिए जाने का डर शायद दुनिया का सबसे बड़ा  डर  है जिसने उसके इन इरादों और कदमों को कमजोर कर दिया . यह तो तय था कि बिना अपनी पहचान बनाये न तो वह न उसके प्यार की निशानी ही सुरक्षित  थी यही ख्याल उसे जीने की प्रेरणा देता और बेगाने हो चुके अपनों  के सामने अपनी पहचान बनाने का निश्चय दृढ़ होता जाता . 

अगले दिन दोपहर में वेदिका चुपके से घर से निकल कर बैंक पहुँची। उसने अपना और विदित का अकाउंट बंद करवा कर अपने पुराने नाम वेदिका शर्मा के नाम से नया अकाउंट खुलवाया आधे पैसे फिक्स डिपोसिट किये कुछ जमा किये और कुछ कैश लेकर घर आ गयी .अलमारी से एक बेग निकाल कर कपड़ों के नीचे रुपये छुपा कर रखे . शादी वाले दिन पहनी साड़ी हाथ में लेते ही यादें नदी की तरह आँखों से बहने लगी .उसी साड़ी में उसने विदित और उसकी शादी की तस्वीर और शादी का सर्टिफिकेट लपेट कर रख दिया .वह कम से कम सामान अपने साथ ले जाना चाहती थी लेकिन विदित की खुशबू से रची बसी किसी भी चीज़ को छोड़ने का मन ही नहीं हुआ . 
तीन दिन बाद शाम पांच बजे एक मेसेज़ आया रात दो बजे की गाड़ी का ई टिकिट था .कुछ ही देर बाद एक और मेसेज आया ट्रेन में बैठ कर इस सिम को निकाल देना और फिर कभी इसका इस्तेमाल मत करना . 
रात एक बजे पूरा घर सन्नाटे में  डूबा था वेदिका ने घर से निकल कर स्टेशन की राह ली .ट्रेन आने में दस मिनिट की देरी थी घबराहट में वह बार बार घडी देख रही थी . एक बार पहले भी उसने घर छोड़ा था तब विदित उसके साथ था तब उसे बिलकुल डर नहीं लगा था .आज एक अनजाना डर उसे बैचेन कर रहा था जाने वह पकडे जाने का डर था या अनजान सफ़र पर जाने का डर . 

ट्रेन की रफ़्तार के साथ वेदिका के दिल की धड़कनें भी तेज़ होती गयीं।  उसने बहुत कोशिश की कि नींद आ जाये पर देर तक वह करवटें बदलती रही . 
सुबह आँख खुली तो देखा काफी दिन चढ़ आया था मोबाइल बंद था कहीं किसी से कोई संपर्क नहीं था खचाखच भरी ट्रेन में भी वह खुद को किसी वीरान टापू पर अकेले सा पा रही थी . 
अकेलापन किसी का साथ न होना नहीं है अकेलापन तो किसी का साथ महसूस न होना है .ट्रेन में कई लोग अकेले सफ़र कर रहे थे पर वे अकेले कहाँ थे ?वेदिका के साथ ट्रेन के सभी यात्री थे लेकिन वह बिलकुल अकेली थी . 
शाम सात बजे वह किसी स्टेशन पर उतरी एक आदमी ने उसके पास आकर नाम पूछा और सामान टेक्सी में रख दिया . एक होस्टल में उसके रहने का इंतज़ाम था . राधिका ने सारा इंतजाम किया था .
अगले दिन सुबह वार्डन के ऑफिस में राधिका का फोन आया . ओपचारिक बातों  के बाद उसने बताया  कि उसके एडमिशन के पेपर्स वार्डन के पास हैं वह कॉलेज जाना शुरू कर दे . कोई परेशानी हो तो वार्डन आशा जी से कहे . पास ही एक लेडी डॉक्टर है चेक अप करवाती रहे घबराना मत मैं तुम्हारे साथ हूँ यहीं  फोन करती रहूंगी लेकिन ज्यादा नहीं .
राधिका ने ही बताया कि तुम्हारे गायब हो जाने से घर में कोहराम मचा हुआ है .राधिका के जाने के बाद ही वेदिका ने घर छोड़ा था इसलिए उसके पास कई बार फोन आ चुका है  हो सकता है वो लोग अपने प्रभाव से उसके फोन की निगरानी भी करें इसलिए वह पब्लिक बूथ से बात कर रही है . 
आशाजी एक अधेड़ उम्र की सहृदय महिला थीं उन्होंने वेदिका के एडमिशन से लेकर डॉक्टर से चेकअप करवाने तक हर चीज़ में मदद की .वेदिका की दुःख भरी कहानी ने उन्हें द्रवित कर दिया था .वे जब भी खाने की कोई डिश बनातीं वेदिका के लिए जरूर बचा कर रखतीं . होस्टल में अधिकतर लडकियाँ कामकाजी थीं धीरे धीरे उनके साथ वेदिका का अकेलापन घुलने लगा .जान पहचान से प्यार भरे रिश्ते पनपने लगे .ज्यों ज्यों दिन चढ़ने लगे रिश्ते परवान चढने लगे कोई बड़ी बहन के अधिकार से तो कोई छोटी बहन के से प्यार से वेदिका को हाथों हाथ रखता . 
होस्टल की नीरस जिंदगी में वेदिका और आने वाला नन्हा एक नयी हलचल सी भर रहे थे . सच ही कहा था राधिका ने इन अनजानों के बीच अपनों से कम ही अकेलापन होगा .रात के स्याह अँधेरे में ही वेदिका अकेली होती उसमे भी एक नन्ही चंचल आवाज़ उसे पुकार कहती " माँ मैं हूँ न " . 
पहले सेमेस्टर की एग्जाम हो चुकी थी वेदिका को विश्वास था कि वह बहुत अच्छे नंबरों से पास होगी . कॉलेज बंद थे वेदिका सारा दिन नन्हे से बतियाती .उसे अक्सर ख्याल आता 'घर में सब कैसे होंगे क्या अब भी मुझे ढूंढ रहे होंगे ? क्या मुझे खोजते मम्मी पापा के यहाँ गए होंगे ? वहाँ मुझे न पाकर क्या प्रतिक्रिया दी होगी ? क्या मम्मी पापा ने भी मुझे ढूँढने की कोशिश की होगी ? या वे अब तक मुझ से नाराज़ हैं ? क्या उन्हें अब भी मेरी फिक्र है ? जब इनमे से किसी सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता वह अपने मन को तसल्ली देने को खुद ही जवाब देती और खुद ही उन्हें नकारती . 
अगले सेमेस्टर की शुरुआत से ही वेदिका ने पढ़ने में कड़ी मेहनत शुरू कर दी . वह जानती थी पढ़ाई के बीच ही नन्हे का आगमन होगा .उसकी एक ही चिंता थी कि सब  नार्मल हो जाये क्योंकि पैसे धीरे धीरे ख़त्म हो रहे थे और कमाई का कोई जरिया नहीं था न ही किसी से मदद की उम्मीद . राधिका मदद कर भी देती लेकिन वह पहले ही बहुत कुछ कर चुकी थी . 
उस रात जब वेदिका को दर्द उठा पूरा होस्टल जाग गया . रात दो बजे वह नन्ही कली प्रस्फुटित हुई तो उसकी महक से वेदिका का जीवन ही नहीं पूरा होस्टल भी महक उठा . 
हॉस्पिटल से आने पर ढोल नगाड़े ,जच्चा बच्चा गीतों के साथ दोनों का स्वागत हुआ .अनुभवी महिलाओं ने उनकी देखभाल की जिम्मेदारी ले ली .कॉलेज की लड़कियों ने उसे नोट्स दे दिये थे . 
अपनों के बेगानेपन के घाव बेगानों के अपनेपन ने भर दिए थे . तीन हफ्ते आराम करने के बाद अब वह दो तीन घंटों के लिए कॉलेज जाने लगी थी .नाईट ड्यूटी वाली लडकियाँ नन्ही कली का ध्यान रखतीं . 
राधिका का फोन आया था उसने उसे बधाई दी .वेदिका उससे बहुत कुछ पूछना चाहती थी लेकिन उसने जवाब दिया तुम किसी की चिंता मत करो अपनी पढ़ाई और सेहत पर ध्यान दो .
कली की कोमल मुस्कान अब वेदिका को कुछ और सोचने का मौका नहीं देती थी . आखिरी सेमेस्टर करीब था और वेदिका के पैसे ख़त्म होने को थे .वह डायमंड सेट अभी भी उसके पास था वह विदित का दिया गिफ्ट था इसलिए उसे बेचने का मन वह नहीं बना पा रही थी .कॉलेज पढ़ाई और कली की देखभाल के बाद समय ही नहीं बचता था कि वह कोई और काम कर सके .होस्टल की फीस और मेस का बिल भरना था .
उसे परेशान देख कर आशाजी ने पूछा क्या बात है ? उन्होंने सेट देखा सुनार से उसकी जांच करवाई और कहा अगर वह चाहे तो सोने की चेन उनके पास रख कर पैसे ले ले जब वह नौकरी करने लगेगी पैसे चुका कर चेन वापस ले ले . वेदिका की आँख भर आयी एक ओर आशाजी की सहृदयता थी तो दूसरी और चेन पहनाते विदित की उंगलियों का गुदगुदा स्पर्श .बहुत सोचने के बाद उसने कान के टॉप्स रख कर पैसे ले लिए . 
पढाई पूरी होते ही वेदिका को अच्छी नौकरी मिल गयी कली भी सवा साल की हो गयी थी थोड़े समय होस्टल में और दो तीन घंटे क्रेच में उसे छोड़ने की व्यवस्था की गयी . नौकरी मिलने पर राधिका ने उसे बधाई दी .वेदिका ने सबके हाल चाल जानने चाहे तो उसने इतना ही कहा "अपने मन को कमजोर मत बनाओ अभी तो नौकरी मिली ही है पहले अपने पैर जमाओ अपनी पहचान बनाओ फिर एक दिन तुम्हे वहाँ जाना ही है . वैसे भी वहाँ कुछ नहीं बदला ." 
ये जानकार भी वेदिका का मन बार बार वापस जाने का हो रहा था . एक बार वह अपने मम्मी पापा से मिलना चाहती थी . उन्हें बताना चाहती थी कि उसने हर बाधा को पार करके अपनी मंजिल पा ली है .विदित के मम्मी पापा को दिखाना चाहती थी कि उसका और विदित का प्यार कितना सच्चा था और उस प्यार की निशानी कली कितनी मासूम है . 
रिश्तों की कशिश शायद यही होती है जिससे आप जुड़ाव महसूस करते हैं या वो जिनसे करीबी रिश्तों के बाद दूरियां बन गयी है मन चाहता है उन्हें हमारे ख़ुशी और दुःख के बारे में जरूर पता चले .चाहे सारी दुनिया आपकी ख़ुशी में शामिल हो लेकिन जब तक रिश्ते आपके साथ न हों हर ख़ुशी अधूरी और हर सान्तवना सतही  ही लगती है . 
समय ने गति पकड़ ली . वेदिका को तरक्की मिल गयी  .कली भी स्कूल जाने लगी . भावनाओं का प्रवाह मंथर हो चला था . वेदिका ने एक छोटा सा फ्लेट ले लिया कली की किलकारियों और भोली मासूम बातों से उसे सजा संवार लिया था .घर के दरवाजे पर उसके नाम की तख्ती उसकी पहचान बता रही थी बिना किसी और नाम के सहारे के .एक नामी कंपनी की सी इ ओ थी वह अपना नाम अपनी पहचान के साथ . 


एक दोपहर जब वेदिका लंच के बाद अपने केबिन में लौटी वहाँ किसी को बैठा देख कर चौंक गयी .उसके आने की आहट से जब वे पलटे  ख़ुशी और आश्चर्य से वेदिका की चीख निकल गयी . 
मम्मी पापा आप यहाँ कैसे ? कैसे हैं आप ? वेदिका मम्मी से लिपट गयी सालों के जमा गिले शिकवे पानी बन कर बह गए . 
एक पत्रिका में वेदिका का इंटरव्यू छपा था जिसे पढ़ कर उन्हें वेदिका का पता चला और वे तुरंत उससे मिलने चले आये . कली को सीने से लगाते हुए दोनों को अपने किये का पछतावा था .पापा ने कहा भी " बेटा उस कठिन समय में हमें तुम्हारा साथ देना चाहिए था ."वेदिका तो उनका साथ पा कर ही सारे दुःख भूल चुकी थी .कली के साथ वे भी इतने रम गए की पुरानी  बाते याद करने का उन्हें भी कहाँ होश था ?देर रात तक वे उसके साथ खेलते रहे . 
रात में मम्मी ने बताया वेदिका के जाने के बाद विदित के माता पिता उसे ढूँढते उनके घर पहुँचे थे .कई दिनों तक उनके घर के आस पास लोग टोह लेते रहे .कई बार फोन पर उन्हें धमकियाँ भी मिली पुलिस भी चक्कर लगाती रही .विदित के भाई ने तो यहाँ तक कहा की वेदिका के साथ उनके घर का होने वाला वारिस भी गायब है वे उन्हें छोड़ेंगे नहीं .हमें तो लगा कि उन लोगों ने तुम्हे कुछ कर दिया है तुम्हारा कोई सुराग ही नहीं लगा तुम्हे ढूँढते भी तो कैसे ? 
दो तीन दिन वहाँ रुक कर मम्मी पापा वापस जाने लगे वेदिका की तरक्की से वे संतुष्ट थे कली के प्यार से सराबोर .उन्होंने वेदिका से जल्द आने का वादा लिया .विदित के मम्मी पापा को कहीं वेदिका के बारे में न पता चल जाये इस आशंका से वे भयभीत थे . वेदिका ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा आप चिंता न करो अब मेरी अपनी पहचान है इसलिए मुझे नुकसान पहुँचाना आसन भी नहीं है फिर मैं जल्दी ही वहाँ आऊँगी .

दरवाजे की घंटी बजी नौकर ने दरवाज़ा खोला तो सामने वेदिका को देख कर हतप्रभ रह गया .विदित के मम्मी पापा ,भैया भाभी भी चौंक गए .मम्मी पापा के चेहरों पर उम्र लकीरों के रूप में कुछ ज्यादा ही फ़ैल गयी थी उन्ही लकीरों में पश्चाताप की एक लकीर उनकी आँखों में भी झिलमिला रही थी जिसे देखने के लिए ही शायद वेदिका यहाँ आयी थी . वेदिका का आँचल थामे खड़ी कली को सीने से लगा कर वे भावविभोर हो गए .विदित से नाराजी के चलते उसके प्यार और उसकी जिस निशानी को वे नज़र अंदाज़ करते रहे थे उनके जाने के बाद उन्होंने उसकी कमी को महसूस किया था .कली पर उमड़े प्यार ने उस पीड़ा और पश्चाताप को उजागर कर दिया था .वेदिका ख़ामोशी से उनके अनकहे शब्दों के भावों को समझती और महसूस करती रही . 
भैया भाभी बहुत आत्मीय तो नहीं रहे पर उनका आँखें चुराना बहुत कुछ कह गया .वेदिका की नयी पहचान के आगे अपने ओछे विचारों के साथ वे खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहे थे .एक दिन वे उसके अस्तित्व तक को नकार चुके थे आज वही अस्तित्व अपनी अलग और प्रभावशाली पहचान के साथ खड़ा है जो उनकी दी किसी पहचान का मोहताज़ नहीं था . 
कविता वर्मा 




शुक्रवार, 17 मई 2013

धुंधलका


धुंधलका 
कई दिनों की बेजारी और बेकारी के बाद अब और टालना मुश्किल था .नुक्कड़ वाले बनिए ने आगे से उधार  देने से मना कर दिया था .दोस्त कहे जा सकने वाले दोस्त तो कोई है ही नहीं और दोस्त के नाम पर जो हैं उनके पास भी इतना कहाँ रहता है कि उधार दे सकें .जो थोडा बहुत होता भी है वो उधार चुकाने या आगे के लिए बचा लेने की नीयत से छुपा लिया जाता है वैसे भी जो है उसे किसी को बताया तो नहीं जाता है . 

आज का पूरा दिन सुस्ती में और सोने में निकाल दिया उसने .शाम को भूख से कुलबुलाती आँतों ने उठने पर मजबूर कर दिया .बनिए से हील हुज्जत करते बड़ी मुश्कल से उसने खुद पर काबू पाया . किसी तरह एक ब्रेड का पैकेट लेकर पानी के साथ निगला और टोह लेने निकल पड़ा . 

कल ही मदन महाराज की चाय की दुकान पर अखबार पढ़ते हुए खबर पड़ी थी कि शहर के बीचों बीच एक कॉलोनी में ज्यादातर संख्या बुजुर्गों की है .जिनके बच्चे या तो विदेशों में या बड़े शहरों में बस गए हैं, उनकी सुरक्षा के कोई खास प्रबंध पुलिस ने नहीं किये हैं . जाने क्यों यह खबर पढ़ते वह चुप हो गया और तत्काल दूसरी खबर पढ़कर सबको सुनाने लगा . बस्ती में उसके समेत और एक दो ही लोग है जो पढ़ना लिखना जानते हैं .मदन महाराज की चाय की दुकान पर बस्ती का इकलौता अखबार आता है जिसे पढ़कर पढ़कर सुनाने वाले को कोई न कोई चाय पिला ही देता है . यहाँ तक की मदन महाराज जो अखबार खरीदते है उन्हें भी पढना नहीं आता . वो तो उनके ठिये पर भीड़ बनी रहे और उनकी चाय की रेहड़ी पर चटपटी ख़बरें चलती रही  इसलिए वे अखबार का खर्च करते हैं . एक बार उसने यूँ ही पूछा लिया था महाराज जब पढ़ते नहीं हो तो बेकार खर्च क्यों करते हो? तो कहने लगे बड़ी बड़ी कंपनियाँ भी तो विज्ञापन पर लाखों खर्च करती हैं समझ लो मैं अपनी चाय की दुकान के विज्ञापन के लिए खर्च कर रहा रहा हूँ  
बुजुर्गों की कॉलोनी की खबर छुपा जाने के कारण पर वह कल देर रात तक विचार करता रहा .वैसे विचार करने का कोई कारण उसे समझ नहीं आया लेकिन फिर भी वह बात दिमाग से निकल नहीं पा रही थी . क्यों छुपा गया वह उस बात को ? क्या उसे उन पर दया आ गयी थी ? दया किस बात की दया कितना अजनबी सा लग रहा है न ये शब्द आज अचानक जाने कैसे याद आ गया .क्या उसे किसी पर दया आ सकती है ? इस सवाल ने चौका दिया था उसे .याद नहीं आता उसने कब किस पर आखिरी बार दया की थी .वैसे वह कोई दुष्ट भी नहीं था किसी को तंग करना उसका स्वभाव नहीं था  दया नहीं तो फिर क्या है वह ? कुछ देर सोचने के बाद झटके से उठ बैठा वह . क्या क्या सोचने लगा है आजकल। वह जो है बस है न दयालु न क्रूर .क्रूर कैसे कैसे भारी भारी शब्द याद आ रहे है उसे आज या बचपन में पढ़े वे शब्द आज तक भूला नहीं है वह . लेकिन इस खबर को छुपा लेने का कुछ तो कारण था शायद दया या स्वार्थ या शायद कोई याद . बूढ़े लोग…उसके माता पिता भी तो अब बूढ़े हो गए होंगे .तो क्या उनसे लगाव का कोई रेशा अभी भी बाकी है उसके मन में ??क्यों वह उनके लिए परेशान है वैसे भी वे लोग तो कहीं और रहते हैं .वह क्यों किसी को ऐसी सहज सुलभ जगह के बारे में बताना नहीं चाहता था क्या सिर्फ धंधे में गोपनीयता के कारण ?

चलते चलते वह काफी दूर निकल आया था .वह सड़क के किनारे एक पेड़   के सहारे टिक कर खड़ा हो गया . उसने हिसाब लगाया कितनी दूर और जाना है .बूढों की वह कॉलोनी अभी डेढ़ दो किलोमीटर दूर थी यानी पंद्रह बीस मिनिट का रास्ता . उसे सड़क के दूसरी और एक प्याऊ दिखी वहाँ पानी पी कर वह फिर चल पड़ा .उसने कमर में खुंसे सामान को फिर एक बार टटोला वह अँधेरा होने से पहले वहाँ पहुँच जाना चाहता था ताकि काम करने की जगह को देखभाल कर चुन सके . हालांकि एक ही दिन में ये काम करना संभव नहीं था लेकिन अगर आज कुछ नहीं किया तो कल से सिर्फ पानी से पेट भरना पड़ेगा ये सोच कर उसके कदमों में तेज़ी आ गयी . 
कॉलोनी खोजने में कोई खास परेशानी नहीं हुई .कॉलोनी के पार्क में ज्यादातर बूढ़े बूढी ही नज़र आये हाँ चार छह जवान औरते भी थीं और आठ दस बच्चे . कुछ देर तक पार्क के गेट पर खड़े देखता रहा ज्यादातर लोग साधारण कपड़े ही पहने थे .उसे थोड़ी निराशा हुई लगा बेकार ही टटपुंजियों की बस्ती में आ गया .फिर उसे गंगू की बात याद आयी ये बूढ़े खब्ती होते हैं चाहे जितना भी हो इनके पास दिखाते ऐसे हैं जैसे कड़के हों .  दो पांच रुपये के लिए भी इतनी हुज्जत करते हैं पूछो मत . उसके मन को एक आस बंधी जब यहाँ तक आ गया हूँ तो एक चक्कर लगा ही लिया जाये . 
कॉलोनी की सारी हलचल शाम के इस समय में पार्क में समा गयी थीं सड़कें सूनी थी .बड़े बड़े बंगले जैसे अपने मालिकों का अकेलापन और उदासी ओढ़े खड़े थे . उसने दो चक्कर लगाने के बाद दो बंगलों को कुछ ज्यादा ही तनहा और उदास पाया .ये उसका अनुमान था अनुभव था या उसकी खुद की मनस्थिति जो उन बगलों को ढँक गयी थी समझ नहीं सका वह . लेकिन फिर भी उन के बारे में तलाशने का मन बना लिया था उसने . 
सड़क से गुजरते एक बच्चे को रोक कर उसने एक मकान की और इशारा किया और पूछा " जैन साब इसी मकान में रहते हैं न? " उनके बेटे अमेरिका गए थे वापस आ गए क्या? 
उस लडके ने विस्मय से उसकी ओर देखा और कहा यहाँ कोई जैन साब नहीं रहते यहाँ तो तिवारी अंकल रहते है और उनका कोई बेटा नहीं एक बेटी है जो बंगलोर में रहते है यहाँ तो बस अंकल आंटी रहते हैं . 


ओह्ह लगता है मैं घर भूल गया .दो कदम चल कर वह फिर ठिठक गया और मुड कर बोल वो सामने वाला बंगला तो नहीं है उनका ? 
वो नीला बंगला वो तो वर्मा अंकल का है वहां अंकल आंटी और रोहित भैया रहते हैं .लेकिन रोहित भैया चल नहीं सकते एक एक्सीडेंट में उनके पैर ख़राब हो गए . 
ओह्ह थेंक यू दोस्त लगता है मैं दूसरी ही सड़क पर आ गया हूँ . चलो ढूँढता हूँ शायद जैन साब का घर मिल जाये . 
हाँ पीछे वाली सड़क पर देख लो यहाँ तो कोई जैन साब नहीं हैं कह कर वह लड़का चला गया . 
काम का पहला चरण तो पूरा हुआ उसने दो घर तो तलाश ही लिए . धुंधलका छाने लगा था सड़क पर पार्क से घर लौटने वालों की चहल पहल शुरू हो गयी थी . वह भी धीरे धीरे चलते हुए सड़क के कोने तक पहुँच गया और वहाँ से दोनों मकानों पर नज़र रखने लगा . पहले वाले बंगले में छड़ी टेकते एक बुजुर्ग दंपत्ति को जाते देखा वो बहुत धीरे धीरे और लंगडाते हुए चल रहे थे . जहाँ वह खड़ा था वहाँ से नीला वाला मकान पास था .उसके सिर्फ एक कमरे में रोशनी थी .पोर्च में मरियल सी रोशनी मकान की वीरानी को और भयावह बना रही थी . उसके दोनों अनुमान सही थे अब उसे निश्चय करना था पहले किसे चुना जाये ? उसका दिमाग कह रहा था पहला वाला बंगला पर दिल जाने क्यों बार बार नीले बंगले को चुनने को कह रहा था .उसे पता भी नहीं था की आखिर उस बंगले के बारे में मिली जानकारी कितनी सही थी? उस बंगले में उसने किसी को आते जाते भी नहीं देखा जबकि पहले वाले बंगले में रहने वाले बुजुर्ग बिना छड़ी के सहारे के चल भी नहीं सकते इसलिए वह ज्यादा सुरक्षित था . आज हर हाल में उसे काम करना ही था नहीं तो कल क्या होगा ? उसने गहरी सांस भरी . 
हूँ देखा जाएगा वह वहाँ से मेन रोड पर आ गया . वापस जाने का कोई फायदा नहीं था इतनी दूर पैदल जाना फिर वापस आना वह सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ गया और आती जाती गाड़ियों को देखने लगा . 

बारह साल हो गए उसे इस धंधे में ऐसा भी नहीं है की उसे इस काम में मज़ा आता हो बल्कि हर बार काम होने के बाद बल्कि अच्छा हाथ बनाने के बावजूद भी वह एक उदासी से घिर जाता है .पता नहीं उसे ये काम अच्छा लगता है या बुरा ,काम करने की ख़ुशी होती है या दुःख बस वह किये जा रहा है क्योंकि उसे लगने लगा है इसके आलावा वह और कुछ कर ही नहीं सकता है . 

बारह साल पहले जब वह घर से भागा था तब पेट भरने के लिए पहली बार उसने एक दुकान से ब्रेड का पैकेट चुराया था . उसके पीछे भागते दुकानदार के नौकर से बचने के लिए वह एक खोली में घुस गया था जहाँ उसे मल्लू उस्ताद मिला .भूख प्यास और डर से उसकी जबान जैसे तालू से चिपक गयी थी . मल्लू उस्ताद ने उसे पानी पिलाया और पड़ोस के लडके को बोल कर दो चाय मँगवाई .चाय के साथ ब्रेड खाकर उसकी जान में जान आयी तब उसने उसके परिवार के बारे में पूछा . उसने सिर्फ इतना ही बताया कि वह घर से भाग कर आया है और अब कभी वापस नहीं जाएगा . 
अब कहाँ जायेगा कैसे रहेगा क्या खायेगा कुछ पता नहीं . 

मल्लू उस्ताद ने उसे उनके साथ घर में रहने को कहा . उसने एक बार खोली को देखा आठ बाय दस की टीन की खोली एक मैला सा बिछौना दो चार काले पिचके बर्तन एक स्टोव और खूँटी पर टंगे दो चार कपडे . उसके दिल और दिमाग में द्वन्द शुरू हो गया .दिल कहता इतनी गन्दी जगह पर कैसे रहोगे और दिमाग कहता जो मिल रहा है उसे मत छोड़ उस्ताद अच्छा आदमी है इसका साथ मत छोड़ना .कहाँ जायेगा इतनी बड़ी दुनिया में अकेलापन उस पर हावी होने लगा ऐसे में मल्लू  उस्ताद का साथ उसके लिए बहुत बड़ा भावनात्मक सहारा था .उस दिन तो जीत दिमाग की ही हुई लेकिन ये जंग यहीं थमी नहीं ये तो शुरुआत थी . मल्लू उस्ताद ने ही उसे चोरी करना सिखाया छोटी मोटी पाकेट मारी से शुरू हुआ सफ़र घरों में सेंध लगाने तक पहुँच गया . मल्लू उस्ताद फक्कड़ आदमी था जब तक उसके पास खाने को रहता वह दूसरी जगह हाथ साफ़ नहीं करता था . उसे तो हर बार काम के बाद एक उदासी घेर लेती थी जिससे उबरने में ही उसे कई दिन लग जाते इस तरह बीच के दिनों में वह अपने आप से जूझता रहता .सही गलत के हिसाब से खुद को तौलता रहता . कई बार खुद को धिक्कारता कई बार वहाँ से भाग जाना चाहता लेकिन कच्ची उम्र में इतनी बड़ी दुनिया में अकेले रहने के ख्याल से ही उसे झुरझुरी आ जाती इसलिए वह मल्लू उस्ताद के साथ रहते उसका साथ दिए जा रहा था। 

दो साल पहले उस्ताद की मौत के बाद उसने गंभीरता से कोई और काम करने के बारे में सोचा था लेकिन बिना पढ़ाई बिना हुनर के करेगा क्या समझ ही नहीं पाया . मल्लू उस्ताद जब तक थे उसे प्यार से समझाते रहते थे काम को काम की तरह करने की ताकीद देते थे . दूसरे कामों में होने वाली हेरा फेरी, ऊँच नीच की जानकारी देकर उसके काम की ईमानदारी पर उसका विश्वास कायम रखने की भरसक कोशिश करते। वह उनका मन रखने के लिए ही सही अपने विचारों को सुविधा सडक पर मोड़ देने की कोशिश करता .दो साल पहले उनकी मौत के बाद उसके दिल और दिमाग का द्वन्द उस पर हावी होने लगा .ऐसा नहीं है उसने दूसरे कामों के बारे में तलाश नहीं किया हो माली, चौकीदार, चाय की रेहड़ी, सब्जी का ठेला लेकिन कहीं पूँजी की तो कहीं विश्वशनीयता की कमी आड़े आ जाती .वह अब तक कभी पकडाया नहीं था इसलिए कोई बड़ा काम करने में डरता था . उसका दोस्त गंगू इस बात का बड़ा मजाक बनाता था ,कहता था ये सब तेरी पढ़ाई लिखाई का ही नतीजा है . हाँ पढ़ ही तो रहा था वह जब घर से भागा था .उस साल वह आठवीं की परीक्षा देता .इसी पढ़ाई ने उसके विवेक को अब तक जीवंत रखा था वह हर काम में सही गलत के बारे में जरूर सोचता था .
सड़क पर सन्नाटा छाने लगा दूर कहीं चौकीदार की सीटी की आवाज़ आने लगी थी .वह उठ खड़ा हुआ .कॉलोनी में सड़कें सुनसान पड़ी थीं कुछ घरों की लाइटें बंद हो चुकी थीं इक्का दुक्का घरों में रौशनी थी लेकिन कोई हलचल नहीं थी . उसका द्वन्द फिर शुरू हो गया पहले वाले बंगले की लाइटें बंद हो चुकी थीं .नीले बंगले में आगे कमरे की लाईट बंद थी पीछे एक खिड़की से रोशनी आ रही थी .पहला या दूसरा करते करते भी वह नीले बंगले की दीवार फांद कर अन्दर चला गया उसने चारों तरफ से घूम कर अन्दर जाने का रास्ता तलाशा . पीछे खिड़की से हाथ डाल  कर दरवाजे की सिटकनी खोली जा सकती है वह निश्चिन्त होकर वहीँ दीवार के सहारे बैठ गया . 
वह सोचने लगा अगर घर से नहीं भाग होता तो ऐसे ही किसी बंगले में वह रह रहा होता ,उसके असली माँ बाप का तो उसे पता ही नहीं था वह शायद किसी अनाथालय में था जब उसके माँ बाबूजी ने उसे गोद लिया था कुछ ही दिनों में वे आपस में घुलमिल गए थे .बाबूजी की पीठ को घोडा बना कर जब वह खिलखिलाता माँ उसे बाहों में भर कर चूम लेती . जब बेट बॉल से खेलता और जल्दी आउट हो जाता माँ उसी का पक्ष लेतीं . पार्क में सैर करना ,खिलौने,कपडे ,खाने में उसी की पसंद चलती .
उस दिन माँ बाबूजी बहुत खुश थे उसे मंदिर ले गए पड़े का प्रसाद चढ़ाया उसे बताया कि उसका छोटा भाई या बहिन आने वाला है .उसने तो तपाक से कह दिया उसे तो भाई चाहिए वह उसके  क्रिकेट खेलेगा . 
भाई के आने के बाद माँ का सारा ध्यान उसी में लगा रहता .बाबूजी भी उसे ही खिलाते रहते उसका पार्क जाना .घूमना फिरना कम होते होते माँ बाबूजी के व्यवहार में बड़ा बदलाव ले आया .अब उससे घर के कई काम करवाए जाते ना करने पर डांटा मारा जाता .वह मना करता चीखता चिल्लाता लेकिन कुछ समझ नहीं पाता .उसे तो याद ही नहीं था कि वह गोद लिया हुआ है वह तो अपने माँ बाबूजी को ही अपना सब कुछ समझता था .उस दिन कोई काम न करने पर माँ ने उसे बहुत मारा और बहुत भला बुरा कहा .शरीर पर पड़ी मार से ज्यादा मन पर पड़ी शब्दों की मार ने उसे आहत किया .उससे बने घाव में अब भी जब तब टीस उठती रहती है . उसने घर छोड़ दिया और आज किसी बंगले के आहते में बैठ कर लाइटें बंद होने का इंतज़ार कर रहा है . 
ऐसा नहीं है उसका मन वापस लौटने का ना हुआ हो .मल्लू उस्ताद के रहते भी जब भी उसका मन सही गलत की उलझन में फंसा रहता था तब उसने कई बार वापस लौटने का सोचा था .एक बार दूर से माँ बाबूजी को देखने गया भी था वे उसके छोटे भाई के साथ खुश थे . उसके चले जाने के दुःख की परछाई भी उनके चेहरों पर नहीं दिखी . उस रात उस्ताद के गले लग कर वह खूब रोया था उस रात पहली बार उसे उनके गंधाते शरीर खोली के गंदे बिस्तर से कोई शिकायत नहीं हुई . वो उससे कारण पूछते रहे और वह सिर्फ रोता रहा . उस दिन वह सच में अनाथ हुआ था .
आसपास के घरों की लाइटें एक एक करके बंद होती जा रही थीं .खिड़की से आती रौशनी बंद होने के बाद उसने थोड़ी देर इंतज़ार किया फिर खिड़की से हाथ डाल कर दरवाजे की सिटकनी खोली और दबे पाँव घर में प्रवेश किया .रसोई के आगे एक नाईट बल्ब जल रहा था जिसकी रोशनी में तीन दरवाजे दिख रहे थे दो बंद थे और एक खुला जिसमे एक सोफे रखा दिख रहा था . तिजोरी किस कमरे में होनी चाहिए दायें या बाएं टोह लेने के लिए उसने दायें दरवाजे में कान लगाये कोई आवाज़ नहीं थी उसने दरवाजा को धीरे से धकाया . अन्दर एक लड़का सो रहा था उसने एक नज़र कमरे का जायजा लिया सिवाय किताबों के वहाँ कुछ नज़र नहीं आया . बाएं दरवाजे को धका कर खोलने ही वाला था कि एक औरत के बोलने की आवाज़ से ठिठक गया . 
ये सब मेरे कर्मों की सजा है जो मेरे बेटे को भुगतनी पड़ रही है .भगवान् मुझे कभी माफ़ नहीं करेंगे मैंने एक मासूम बच्चे पर जुल्म ढहाये हैं ये उसी की सजा है . पता नहीं मेरा संजू कहाँ किस हाल में होगा आज पूरे बारह साल हो गए है उसे घर से भागे हुए .आज यहाँ होता तो पच्चीस साल का जवान बेटा हमारे साथ होता .मेरी ममता एक बेटे के प्यार में इतनी अंधी हो गयी कि दूसरे के लिए बोथरा गयी .मैने बहुत बुरा सलूक किया उसके साथ .उसे गोद लिया था ये बात तो भूल ही गयी थी मैं ना जाने कैसे अपने पराये का ये भेद मेरे दिल में आ गया .ये नहीं सोचा उस पर उमड़ी ममता से ही तो मेरी बंजर कोख फली फूली थी .मैं क्या करूँ कैसे ढूंढूं संजू को ? जाने कहाँ भटक रहा होगा मेरा बच्चा एक बार मिल जाए तो मैं पैर पकड़ कर उससे माफ़ी मांग लूंगी .एक बार उसे सीने से लगाने को मेरी आत्मा तड़प रही है . 

बस करो सुजाता क्यों उसी बात को लेकर रोज़ दुखी होती हो .न ही संजू ने ना भगवान् ने हमें माफ़ किया है .भगवान् भी जानता है संजू को गोद लेकर हमने उसे बहुत प्यार दिया था . न जाने कैसे रोहित के आने के बाद अपने पराये का भेद हमारे दिलों में आ गया . ये जानते हुए भी कि उसी की वजह से हमारी बगिया फूली फली है हमने उसके साथ बुरा सुलूक किया .इसकी सजा हम भुगत रहे हैं .रोहित का एक्सीडेंट होना उसके पैर बेजान होना हमारी सजा ही तो है . उससे बड़ी सजा है अपना मकान छोड़ कर इस अनजानी जगह मकान लेने पर भी उन यादों का पीछा न छोड़ना . 

अच्छा सुनो अगर संजू वापस आ गया तो क्या उसे अपना लोगे ? पता नहीं वह इतने साल कहाँ कैसे किसके साथ रहा होगा उसके बावजूद भी ? औरत ने कहा . 
क्यों नहीं अगर रोहित कहीं चला जाता फिर लौट कर आता तो उसे नहीं अपनाते क्या ? तो संजू को क्यों नहीं अपनाएंगे ? इसीलिए तो पुराने घर में अपना पता छोड़ कर आये हैं बस एक बार वह वापस आ जाये .आदमी ने गहरी सांस ली .चलो अब सो जाओ कब तक उसकी वापसी के सपने देखोगी .
संजू संजू कितने सालों बाद उसने ये नाम सुना है .उसकी आँखों से आंसू बहने लगे . दर्द और नफरत की तीव्र लहर ने उसके दिमाग को झनझना  दिया . वह दरवाजे से हट कर अगले कमरे में आ गया और सोफे पर निढाल सा बैठ कर दोनों हाथों से सर थाम लिया . 
ये कहाँ आ गया वह ? उन्ही लोगों के मकान में जिन्होंने उसकी जिंदगी को खंडहर बना दिया .वह सालों से अपनी जिंदगी को तिनके तिनके उड़ते देख रहा है .चाह कर भी उन्हें जोड़ कर कोई नक्शा तक नहीं बना पा रहा है और उसकी जिंदगी को बवंडर के हवाले करने वाले यूं आराम से सो रहे है . वह रोहित जिसकी वजह से उसकी जिंदगी बदल गयी वह सालों से ठीक से सो नहीं पाया वह रोहित चैन से सो रहा है . उसके मन में आया वह जाकर उसका गला घोंट दे ख़त्म कर दे उसकी जिंदगी बदलने वाले को और बर्बाद कर दे उन लोगों की भी जिंदगी जिनकी वजह से उसका जीवन अँधेरी रात बन कर रह गया  है . 
वह उठ कर उस कमरे में गया जहाँ रोहित सोया था .खिड़की से छन कर आती चांदनी में उसने रोहित को देखा मुलायम रोशनी में मासूमियत भरे उसके चेहरे ने उसके बढ़ते हाथों को रोक दिया . पलंग के बगल में पहिये वाली कुर्सी पड़ी थी .उसे उस लडके की बात याद आयी उनके लडके के पैर खराब हैं वह चल नहीं पाता  एक राहत सी महसूस की उसने ,तो उसकी जिंदगी को अपाहिज बनाने वाला खुद ही चलने से लाचार हो गया है . 
मैं इसे क्यों मार रहा हूँ ? इसकी क्या गलती है ? वो तो बच्चा था उसने तो माँ बाबूजी से नहीं कहा था मुझसे बुरा व्यवहार करने को .लेकिन माँ बाबूजी के बुरे व्यवहार की सजा तो ये भी भुगत रहा है . उसे उन अच्छे दिनों में माँ की सुनाई कहानियां याद आ गयीं बुरा करने वालों का हमेशा बुरा होता है . उसे माँ का रोना उन के स्वर की कातरता याद आ गयी तो उन्हें अपने बुरे व्यवहार की सजा मिल गयी . मुझे खूब रुलाया उन्होंने अब उन्हें रोना है जिंदगी भर . अचानक उसके मन में उनके लिए दया उमड़ पड़ी .उसे अपनी सोच पर शर्म आयी .
यह क्या सोच रहा है वह ,वे उसके माता पिता हैं . 
मन के अच्छे बुरे दो पहलू होते हैं और मन में विचार दोनों ही पहलुओं से उपजते हैं .इसलिए मन में अच्छे और बुरे विचारों का प्रवाह हमेशा चलता रहता है .कभी अच्छे विचार बुरे पर हावी हो जाते है कभी बुरे विचार अच्छे पर . ये तो अच्छा है विवेक अँधेरे और उजाले में एक सामान ही काम करता है .उसने अपने विचारों अंकुश लगाया . 
सामने दीवार पर बड़ी सी फॅमिली फोटो थी जिसमे वह माँ बाबूजी के बीच में बैठा था और रोहित माँ की गोद में था .उस समय वह माँ की आँखों का तारा था .धुंधली आँखों से देखते वह बचपन के सुनहरे दिनों की यादों में खो गया .लगा जैसे जीवन में फिर उजली सी धूप बिखर गयी है .बाहर भौकते कुत्तों की आवाज़ ने उसे फिर कमरे के अँधेरे यथार्थ में वापस लौटा दिया . 
क्या करे वह ? उसे माँ का रोना ,उसे याद करना ,उनका पश्चाताप करना याद आया . क्या करे वह वापस लौट जाए ? किस मुंह से वापस लौटे ? क्या कहेगा वापस आकर कहाँ  रहा इतने साल ?क्या करता रहा ? 
चोरी ?? ये जान कर भी क्या माँ बाबूजी उसे फिर अपनाएंगे ? उस पर विश्वास कर पायेंगे ? क्या उसकी किसी भी गतिविधि को बिना शक देख सकेंगे ? उनकी आँखों में अपने लिए अविश्वास को वह सहन कर सकेगा ? वह तो उनकी डांट मार से भी ज्यादा असहयनीय होगा . 
माँ बाबूजी उसका इंतज़ार कर रहे हैं .उससे मिलने के लिए तड़प रहे हैं . हो सकता है जैसा वो सोच रहा है ऐसा कुछ न हो .उसे फिर एक सामान्य सी जिंदगी जीने को मिले वह पढ़ सके अपना ये गन्दा सा धंधा छोड़ कर कोई अच्छा काम कर सके .क्या ये सच में संभव है ? वह सर थाम कर बैठ गया हाँ न के पलड़े ऊपर नीचे होते रहे कशमकश ने उसे बुरी तरह उलझा दिया .वह कुछ भी निश्चित नहीं कर पा रहा था . 
जाने कितनी देर वह अँधेरे में बैठा रहा . उसके दिमाग ने हाँ न के हर बिंदु को हर कोण से सोच लिया था लेकिन अब भी वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सका था . 
उसे लगा उसका गला सूख रहा है वह उठ कर किचन की तरफ गया .कमरे में अब कोई आवाज़ नहीं थी माँ बाबूजी सो चुके थे वह अचानक जैसे सजग हुआ ये किस सोच में पड़ गया वह ? वह तो वैसे भी उनका अपना बेटा नही है .अनाथालय से गोद लिया घर से भगा एक चोर है वह .कैसे उसने सोच लिया उसे फिर से अपना लिया जायेगा .इतनी सारी कड़वी सच्चाईयां जानने के बाद कोई कैसे उसे अपना पायेगा ? 
फ्रिज से पानी की बोतल निकालते उसे कटोरदान में कुछ रखा दिखा .श्रीखंड था माँ के हाथों का श्रीखंड .उसे जोरों से भूख लग आयी .फ्रिज में थोड़ी सब्जी भी थी .उसने अलमारी टटोली वही पुराना गोल रोटी का डिब्बा उसमे दो रोटियां रखी थीं फ्रिज का दरवाज़ा अध खुला रख कर उसने खाना खाया .बरसों बाद माँ के हाथ का बना खाना . उसे वो दिन याद आ गए जब वह बाबूजी की गोद में बैठ कर उनके साथ खाना खाता था . 
क्या करे वह वापस लौट आये या जहाँ है जैसा है वैसा ही रहे ? वह वापस जाकर सोफे पर बैठ गया .वह भूल चुका था वह यहाँ क्यों आया था ? सोचते सोचते उसकी आँख लग गयी वह वहीँ लुढ़क गया। 
सुबह सुबह उसकी आँख खुली शायद बाहर से कोई गाड़ी गुजरी थी . वह चौंक कर उठ बैठा ये क्या कर रहा हूँ मैं ? अगर यहाँ अभी पकड़ा गया तो फिर कभी वापस नहीं लौट पाऊँगा .  वह उठ कर किचन के दरवाजे से बाहर निकल गया और खिड़की से हाथ डाल कर सिटकनी लगा दी . दीवार फांदने से पहले उसने चारों तरफ  देखा घर की ओर देखते उसकी आँखों से आंसू आ गए . 
पौ फटने को थी उसे वहाँ से जल्दी निकलना होगा .कदम दर कदम उसका मन भारी होने लगा उसने कई बार पलट कर देखा अपनी घिसी कमीज़ की आस्तीन से आँखें पोंछीं और सड़क के मोड़ से मुड़ गया . 
कविता वर्मा 




सोमवार, 6 मई 2013

वो रात

मैं पसीने पसीने हो गया हवा चलना अचानक बंद हो गयी  थी चांदनी में ठंडक तो थी लेकिन अब लगा हवा ही इस ठंडक को पोस रही थी . मेरी नींद खुल गयी और मैं उठ  बैठा .गर्मियों के दिन थे घर के अन्दर पंखे की गर्म हवा सोने नहीं देती इसलिए बाहर छत पर पलंग लगा लिए जाते थे .वह चांदनी रात थी गपशप करते करते कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला . मेरे बगल के पलंग पर पिताजी सोये थे कुछ दूर माँ और छोटे भाई का भी पलंग था . सब गहरी नींद में थे . किसी को गर्मी नहीं लग रही ये विचार मन में आया तो मैं चौंक गया सब आराम से सो रहे है फिर सिर्फ मुझे ही गर्मी क्यों लग रही थी . 
मैं पलंग से उठ गया पास ही राखी सुराही से पानी पिया और टहलते हुए छत की मुंडेर तक आ गया .चाँद एकदम सर के ऊपर था सड़क बिलकुल सूनी हो गयी थी . सड़क ,दुकाने बगल की बिल्डिंगें सभी दूधिया चाँदनी में नहाये हुए थे . सड़क किनारे खड़ा पेड़ भी शीतल चांदनी में ऊँघ रहा था .पेड़ के नीचे घनी छाँव थी . 
हमारी बिल्डिंग से कुछ आगे सड़क ने छोड़ा सा मोड़ ले लिया था इसलिए उसके किनारे की बिल्डिंग सीधे और साफ़ साफ़ दिखाई देती थी .अचानक मेरी नज़र उस बिल्डिंग की छत पर गयी .चाँदनी रात में छत और उस पर सीढ़ियों के लिए बना कमरा स्पष्ट दिखाई दे रहा था . पूरा कमरा सफ़ेद चाँदनी में नहाया हुआ था .
तभी अचानक कमरे की दीवार पर दो परछाइयाँ उभरी और बात चीत करने के हाव भाव दिखने लगे .मतलब हाथों का संचालन होने लगा . मेरी नींद अचानक पूरी तरह खुल गयी और उस चम्पई अँधेरे में आँखे फाड़ फाड़ कर उन परछाइयों को देखने लगा लेकिन वे सिर्फ परछाइयाँ थीं वहाँ कोई नहीं था क्योंकि चाँद तो एकदम सर पर था इसलिए अगर वह कोई होता तो वह और उसकी परछाइयाँ दोनों ही दिखाई देती .लेकिन ये तो आमने सामने खड़े दो लोग थे जिनमे एक मर्द और एक ओरत थी वे एक दूसरे से बात कर रहे थे . मैंने आँखें मसल कर अपनी बची खुची नींद को पूरी तरह उड़ाया और फिर ध्यान से देखा लेकिन वहाँ कोई नहीं था . मैंने छत के सामने पीछे के कोनों में जाकर ध्यान से देखा करीब पौने घंटे तक मैं उन परछाइयों को देखता रहा लेकिन कुछ समझ नहीं आया .सब लोग गहरी नींद में थे किसी को उठा कर उन लोगों को दिखाना मुझे ठीक नहीं लगा क्योंकि मुझे खुद ही समझ नहीं आ रहा था की जो मैं देख रहा हूँ वह सच में वही है जो देख रहा हूँ .आखिर कब तक जागता मेरी आँखें झपकने लगे और मैं सो गया 

सुबह जागा  तो रात की घटना मेरे जेहन में एकदम ताज़ा थी वो दोनों परछाइयाँ अभी भी दिमाग में घूम रही थीं और मैं उनकी सच्चाई का पता लगाना चाहता था  इत्तफाक से उस बिल्डिंग में मेरा  एक दोस्त रहता था .शाम को मैं उसके घर गया और उससे कहा चल आज छत पर चलते हैं वहीं बैठ कर बातें करेंगे .
वह बोला अरे छत पर क्यों? यहीं बैठते हैं न .और वैसे भी छत पर तो जा ही नहीं सकते बहुत सालों पहले यहाँ रहने वाले एक लडके और लड़की ने छत से कूद कर जान दे दी थी वे एक दूसरे से प्यार करते थे .तब से छत पर जाने वाले दरवाजे पर मोटा सा ताला  डला  है और चाबी किसके पास है कोई नहीं जानता . 
कविता वर्मा 

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

पुकार

 पुकार 
फोन की घंटी बज़ रही थी स्क्रीन पर उसका नाम चमक रहा था जिसे देख कर मेरा गुस्सा फिर जाग उठा . मैं हाथ में फोन लिए थोड़ी देर यूं ही घूरता रहा न फोन उठाया न ही बंद किया .अपनी पूरी ताकत से आवाज़ दे कर घंटी बंद हो गयी . मैंने फोन बिस्तर पर पटका ही था कि घंटी फिर बज़ उठी .उस का फोन था . नहीं करना है मुझे बात अब चाहे कितनी ही बार फोन करे मैं फोन नहीं उठाने वाला .मैंने फोन सायलेंट मोड़ पर कर दिया लेकिन उसकी स्क्रीन सामने ही रखी .मन में कहीं था देखूं तो कितनी बार फोन करती है .फोन लगातार बजता रहा चार पांच आठ दस बार . अब मेरा गुस्सा कम होने लगा था उसका कारण शायद ये सुकून था की मेरे फोन न उठाने से वह परेशान हो रही होगी या शायद उसकी आँखों में आंसूं होंगे . 
हूँ आते है तो आने दो आँसू पहले तो खुद ही ...खुद ही क्या??? मैं सोचते सोचते ठिठक गया .क्या किया है उसने ? सिर्फ एक मजाक ही तो किया है न? वैसे भी बात बात पर मजाक करना उसकी आदत है . उसकी यही आदत तो मुझे उसके करीब लाई थी .. 
मुझे हमारी पहली मुलाकात याद आ गयी .हम दोस्तों के साथ एक रेस्तरां में मिले थे .वह अपनी सहेलियों के साथ थी और मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ जो उसकी सहेलियों को जानते थे . 
हैलो हाय के साथ ही उसने मेरी पहनी टी शर्ट और मेरी आँखों की तारीफ की थी तो मैं संकोच से भर गया .पहली मुलाक़ात और इतना बेबाक व्यवहार . मैं धीरे से सिर्फ थेंक्यू  कह पाया था ,बाद में मेरे दोस्तों ने मुझे मेरे दब्बूपन के लिए मुझे खूब लताड़ा था .तू उसकी तारीफ नहीं कर सकता था ? लेकिन सच कहूँ मैं तो उस वक्त सीधे उसकी ओर  देख भी नहीं पाया था . 
हम लोग यूं तो साथ में करीब डेढ़ घंटे तक रहे होंगे इस दौरान वह सबसे बात करती रही . किसी की भी बात पकड़ कर उसकी खिंचाई कर देना और खुल कर हँसना उसका स्वभाव था . उसके खुले घुंघराले बालों को वह उँगलियों में फंसा कर धीरे से पीछे करती . मैं तो उसके नरम रेशमी बालों के घुँघर में ही उलझ कर रह गया . कितनी देर उन्हें एकटक देखता रहा पता ही नहीं चला . उसने मेरे चेहरे के सामने चुटकी बजाई तब मेरी तन्द्रा टूटी और वह जोर से हंस पड़ी . मैं झेंप कर भी उसके साथ हंस ही तो पाया था . 
उस मुलाकात के बाद मैंने अपने एक दोस्त से उसका नंबर माँगा था और एक झिझक के साथ उससे फोन पर बातें होने लगीं .उसकी आवाज़ बहुत मीठी थी मैं घंटों फोन पर उससे बातें कर सकता था .वह घंटों बोलती और हंसती रहती मैं उसकी बात सुनता रहता और अपने आप में ही मुस्कुराता रहता .कई बार वह कहती भी थी कि ये बात मुझे आपके साथ रहते हुए करना है जब आप इस बात का जवाब भी नहीं दे पायेंगे और बस धीरे से मुस्कुरा देंगे .मुझे आपकी वह धीमी सी मुस्कान देखना है . 
कभी खुद से ही पूछती मैं आपसे इतना मजाक करती हूँ आपको गुस्सा नहीं आता ? 
मेरा मन होता उससे कहूँ मुझे गुस्सा नहीं आता मुझे तुम पर प्यार आता है . मेरा मन करता है तुम्हारे नरम रेशमी घुंघराले बालों में उंगलियाँ फंसा कर तुम्हे अपने करीब ले आऊं बहुत करीब की तुम्हारी नर्म साँसों को अपने चेहरे पर महसूस करूँ ,तुम्हारे होंठों को अपने पास थिरकते देखूं .लेकिन मैं कहता मुझे तुमसे बात करना बहुत अच्छा लगता है .मैं तो सारी सारी रात तुमसे बात कर सकता हूँ . तुम्हारी आवाज़ बहुत प्यारी है तुम बहुत प्यारी बाते करती हो . 

आज मैं वही प्यारी आवाज़ सुनना नहीं चाहता .वह फोन पर फोन किये जा रही है और मैं फोन नहीं उठा रहा हूँ . आज जरूर उसकी आँखों में  आंसूं होंगे . 
हूँ हैं तो रहने दो हर बात की एक हद होती है मजाक की भी . मैं कुछ कहता नहीं इसका मतलब ये तो नहीं की कैसा भी मजाक कर ले जबकि वह जानती है कि ऐसे मजाक मुझे पसंद नहीं है फिर भी . जब भी हमारी अच्छी भली बातें हो रही होती हैं वही विषय घसीट कर बीच में ला पटकती है और मेरा दिमाग खराब हो जाता है . 
इसी बात पर पहले भी हमारी अनबन हो चुकी थी तब भी मैंने उससे बात करना बंद कर दिया था . वैसे ऐसा भी नहीं था कि मैं बहुत गुस्सा था लेकिन बहुत गुस्सा हूँ ऐसा उसे दिखाना जरूर चाहता था . तब भी उसी ने लगातार फोन किये थे एक दिन में पच्चीस पचास फोन लेकिन मैंने फोन नहीं उठाया तो नहीं उठाया . उसने मेसेज भी किये लेकिन मैंने जवाब ही नहीं दिया . वैसे ऐसा करते बहुत ख़ुशी हुई हो मुझे ऐसा भी नहीं था  लेकिन बस मैं जताना चाहता था कि नाराज़ हूँ . मैं हूँ ही ऐसा बस एक बार जो सोच लूँ करके रहता हूँ जो ठान लूं वह पत्थर की लकीर हो जाता है .फिर चाहे कोई लाख सर पटके मैं आसानी से अपनी सोच या राय नहीं बदलता . 
लेकिन उसकी बात अलग है।  सच तो यह है कि मैं भी उसके बिना नहीं रह पाता  हूँ और उसके लगातार आने वाले फोन और मेसेज उसके मेरे आस पास बने रहने का एहसास कराते रहते हैं . 
फोन आना बंद हो चुका था .बड़े जल्दी हार मान ली मैं मन ही मन मुस्कुराया . नहीं मुस्कुराया तो नहीं था मैं . एक झीना सा आवरण था मन पर .वह थक गयी शायद शायद उसकी आँखों में अब आँसूं होंगे . आँखों में आंसूं लरज़ते होंठ आँखों में शिकायत बड़ी मासूम सी लगती है वह ऐसे . 
पिछली बार ऐसे ही उसकी किसी बात पर मैंने आठ दिन तक उसका फोन नहीं उठाया था ना ही मेसेज का जवाब दिया था बस उसे परेशान करता रहा था ,फिर उसने मुझे अपनी कसम दी जिसे मैं नज़र अंदाज नहीं कर पाया और उससे बात की .उसने मिलने बुलाया था उसी रेस्तरां में .आँखों में आंसूं भर कर कहा था आप बहुत निष्ठुर हैं . जानते हैं मेरी जान ही निकल गयी थी . मैं आपको खोना नहीं चाहती .आप अगर मुझसे नाराज़ हों तो मुझे डांट  लिया करिए लेकिन बात करना बंद न किया करिए ,और मैंने हंस कर कहा था अरे मैं नाराज़ थोड़े ही था बस थोडा बिजी था .
हूँ बिजी थे जैसे मैं तो कुछ समझती ही नहीं हूँ न? अच्छा बाबा अब से मैं मजाक नहीं करूँगी बस .हम सिरिअस बाते किया करेंगे . 
आपका नाम क्या है ? आप कहाँ रहते है? क्या करते है ? आपके शौक क्या क्या हैं ? 
और हम दोनों ही जोर से हंस पड़ते इतनी जोर से की आसपास बैठे लोग हमें देखने लगे . 
इसके बाद कुछ दिन ठीक चला लेकिन सच कहूँ उसका यूं सीरियस होकर बातें करना मुझे ही अच्छा नहीं लगा . मैं तो उसकी उन्मुक्त हंसी सुनना चाहता था .अब तो मैं भी उससे काफी खुल गया था . कभी कभी तो मैं मजाक की सीमा तक लांघ जाता ऐसे समय वह अचानक चुप लगा जाती .उसका चुप होना ही इस बात का इशारा होता और मैं जैसे ही सॉरी कहता वह हंस पड़ती .जाने दीजिये न हो गया मैं तो भूल भी गयी आपने क्या कहा था . 
लेकिन मैं कोई बात आसानी से कहाँ भूलता हूँ और जब कोई बात बुरी लगे तब तो बिना कुछ कहे अपने तरीके से सामने वाले को इसका एहसास करवाता हूँ . 
ऐसे ही एक बार उसने कहा था ये जो आप मेरा फोन नहीं उठाते है न कभी आप ऐसे ही नाराज़ रहिएगा और मैं चुपके से कहीं दूर चली जाउंगी फिर आप ढूँढते रहिएगा और मैं मिलूंगी ही नहीं उसकी आँखों में आँसू थे .
ऐसे कैसे दूर चली जाओगी मैं आसमान पाताल एक करके भी तुम्हे ढूंढ लूँगा .
देखते हैं .
अच्छा चुप रहो बेकार की बाते नहीं .सच कहूँ उसकी इस बात से मैं भी डर गया था .
मैं जब आपको आवाज़ दूं आप जवाब जरूर दिया करिए .हर पुकार को जवाब की दरकार होती है .कहीं ऐसा ना हो की वह पुकार जवाब के इंतज़ार में गूंजती ही रहे .
मैं उसकी बातों पर हंस देता बस शुरू हो गयी ज्ञान की बातें मैं कहता , वह गुस्सा होने का दिखावा करती और फिर हंस देती . 
फोन आना बंद हो गए थे .मैंने फोन उठा कर देखा करीब बीस मिस कॉल थे लेकिन कोई मेसेज नहीं था मुझे थोडा आश्चर्य हुआ .कमाल है आज कोई मेसेज नहीं आया .फोन रख कर मैं लेट गया उसकी छवि मेरी आँखों में घूमती रही वह हंसती खिलखिलाती रही उसके घुंघराले बाल हवा में उड़ाते रहे मैं उसे देखता रहा देखता ही रहा और मेरी नींद लग गयी . 
शाम को उठ कर फिर मैंने फोन देखा न कोई मिस कॉल था न मैसेज .मैं थोडा असहज हो गया .क्या बात है उसने फोन क्यों नहीं किया ?कहीं अब वह तो मुझसे नाराज़ नहीं हो गयी ?मेरे मन में एक आशंका ने जन्म लिया हूँ वह और नाराज़ मुझे हंसी आ गयी .वह भला कहाँ मुझसे नाराज़ हो सकती है .वह बिना बात किये कभी रह सकती है क्या ? जरूर किसी काम में बिजी होगी जैसे ही समय मिलेगा फोन जरूर करेगी ,मैंने खुद को समझाया और निश्चिन्त हो गया . 
उस दिन फिर कोई फोन नहीं आया .मेरी बैचेनी बढ़ने लगी क्या वह मुझसे नाराज़ है ? लेकिन क्यों नाराज़ है ? मैंने किया ही क्या है ? मजाक तो वह करती है ऐसा मजाक जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं है . होने दो नाराज़ मुझे क्या ? देखता हूँ कब तक नाराज़ रहती है? 

पांचवें दिन एक बार फिर फोन बजा लेकिन मैं बाथरूम में था इसलिए उठा नहीं पाया जैसे वहाँ नहीं होता तो उठा लेता .सिर्फ एक मिस कॉल मैं बैचेन हो गया काफी देर फोन हाथ में लिए देखता रहा लेकिन फिर कोई फोन नहीं आया . मैं फोन करूँ ? काफी देर इसी उहापोह में रहा फोन लगाऊं या न लगाऊं ? क्या था ये पहल करने की मेरी झिझक या मेरा अहम् ? इसे कोई नाम मैं नहीं दे पाया . उसका नंबर स्क्रीन पर था लेकिन मैंने फोन नहीं लगाया . 
मेरी बैचेनी बढती जा रही थी . फोन और मैसेज के रूप में उसकी अनुपस्थिति असहयनीय होती जा रही थी . मैं उसके पुराने मैसेज पढ़ने लगा . उसी की तरह चुटीले चुलबुले मैसेज कुछ फोरवर्ड मैसेज तो कुछ उसके खुद के सन्देश . हर मैसेज में उसकी वही उन्मुक्त हँसी मौजूद थी . अब उससे दूरी सही नहीं जा रही थी लेकिन वह फोन क्यों नहीं कर रही है ? 
वह फोन किये बिना नहीं रह सकती। पहले भी एक बार उसने दो तीन दिन फोन नहीं किया था लेकिन चौथे ही दिन उसका फोन आ गया .मैं आपसे बात किये बिना नहीं रह सकती , लेकिन आप बहुत निष्ठुर हैं कभी खुद से फोन नहीं कर सकते न ? उसने उलाहना दिया था . 
मैं फोन करने ही वाला था लेकिन उससे पहले ही तुम्हारा फोन आ गया  मैंने हंस कर कहा . 
झूठे उसने बनावटी गुस्से से कहा .
अरे झूठे क्यूं सच कह रहा हूँ . 
अच्छा छोडिये क्या आपको सच में मेरी याद नहीं आती ? 
अरे ये कैसा सवाल है ? सच तो ये है की उससे बात किये बिना भी मैं हमेशा उससे बतियाता रहता हूँ वह हमेशा मेरे आस पास ही तो रहती है . सोते जागते ,उठते बैठते, खाते पीते। कितनी ही बार तो ऑफिस में काम करते करते उसकी बातें याद करके मुस्कुराने लगता हूँ .सबके साथ गपबाजी करने के बजाय आजकल अकेले ख्यालों में उससे बातें करना मुझे अच्छा लगता है . कितनी ही बार मेरे साथी मुझे अकेले मुस्कुराते हुए देख कर टोक चुके हैं . 
आज पूरे दस दिन हो गए उससे बात किये बिना .मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा है . कल रात खाना भी नहीं खाया बस यूं ही बालकनी में खड़े हो कर जाने कितनी ही सिगरेटें फूंक दीं क्या करूँ उसे फोन करूँ ? मैंने फोन हाथ में ले कर देखा कोई मिस कॉल नहीं न ही कोई मैसेज . नहीं अब और इंतज़ार नहीं होता, वह ठीक तो है ? मैं चौंक पड़ा . अचानक ऐसा ख्याल क्यों आया मन में ? पहले तो कभी ऐसा ख्याल नहीं आया .शायद इसलिए क्योंकि तब वह मैसेज और मिस कॉल के रूप में मेरे आसपास रहती थी लेकिन अब पिछले दस दिनों से वह नदारद है . कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया ? मैंने उसे फोन लगाया टू टू  के साथ फोन बंद हो गया .मेरी बैचेनी बढ़ गयी मैंने फिर फोन लगाया इस बार कनेक्शन एरर थी फिर फिर फिर हर बार एक रिकार्डेड मैसेज सुनाई देता " जिस कस्टमर से आप संपर्क करना चाह  रहे हैं उसका मोबाइल अभी बंद है ". 
उसका फोन बंद क्यों है ? वह तो कभी फोन बंद नहीं करती . मैंने घडी देखी नो बज रहे थे वह अभी घर पर ही होगी .मैंने गाडी निकाली और उसके घर पहुँच गया .घर के बाहर कई गाड़ियाँ खड़ीं थीं .क्या हो गया सब ठीक तो है न ,मेरे मन में बुरे विचार आने लगे .उसके मम्मी पापा भाई बहन सब ठीक तो हैं न ?  मैंने सर को झटका और गाड़ी से नीचे उतरा . दरवाजे के बाहर ढेर सारे चप्पल जूते रखे थे। चप्पल उतार कर अन्दर पहुंचा उसकी बड़ी सी तस्वीर पर चन्दन की माला चढ़ी थी .धुप की खुशबू से पूरा कमरा महक रहा था उसकी बहन ने मुझे देखा तो वह मेरी तरफ बढ़ी और मुझे बगल वाले कमरे में ले गयी .मैं संज्ञा शून्य सा बैठा था और वह बोले जा रही थी .दस दिन पहले सुबह ऑफिस जाते समय उसका कार से एक्सीडेंट हो गया था। हॉस्पिटल से उसने आपको फोन लगवाये लेकिन आपने फोन नहीं उठाया .बस उसकी जिद थी कि सिर्फ उसी के मोबाइल से फोन लगाए जाएँ और कोई मैसेज नहीं करे . करीब पंद्रह बीस बार फोन किया होगा लेकिन आपने फोन नहीं उठाया . उसकी नब्ज़ डूबती जा रही थी और वह आपको पुकारते हुए ही चली गयी . 
मैं बाहर के कमरे में आया कमरा पूरा भरा था लेकिन सन्नाटा पसरा  था सिर्फ उसकी आँखें हंस रही थीं जैसे कह रही हों आप बहुत निष्ठुर है मुझे बिलकुल याद नहीं करते .मैंने कहा था न हर पुकार जवाब का इंतज़ार करती है और बिना जवाब पाए भटकती रहती है .
मैं उसकी पुकार का जवाब देना चाहता था लेकिन किसे दूं समझ नहीं पा रहा था . 









बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

चल खुसरो घर आपने .....3



शाम तक जब सब लौटे थके हुए थे।चाय पीते हुए बड़ी बुआजी ने मक्के की गरमा गरम रोटी और लहसुन की चटनी खाने की फरमाइश कर दी।आखिर मायके में खातिरदारी करवाना उनका अधिकार था।खाने की तैयारी चल ही रही थी की शहर से दूर के रिश्तेदार अम्माजी को देखने आ गए।दिन में बुआजी उनके घर मिलने गयीं थीं। अब सिर्फ चाय से तो स्वागत किया नहीं जा सकता था इसलिए छोटे भैया बाज़ार भागे कुछ नाश्ता लाने।दिन भर की शांति एकदम हडबडाहट में बदल गयी।बड़ी बहूजी के बेटे का दूसरे दिन टेस्ट था बातों ठहाकों की आवाज़ से वह पढ़ नहीं पा रहा था आकर मम्मी के पास भुनभुनाया लेकिन क्या किया जा सकता था? 

बड़ी दीदी अम्माजी के पास बड़ी भावुक सी बैठी थीं।उन्हें रोते देख कर अम्माजी और बाकियों की आँखों में भी आँसू आ गए। अम्माजी कह कर नहीं पा रही थीं लेकिन समझ तो सब रही थीं।छोटी बुआजी ने पुराने गिले शिकवे निकाल लिए तो बड़ी बुआजी यादों का पिटारा खोल कर बैठ गयीं। सुबह से घर में कोहराम मच गया। बड़ी बहूजी और अम्माजी का 18-20 साल का साथ था उनके दुःख सुख की अम्माजी साथी रही थीं उनका दिल तो अम्माजी को इस हालत में देख कर रोज़ ही रो रहा था लेकिन उन्हें रो लेने की भी फुर्सत कहाँ थी? आज उनका सब्र जवाब दे गया और वे फूट फूट के रो पड़ीं। खूब रो लेने से अम्माजी की सांस उखड़ने लगी सब उनकी देखभाल में लग गए। छोटे भैया उनके पैरों के तलवों की मालिश करने लगे दोनों दीदियाँ हथेलियाँ मलने लगीं बाबूजी ने मुँह में पानी डाला।तभी बड़े भैया को कुछ ध्यान आया उन्होंने सहारा दे कर अम्माजी को उठाया सुबह चाय पिलाने के बाद उनको डकार नहीं दिलवाई थी पेट में गैस भरने से उनकी सांस उखड़ने लगी थी। थोड़ी देर में सब कुछ सामान्य हो गया। 
इन सब में छोटी बहू बस अलग थलग सी थीं। शादी के बाद से ही वे बाहर रहीं इसलिए अम्माजी से रिश्ता तो उन्होंने निभाया लेकिन बड़ी बहू जी बहुत जैसा लगाव नहीं रहा। अभी यहाँ रहते उन्हें लगने लगा जैसे उनका यहाँ आना सिर्फ मेहमानों के आने से बढ़ा काम करवाना ही था। हालाँकि वे किसी से कुछ बोलीं नहीं लेकिन अब उनका मन उखड़ने लगा था।लेकिन ऐसे समय में वे अपने पति से कुछ कह भी नहीं सकती थीं। 

तुम कितने दिन की छुट्टी ले कर आये हो।बड़े भैया ने छोटे से पूछा। 
छुट्टी कहाँ बस कह कर आया हूँ की अम्मा की तबियत ठीक नहीं है जा रहा हूँ। 
इतनी छुट्टियाँ है तुम्हारे पास?
नहीं छुट्टियाँ तो ख़त्म ही हो गयी हैं अब तो विदाउट पे हूँ। 
देख लो नहीं तो तुम वापस चले जाओ।तुमने देख तो लिया ही है हम लोग हैं ही यहाँ। बच्चों को चाहो तो छोड़ दो या देखो जैसा करना हो। 
छोटे भैया असमंजस में पड़ गए बच्चों को छोड़ दें तो उन्हें वापस लेने फिर आना होगा। यहाँ से कोई सीधी ट्रेन भी नहीं है की अकेले आ जाएँ।फिर कितने दिन यहाँ रहना पड़े कौन जाने? बच्चों के स्कूल भी तो हैं। 
देखता हूँ कह कर उन्होंने बात टाल दी। 
बड़ी दीदी छत पर जा कर फ़ोन पर बात कर रहीं थीं अम्माजी की तबियत तो रोज़ आऊं जाऊं हो रही है अभी सुबह ही ऐसा लगा थी की गयीं ऐसे में छोड़ कर कैसे आ जाऊं?हां मुझे पता है घूमने जाना है लेकिन अभी घूमने चले गए तो जिंदगी भर भाभियाँ कह कर सुनाएंगी।मन तो मेरा भी यहाँ  नहीं लग रहा है। अभी नहीं जा पाए तो इस साल तो जाना होगा ही नहीं एल टी सी लेप्स हो जाएगी। गोया अम्माजी से लगाव जैसी बात समय के साथ फीकी पड़ गयी थी अब यहाँ आना सिर्फ भाभियाँ क्या कहेंगी सोचेंगी रह गया था। 
दोनों बुआजी सिर जोड़े बैठीं थीं कितने दिन हो गए यहाँ आये खबर तो ऐसे दी थी की बस आज के कल। कितने दिन यहाँ पड़े रहें? अपना घर द्वार भी तो देखना है वहाँ कौन है करने वाला। 
दोनों एक दूसरे के कहने की रास्ता देख रही थीं एक कहे तो दूसरी भी जाने की रास्ता निकाले। 
छोटी दीदी हालांकि दुखी थीं लेकिन उनके यहाँ सच में परेशानी थी उनकी सास अधिकतर बीमार रहती थीं उन पर घर की जिम्मेदारी आने से वे घबरा रहीं थीं। रोज़ सुबह शाम फोन आ रहे थे अम्माजी की तबियत कैसी है? कब वापस आ रही हो? 
काकाजी फोन पर अपनी दूकान का काम काज संभाल रहे थे। मामाजी घर गृहस्थी के झमेलों से दूर थे लेकिन इतने मेहमानों के बीच खास कर दोनों बुआजी के रहते असमंजस्य में थे। 
बाबूजी ने घर का एक चक्कर लगा कर माहौल भांप लिया था। वे समझ रहे थे की इतने दिन घर छोड़ कर आना आजकल किसी के लिए आसान नहीं है। उन्होंने काकाजी से कहा तुम्हारे बिना दुकान में परेशानी हो रही होगी तुम निकल जाओ देख तो लिया ही है आगे जो भी होगा खबर करेंगे। 
काकाजी के मन की बात मानों कह दी गयी हो फिर भी प्रकट में बोले छोड़ कर जाने का मन तो नहीं है लेकिन नौकरों के भरोसे दुकान छोड़ना भी ठीक नहीं है शाम की गाडी से निकल जाता हूँ। 
दोनों बुआजी मानों इसी क्षण का इंतज़ार कर रहीं थी वे भी कहने लगी भैया अब हम भी चले जाते हैं वहां घर भी देखना है। बाबूजी ने हाँ में सर हिला दिया बड़े भैयाजी को टिकिट का इंतजाम करने को कहा गया। उनकी गाड़ी दूसरे दिन दोपहर में थी। बड़ी बहूजी ने राहत की सांस ली।

शहर के एक रिश्तेदार को खबर करने मात्र से कईयों को खबर हो गयी।उस सारे दिन आने जाने वालों का तांता लगा रहा। छोटी बहूजी भैयाजी से कहना चाहती थीं की हम भी निकल चलें लेकिन उन्हें अकेले बात करने का मौका ही नहीं मिला।अब उन्हें सच में घबराहट हो रही थी वे वहाँ से जाना चाहती थीं। वैसे भी उनकी उपस्थिति का मकसद सिर्फ काम में मदद करना ही था। तो अब जब मेहमान ही विदा हो रहे थे उनका वहाँ रहने का कोई ओचित्य ही नहीं था। लेकिन वे कहें कैसे? 

शाम होते तक बड़ी दीदी के घर से भी फोन आ गया की उन्हें भेज दिया जाए कुछ जरूरी काम हैं। बाबूजी ने छोटी बेटी से पूछा की घर में उसकी सास की सारसंभाल करने के लिए कौन है? उसके बिना वहाँ परेशानी हो रही होगी वो भी चाहे तो चली जाए। छोटी दीदी की हालत सांप छछूंदर सी हो रही थी। न जाते बन रहा था न रुकते। कल शाम तक देखती हूँ फिर चली जाउंगी। 
कितना अजीब है न इस देखती हूँ का मतलब। अम्माजी की हालत में सुधार की कोई उम्मीद नहीं थी। देखना क्या था की वे पहले जाती हैं या मेहमान।लेकिन ऐसी बातें कही तो नहीं जाती। 
मामाजी अम्माजी के पास बैठ कर उनसे ढेर सी बाते करते थे। कभी हंसते तो कभी दोनों भाई बहन रोते। सबके जाने की बात तय होने के बाद बाबूजी अम्माजी को बताने लगे कौन कब जा रहा है। काकाजी जाते समय उनके पास आये कहने लगे भाभी कहा सुना माफ़ करना। जल्दी से ठीक हो जाओ। 

रात अम्माजी ने आराम से काटी। लेकिन सुबह उनकी सांस फिर उखड गयी। सबको चिंता होने लगी। बहूजी को सबके जाने के लिए खाना बनाना था। अम्माजी को संभालना था। उधर दोनों बुआजी चिंता में डूबी हुई थीं। क्या करें जाएँ या नहीं? ऐसा न हो की बस जाना और आना ही हो जाये। किराया भाडा लगेगा बार बार आने जाने की परेशानी। 
बड़ी बुआजी अम्माजी के पास जा बैठीं और अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कहने लगीं। भाभी रोकने का अच्छा बहाना बनाया है तुमने।अरे जब अच्छी भली थीं तब बुलातीं थोड़ी सेवा करवाते, तुम्हारे हाथ का बना खाना खाते। सालों हो गए तुम्हारे साथ रहे। अब बुलाया तो भी ऐसे की साथ रहे जैसे न रहे,कहते हुए वे सुबकने लगीं। बात बात पर अम्माजी की आँख में आँसू आ जाते थे लेकिन वे शायद इस बात के सतहीपन को समझ रही थीं। अब तो शायद वे भी चाहती थीं की सब चले जाएँ।
दोपहर एक बजे से सबके जाने का सिलसिला शुरू होने वाला था।छोटी बुआजी और बड़ी दीदी स्टेशन पर पहुँच गए थे। छोटे भैया उन्हें छोड़ने गए थे। चार बजे छोटी दीदी को जाना था तो शाम सात बजे बड़ी बुआजी को। बड़ी दीदी और बुआजी के जाने के बाद बड़ी बुआजी का बिलकुल मन नहीं लग रहा था। समय काटे नहीं कट रहा था। छोटी दीदी के जाने की तैयारी हो ही रही थी कि अम्माजी की सांस उलटी चलने लगी मामाजी उनका हाथ पकडे बैठे थे उन्होंने चाय बनाती बड़ी बहू से कहा जमीन पर चटाई बिछाओ। बाबूजी ने उनके मुंह में गंगा जल डाला। छोटी दीदी और दोनों बहूएँ बिलख बिलख कर रो रहीं थीं। बड़ी बुआजी ने ऊँचे स्वर में रो कर अडोस पड़ोस तक खबर पहुंचा दी। आखिर ये भी तो जरूरी था। बड़े भैया को खबर कर दी गयी। समाज के कुछ लोग भी आ गए। दूसरे दिन के काम की रूप रेखा बनने लगी। बड़ी दीदी और छोटी बुआजी को भी जहाँ है वहीँ उतर कर वापस आने को कह दिया गया। घर के लोग और रिश्तेदार रीति रिवाज पूरे करने में लग गए। 

अम्माजी को शायद एहसास हो गया था कि उनके रुके रहने से सभी लोग रुके हुए हैं जबकि रुकने की इच्छा किसी की नहीं है। सबको अपने अपने काम अपना घर परिवार देखना है।आज जीवित आदमी के लिए तो समय नहीं है ऐसे में मरते हुए व्यक्ति के लिए इतने दिन जाया कर देना वाकई अखरने वाली बात ही थी। सब रिश्तेदारों की शुभाचिंताओं की असलियत उन्ही सबको दिखाना भी तो जरूरी था।शायद इसीलिए वे यमदूतों को इंतज़ार करवाती रहीं। उन्हें शायद ये भी एहसास हो गया था की अबकी ये सब चले गए तो फिर आना सबके लिए मुश्किल होगा।फिर उनके बेटे बहू अकेले कैसे सब काम संभालेंगे? शायद यही सब सोच कर उन्होंने सोचा चल खुसरो घर आपने .....


मंगलवार, 29 जनवरी 2013

चल खुसरो घर आपने ......2


बाबूजी ऐसे समय में बिलकुल खामोश थे बेटे उनकी तरफ देख रहे थे लेकिन वे स्थिति को समझ रहे थे और ऐसे समय में चुप रहना ही उन्हें सबसे बेहतर लग रहा था। आखिर ये तय हुआ की एक दो दिन और देख लेते है फिर दोनों बहनों को खबर की जाएगी उन्हें खबर करना सबसे जरूरी भी था। एक दिन आराम से गुजरा लेकिन उस दिन अम्माजी ने कुछ खाया नहीं खाने की स्थिति में तो वे थी ही नहीं लेकिन जो थोडा बहुत तरल ले रही थीं वह भी बहुत कम हो गया था इसलिए उस रात ही दोनों बहनों को फोन कर दिया गया साथ ही ये हिदायत भी दी गयी की अपनी व्यवस्था से आयें एकदम घबरायें नहीं। 

दूसरे दिन दोपहर में बड़ी बेटी पहुँच गयी और शाम तक छोटी भी। अम्माजी उन से मिल कर विभोर हो गयीं बेजान पड़ी उँगलियों में थोड़ी हरकत हुई और आँखों से आँसू बह निकले। वे भी उन्हें ढाढ़स बांधती रहीं सब ठीक हो जायेगा। लेकिन जब वहां से उठ कर दूसरे कमरे में आयीं तो भाभी के गले लग कर खूब रोयीं। बड़े भैया ने उन्हें धीरज बंधाया। देखो हिम्मत रखो बस ये शुक्र मंनाओ की उन्हें कोई तकलीफ नहीं है। 

उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती करवा देते तो शायद कुछ होता। बहनों की आवाज़ में उनकी देखभाल के लिए अविश्वास का एक हल्का सा संकेत बड़े भैया जी और बहू जी को विचलित कर गया लेकिन उन्होंने इसे जाहिर नहीं होने दिया। इस समय बहनें भावावेग में हैं, अम्माजी की इस हालत ने उन्हें हिला दिया है। उन्हें समझाया गया की इस अवस्था का अब कोई इलाज़ नहीं है। हॉस्पिटल में आई सी यू ,वेंटिलेटर सलाइन सब में उनके शरीर को ही कष्ट होगा। छोटी बहन तो फिर भी कुछ नहीं बोली लेकिन बाड़ी बहन की आँखों में अविश्वास की परछाई तैरती ही रही। बहूजी का मन रोने को हो आया वे वहां से हट गयीं। भैया जी ने उनका उतरा चेहरा देख लिया लेकिन इस समय वे उन्हें सांत्वना देने नहीं जा सकते थे। छोटी बहू ने समझदारी दिखाई और वो बहूजी के पीछे हो ली। सबको खबर करने का ये एक नया आयाम था जिसके बारे में किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन इस मोर्चे पर जूझना सबसे ज्यादा कष्टकारी था। किसी बड़ी बीमारी से कोई मर रहा हो कष्ट भोग रहा हो,रोग लाइलाज हो फिर भी हॉस्पिटल में इलाज़ करवाया जा रहा हो तो सबको एक तसल्ली रहती है की इलाज़ हो रहा है लेकिन बुढ़ापे की वजह से धीरे धीरे बिना कष्ट के मृत्यु की और बढ़ना सह्ज़ता से नहीं लिया जा सकता। 

बड़ी बहूजी थोड़ी देर रो लीं अपनी सेवा का यूं बेमोल होते देखना सहन नहीं हुआ उन्हें। रोते हुए भी उन्होंने जो जो कुछ किया था कह सुनाया। छोटी बहूजी सुनती रहीं और उनकी सेवा का मोल उन्हें समझाती रहीं। वे जानती थीं की इस समय बड़ी बहूजी की हिम्मत बंधाये रखना बहुत जरूरी है अभी तो ये पहला हमला है आगे न जाने और क्या क्या सुनना बाकी है। 
अम्माजी की हालत में कोई सुधार न था .डॉक्टर की बताई मियाद ख़त्म होती जा रही थी। सब उलटी गिनती गिन रहे थे सभी रिश्तेदारों को खबर करने का दबाब भी उन पर था। आखिर दो दिन बाद सभी को फ़ोन किया गया। बुआजी ,मामाजी काकाजी सबके रात तक पहुँचाने की उम्मीद थी। हलकी ठण्ड पड़नी शुरू हो गयी थी। सबके सोने की जगह और बिस्तर का इंतजाम करने में समय निकल गया। इस बीच छोटी बेटी ने अम्माजी की सेवा का भार अपने ऊपर ले लिया। उन्हें स्पंज देना दिन में हर दो घंटे में उन्हें सूप, फलों का रस पिलाना उनसे बतियाना। शाम होते मामाजी और बड़ी बुआजी आ गयीं तो देर रात छोटी बुआजी भी पहुँच गयीं। काकाजी की खबर आ गयी की वे दूसरे दिन सुबह आ जायेंगे। 

मामाजी ने अम्माजी से हाल चाल पूछे तब तक बुआजी पहुँच गयीं और अपने ठसके के साथ उन्होंने बातें शुरू कर दी तो मामाजी एक किनारे हो गए। अम्माजी की इच्छा का तो कोई मोल था ही नहीं। जब मामाजी की भावनाओं का कोई मोल न था तो अम्माजी तो लगभग बेजान हो चुकी थीं। हां उनके बेजान शरीर के बहाने अपनी बेजान भावनाओं को सबके सामने प्रदर्शित करने का मौका वो छोड़ना नहीं चाहती थीं। भाभी कैसी हो? क्या हाल बना लिया है? अरे कितने सालों बाद बुलाया हमें तो अब उठो तो हमें बुला कर ऐसे पड़ गयीं की कहीं कोई सेवा न करवा ले ननदें। ये बुआजी का स्टाईल था या मायके आने पर खातिरदारी न होने की आशंका या बहुओं को ये जताने की कोशिश की मौका चाहे जो हो मान दान में कहीं कोई कसर न रह जाये। दोनों बहुओं ने एक दूसरे को देखा और होंठों के किनारे स्वतः ही तिरछे हो गए। लेकिन एक बात जो किसी को दिखाई नहीं दी की वो शायद ये थी की बड़ी बुआजी भी जानती थीं की उन्होंने अपनी भाभी तो ताने उलहाने देने में कभी कोई कोताही नहीं की लेकिन आज उनके आखरी समय में उनका दिल उन्हें कचोट रहा था जिसे छुपाने के लिए वे अपने उसी रूप का सहारा ले रही थीं। अब अपनी गलती खुले और साफ़ शब्दों में स्वीकारना और वो भी अपने बच्चों के सामने इतना आसान तो नहीं था। लेकिन वे अपने ठसक से नीचे भी नहीं उतर सकती थीं। 

छोटी बुआजी देर तक अम्माजी के पास बैठी रहीं उनके और अम्माजी के बीच शुरू से एक स्नेह डोर रही वे एक दूसरे के सुख दुःख की हमेशा साझी रहीं लेकिन समय और रिश्ते कब एक से रहते हैं? उनके बीच की डोर भी समय के थपेड़ों से कभी कमजोर भी हुई लेकिन तंतु जुड़े रहे।आज इस समय में वही डोर अपने उधडे टूटे सारे तंतु इकठ्ठे करके अपनी पूरी मजबूती के साथ उन्हें जोड़े हुए थी। सारी औपचारिक बातों में ये शिकायत भी थी की हमें अपना नहीं समझा पहले खबर दे देते तो हम भी कुछ दिन सेवा कर लेते अब आखरी कुछ दिन ही बचे हैं ऐसे तो दूर दराज़ के लोगों को खबर की जाती है। फिर जैसे सबका ध्यान छोटी बहू की ओर गया। तुम कब आयीं? पिछले साल जब तबियत खराब हुई थी तब आयीं थीं? अरे नहीं आयीं? क्यों भाई ऐसी भी क्या दूरी है की सगी सास को देखने ना आ सको? अरे बच्चे तो सब के पढ़ते है लेकिन नाते रिश्तेदारी तो निभाना पड़ती है न? तुम तो वैसे भी कभी किसी रिश्तेदारी में दिखाई नहीं देतीं। अब तो दोनों दीदियों को भी मौका मिल गया। छोटी बहू जानती थी इस समय कुछ कहना मुश्किल है उसके एक शब्द को पकड़ कर उसे पूरी रामायण सुनायी जा सकती है।पति की प्रायवेट नौकरी दूरी बच्चों की पढाई के चलते उसका आना नहीं हो पता ये बात सही है लेकिन उसके घर ही कब कौन पहुँच जाता है? दोनों दीदियाँ तो दूरी के ही बहाने कभी उसके घर नहीं आयीं तो जो दूरी उनके लिए है वही उसके लिए भी है और दूरी पाटने की कोशिश तो दोनों ओर से होना चाहिए न? बड़ी बहू ने उसे आँखों से सांत्वना दी और इस बात को टाल जाने का संकेत भी। लेकिन खान पीना होने के दौरान छोटी बहू का मूड उखड़ा ही रहा। 
ठण्ड बढ़ गयी थी खाने के बाद सब अपने बिस्तर में दुबक गए। मामाजी को अब अम्माजी के पास बैठने को मिला। वे बहूत देर तक उनका हाथ थामे बचपन की गलियों में घूमते रहे। कुछ उन्हें सुनाते रहे कुछ खुद ही याद करके अपने आंसू जब्त करते रहे। बाबूजी ने उन्हें भावुक होते देखा तो थोड़ी देर कमरे से बाहर चले गए। बाहर के कमरे में बुआजी और दीदियों के बीच नयी पुरानी यादों का दौर चल निकला था। ठहाकों से अडोस पड़ोस भी गुंजायमान था। छोटी बहू अभी भी बिसुर रही थी लेकिन सबके साथ बैठना मजबूरी थी। बड़ी बहू की पीठ दर्द से दोहरी हुई जा रही थी उन्होंने भैयाजी की ओर देखा वे समझ रहे थे की सारा दिन की भागदौड के बाद अब वे थक गयी हैं लेकिन सब लम्बे सफ़र के रिजर्वेशन के पैसे वसूलते सोते हुए आये थे और अभी जल्दी सोने का किसी का मन नहीं दिख रहा था। 
थोड़ी देर बाद उन्होंने दोनों बहुओं इशारा किया जाकर सो जाएँ उन्हें सुबह जल्दी उठना था। वो महफ़िल तो देर रात तक चलती रहेगी। 

ठण्ड बढ़ गयी थी सुबह सब देर तक बिस्तर में दुबके पड़े रहे। बहुएँ रसोई में जुट चुकी थीं तभी बड़ी बुआजी की आवाज़ आयी अरे क्या बजा है?गैस पर से सब्जी उतार कर चाय की पतीली चढ़ाती बड़ी बहु ने छोटी से कहा तुम पहले सबकी चाय बना लो देर हो गयी तो फिर सारा दिन किसी न किसी बहाने से बुआजी सुनाती रहेंगी। 
भाभी  इन्हें बुलाना जरूरी था क्या? लगता तो नहीं है की इन्हें अम्माजी की तबियत की कोई चिंता है। हां छोटी बुआजी फिर भी थोडा मन रखती हैं। 
वो तो है लेकिन अब एक को खबर दें और दूसरे को नहीं ये तो नहीं हो सकता न? 
अरे लाड़ी अभी तक उठी नहीं हो क्या?? चाय वाय मिलेगी की नहीं? बड़ी बुआजी की आवाज़ ने सबको उठा दिया था। 
जी बुआजी हम तो उठ गए आपके ही उठने का इंतज़ार कर रहे थे,चाय तैयार है।छोटी बहू कल के अपने उखड़े मूड को अब तक संभाल चुकी थी। रात में छोटे भैयाजी ने उनकी सभी बातों से सहमत होते हुए उन्हें कुछ दिन इस कान से सुन उस कान से निकालने की सलाह दी थी। ऐसे मौके पर अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करके होना भी क्या था जबकि बड़े बड़े तमाशाई मौजूद थे। 
बड़ी दीदी ने चाय का कप हाथ में लेते ही कहा भाभी चाय तो बिलकुल ठंडी हो गयी मैं तो गरम की चाय पीती नहीं हूँ दूसरी बना लाओ ठण्ड में एक कप गरम चाय के बिना तो उठा नहीं जाता। 
भैयाजी को सुबह नौ बजे ऑफिस के लिए निकलना होता है वे थोडा कुछ खा कर और टिफिन ले कर जाते हैं बड़ा धर्म संकट था पहले खाना बनाये की बार बार चाय बनायें? 
तभी छोटी दीदी की आवाज़ आयी भाभी मोनू उठ गया है उसके लिए दूध गर्म करके दे दो। 
ये अच्छा है मायके तो आराम करने के लिए आया जाता है न अब अपने बच्चे का दूध भी खुद गर्म नहीं कर सकतीं। बहूजी की गुनगुनाहट भैयाजी ने सुनी तो धीरे से उनके कंधे को थपक कर शांत होने को कहा। तुम मेरी चिंता छोडो में केन्टीन में कुछ खा लूँगा। 
अम्माजी की सुबह की देखभाल करनी थी भैयाजी टिफिन नहीं ले जा पाएंगे ये सोच कर बड़ी बहूजी का मूड खराब था। तभी काम वाली बाई आ गयी। झाड़ू ले कर कमरे में पहुंची तो देखा सब अभी भी पसरे पड़े हैं। बाहर बर्तन का ढेर वो देख ही आयी थी सो उसका दिमाग भन्नाया हुआ था। उसने आते ही एलान कर दिया भाभी ठण्ड बढ़ गयी है उस पर इतने मेहमान इतने बर्तन, गरम पानी करके दो नहीं तो कल से काम पर नहीं आउंगी। बहूजी की तो सांस ही अटक गयी  सब काम छोड़ कर वो उसे मनाने लगीं देख शांता तू देख रही है न अम्माजी की हालत अब ऐसे सुख दुःख में तू धोखा दे जाएगी तो मैं किसके सहारे ये समय निकालूंगी? देख कुछ दिनों की बात है इस समय छुट्टी मत करना मैं बाद में तेरा सब हिसाब कर दूँगी। 
ठीक है भाभी इतना तो हम गरीब लोग भी समझते हैं लेकिन अब मैं एक घर के काम के लिए इतनी देर रुकूंगी तो दूसरों के यहाँ देर हो जाएगी कल से बिस्तर विस्तर उठवा कर रखना। एक तो काम ज्यादा है टेम ज्यादा लगेगा मैं बर्तन करती तब तक तुम अन्दर का काम समेट लो। 
बाबूजी सब सुन रहे थे। बहूजी और उनकी निगाह टकरायी तो उन्होंने नज़रें चुरा लीं, लेकिन फिर वे सीधे अन्दर चले गए और छोटी बेटी को इंगित करके कहने लगे सुनयना जरा बिस्तर उठा लो काम वाली बाई आ गयी है। अच्छा तो किसी को नहीं लगा लेकिन फिर भी बिना कुछ कहे सब उठ गए और जैसे तैसे बिस्तर उठा कर सोफे या तखत पर पसर गए। 
अम्माजी के बेजान पड़े शरीर को उठा कर उनके बिस्तर की चादर उनके कपडे बदलना उनका स्पंज करना थकाऊ काम था। जब घर में लोग कम थे उनका काम पहले होता था लेकिन अब अम्माजी की चिंता करने आये लोगों की चिंता करने में उनका काम उनकी देखभाल का समय बिगड़ गया लेकिन इसकी शिकायत न अम्माजी कर सकती थीं न उनके असली शुभचिंतक। सारे कामों से निबट कर बहुएँ जब उनके पास पहुंची तो अम्माजी की आँखों में आंसू थे। ये देख कर बड़ी बहूजी भी अपने आंसू नहीं रोक पाई। बड़ी दीदी को तो बस बहाना मिल गया। क्या करें अम्माजी खुद से कुछ कर नहीं सकतीं मोहताज़ हैं अब तो जब सारे काम हो जायेंगे तब उनकी सुध ली जाएगी। इससे तो उन्हें हॉस्पिटल में रखा जाता तो कम से कम वहाँ नर्स तो होती टाइम से उनकी देखभाल करने के लिए। अब बताओ 12 बज रहे हैं अभी तक ना उनके कपडे बदले हैं न उनके कुछ खिलाया पिलाया। सच तो ये था की सब अपनी गपशप में इतने व्यस्त थे की किसी को ध्यान ही नहीं था की अम्माजी की सेवा टहल कर लें अब दोनों बुआजी तो कुछ करने से रहीं लेकिन बेटियां तो सेवा कर सकती थीं लेकिन दो दिन से उनकी देखभाल करने वाली छोटी दीदी भी आज बातों में ऐसी उलझी की बस बैठी ही रह गयी। लेकिन अब उन्हें एहसास हुआ की उन्हें अम्माजी का ध्यान रखना चाहिए था। खाना पीना निबटा ही था की काकाजी भी पहुँच गए बहुएँ फिर रसोई में व्यस्त हो गयीं। तबियत अस्पताल की वही रामायण फिर दोहराई गयी। ताने उलाहने फिर सुनाये गए लेकिन अब उनके लिए सबने अपने कान और दिमाग बंद कर लिए थे। 

मामाजी और छोटे भैया बारी बारी से अम्माजी के पास बैठे उनसे बातें करते रहते कई बार सबसे छुपा कर गीली हो आयी आँखें पोंछते। अम्माजी की सांस उखड़ने लगी थी बस लगता था की अब गयीं और तब गयीं। सब सांस रोके जैसे उनकी सांस रुकने का ही इंतज़ार कर रहे थे। लेकिन छोटी दीदी ने उनके लिए सूप जूस पिलाना जारी रखा इससे मिली ताकत थी या सबको अपने आस पास देख कर अम्माजी का उनसे लगाव की वे यमदूत को दरवाजे पर ही रोके हुए थीं। दूसरा दिन बीतते न बीतते छोटी बुआजी बैचेन होने लगीं। दोनों बुआजी में खुसुर पुसुर शुरू हो गयी। ऐसे कब तक यहाँ रुके रहेंगे?वहां घर पर खाने पीने की परेशानी हो रही होगी। अच्छे भले में आये होते तो रुकना ठीक भी लगता। बड़ी दीदी भी उकताई हुई सी थीं। एक तकलीफ तो ये भी थी की दोनों बहुएँ बिना किसी से किसी काम की आस रखे आपसी सामंजस्य से सारा काम निबटा रही थीं उस पर उनके कहे सुने को भी अनसुना करके चुप थीं अम्माजी की सेवा के लिए भी दोनों तत्पर थीं ऐसे में किसी भी उद्देश्य के लिए उनका वहाँ रहना निरर्थक था। अपनी ये निरर्थकता उन्हें कचोट रही थी। 

अगले दिन सुबह से ही दोनों बुआजी और बड़ी दीदी ने मंदिर दर्शन फिर वहां से किसी रिश्तेदार के यहाँ जाने का कार्यक्रम बना लिया। छोटी दीदी ने जाने से मना कर दिया। सुबह जल्दी खाना खा कर सब निकल गए। काकाजी भी साथ हो लिए। घर में थोड़ी शांति हो गयी। आज कई दिनों बाद बहुओं को अम्माजी के पास बैठने का समय मिला था। लेकिन वो समय भी ज्यादा देर नहीं रहा। अभी तो गेहू साफ करने है आटा ख़त्म होने को है मेहमानों के सामने करना ठीक भी नहीं लगता। आज मशीन लगा कर कपडे भी धो लिए जाएँ। आज बहुत दिनों बाद बेटे के स्कूल से घर आने के समय बड़ी बहू थोड़ी फ्री थीं उसके पास बैठते उससे बातें करते उन्हें लगा जैसे कई दिनों बाद वे अपने बेटे से मिल रही हैं। बेटे ने बड़ी मासूमियत से पूछा था मम्मी ये सब लोग यहाँ कब तक रहेंगे? अब इस बात का या तो कोई जवाब नहीं था या जो जवाब था वो इतना वीभत्स था की वे चुप लगा गयीं। 
क्रमश